खनिज एवं अन्य संसाधन खोजने की ललक ही 16वीं शताब्दी से यूरोपीय उपनिवेशवाद के प्रसार की बड़ी वजह रही थी। सोना, हीरा और दूसरे कीमती संसाधनों की खोज में यूरोप के ताकतवर देशों ने दुनिया का चप्पा-चप्पा छान मारा और बाद में एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के कई देशों पर राज करने लगे। उत्तर अमेरिका की खोज भी तब हुई जब स्पेन नई जमीन और संसाधनों की तलाश में निकला।
पुराने दौर का उपनिवेशवाद खत्म हो गया मगर आज भी खनिज एवं ईंधन की लालसा ही भू-राजनीति की दिशा और चाल तय कर रही है। 20वीं सदी की भू-राजनीति काफी हद तक पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस से ही तय हुई, जो सिलसिला इस सदी में भी चल रहा है। अब स्वच्छ ऊर्जा के लिए जरूरी खनिजों की तलाश युद्ध और गठबंधनों की जमीन तैयार कर रही है। अब तो खनिज के बदले विदेशी सहायता भी मिल रही है।
आज विकसित तथा समृद्ध देश अपने यहां उत्सर्जन घटाने और स्वच्छ ऊर्जा बढ़ाने के लिए विकासशील देशों के खनिज भंडारों का दोहन करने के फेर में हैं। उनकी इन्हीं कोशिशों को ‘ग्रीन कॉलोनियलिज्म’ या ‘ईको कॉलोनियलिज्म’ का नाम दिया गया है। लैटिन अमेरिकी और अफ्रीकी देशों में मौजूद लीथियम, कोबाल्ट, निकल और दुर्लभ मृदा तत्वों के भंडार ही आज अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम की दशा-दिशा तय कर रहे हैं। अमेरिका ने यूक्रेन से कहा है कि उसके खनिज भंडार पर टिकाऊ समझौता हो गया तो उसे मिल रही अमेरिकी मदद जारी रहेगी। यह खनिजों की भू-राजनीति का ही उदाहरण है।
पश्चिम के देश हमेशा से ही आवश्यक खनिजों और पेट्रोलियम भंडारों पर कब्जा करने तथा एकाधिकार जमाने की कोशिशों में आगे रहे हैं मगर अब चीन ने भी यह कला सीख ली है। उसके पास भी दुर्लभ खनिजों का बड़ा भंडार है मगर वह दूसरे विकासशील देशों में मौजूद लीथियम, कोबाल्ट, निकल और अन्य खनिजों के भंडार पर कब्जा करने के लिए पूरी शिद्दत से लगा हुआ है।
खनिज एवं ऊर्जा से जुड़ी भू-राजनीति में भारत हमेशा से फिसड्डी रहा है। एक के बाद एक सरकारें भारत की ऊर्जा जरूरतें पूरी करने एवं सुरक्षित करने के उपायों पर बड़ी-बड़ी बातें करती आई हैं मगर इस दिशा में कोई बड़ा कदम नहीं उठाया गया है। इक्का-दुक्का कोशिश हुई हैं मगर वे भी कुछ समय बाद रुक गईं। ओएनजीसी के स्वामित्व वाली कंपनी ओएनजीसी विदेश की दुनिया के 15 देशों में तेल-गैस के 35 संभावित भंडारों में भागीदारी है मगर इससे हमारी तेल सुरक्षा में या तेल आयात पर होने वाले खर्च में खास फर्क नहीं दिखा है। निजी क्षेत्र ने भी मामूली दिलचस्पी ही दिखाई है।
भारत ने स्वच्छ ऊर्जा के लिए लंबे-चौड़े लक्ष्य तो तय कर लिए हैं मगर लग नहीं रहा कि देश के नीति निर्धारकों ने कोई सबक लिया है। भारत खनिज की खोज करने वाले कई समूहों में शामिल है और उन देशों के साथ अलग से बातचीत भी कर रहा है, जिनके पास हरित ऊर्जा के लिए आवश्यक खनिजों का भंडार है। लेकिन न तो उसका तरीका सही है और न ही वह दूर की सोचकर आगे बढ़ रहा है।
खनिज पर फिलहाल चल रही भू-राजनीति में दो मोटे नजरिये साफ दिख रहे हैं। पश्चिम यूरोप के देश और कुछ हद तक अमेरिका अपने भंडारों का इस्तेमाल करने के बजाय गरीब एवं विकासशील देशों के खनिज भंडारों का दोहन करने पर जोर देंगे क्योंकि वे अपने देश में कार्बन उत्सर्जन और पर्यावरण प्रदूषण कम से कम रखना चाहते हैं। उदाहरण के लिए हाल के अध्ययनों से पता चला है कि पश्चिमी यूरोप के तमाम देशों में कोबाल्ट, लीथियम और दुर्लभ मृदा तत्वों के अच्छे भंडार हैं मगर वे उनका इस्तेमाल शायद तभी करेंगे जब तय हो जाएगा कि दूसरे देशों से खनिज नहीं मिल सकते। अमेरिका में भी लीथियम का विशाल भंडार है मगर पर्यावरण की चिंताओं के कारण वह उसका इस्तेमाल करने से कतरा रहा है। राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप इस नीति में बदलाव करते हैं या नहीं इसका पता आगे चलकर ही लगेगा।
खनिज भू-राजनीति पर दूसरा नजरिया चीन वाला है। चीन अपने भंडार का जमकर इस्तेमाल कर रहा है मगर खनिज संपन्न देशों से समझौते भी कर रहा है। कॉन्गो की कोबाल्ट खानों पर चीन का कब्जा इसका अच्छा उदाहरण है। मगर अहम बात यह भी है कि चीन अपने यहां खनिज भंडार ढूंढकर और उनसे खनिज निकालकर दुर्लभ मृदा खनिजों की आपूर्ति में भी आगे बना हुआ है। लीथियम और दूसरे जरूरी खनिजों के प्रसंस्करण से बहुत अधिक प्रदूषण होता है मगर चीन ने अपने यहां इनकी सबसे बड़ी प्रसंस्करण इकाइयां लगाई हैं ताकि दुनिया भर में इनकी आपूर्ति पर उसका दबदबा बना रहे।
भारत ने दोनों में से कोई तरीका नहीं अपनाया है। इलेक्ट्रिक वाहनों की बैटरी में लीथियम और कुछ अन्य खनिज इस्तेमाल होते हैं मगर इनके प्रसंस्करण के लिए हमारी क्षमता नहीं के बराबर है। सौर और पवन ऊर्जा के लिए जरूरी दुर्लभ खनिजों के लिए हम काफी हद तक चीन पर निर्भर हैं, जो बड़े जोखिम की बात है। हम अपने देश में खनिज तलाशने में भी पीछे रहे और दूसरे देशों से आपूर्ति के समझौते करने में भी ढीले हैं।
भारत में लीथियम, निकल, दुर्लभ मृदा तत्वों या कोबाल्ट और दूसरे खनिजों के भंडार छोटे हैं या बड़े हैं इसका पता तो तभी चलेगा, जब हम पर्याप्त संसाधनों के साथ इनकी तलाश में जुटेंगे। साथ ही इन खनिजों को तलाशने और निकालने के लिए सही नीतियां होना भी जरूरी है। फिलहाल तो भारत में इन खनिजों के विशाल भंडार होने का कोई सबूत नहीं है मगर भंडार बिल्कुल नहीं होने का भी कोई सबूत नहीं है। इनकी खोज का काम नीतिगत बाधाओं एवं दिलचस्पी की कमी के कारण ही सुस्त है। जिन देशों के पास इन खनिजों के विशाल भंडार हैं उनके साथ समझौते करने में भी भारत काफी पीछे रहा है।
वास्तव में हमें दोनों दिशाओं में कदम उठाने चाहिए। ऐसा नहीं करेंगे तो ऊर्जा आयात पर होने वाला भारी भरकम खर्च नहीं थमेगा और महत्त्वपूर्ण खनिजों के लिए चीन पर हमारी निर्भरता कभी कम या खत्म नहीं होगी। ऊर्जा का अपना अर्थशास्त्र दुरुस्त और सुरक्षित रखने के लिए हमें दूरगामी नजर के साथ लगातार प्रयास करने की जरूरत है।
(लेखक बिजनेसवर्ल्ड और बिजनेस टुडे के संपादक रह चुके हैं तथा संपादकीय परामर्श संस्था प्रोजैक व्यू के संस्थापक हैं)