जिस तरह विश्व बैंक जलवायु परिवर्तन पर किसी कदम से नदारद दिख रहा है उसी तरह अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) भी अपना मुख्य काम करता हुआ नहीं दिख रहा है जो है: वैश्विक मौद्रिक और वित्तीय व्यवस्था की निगरानी करना। वैश्विक वित्तीय बाजार अमेरिकी बैंकों की नाकामी और उभरते बाजारों में बढ़ती मुद्रास्फीति से निपटने के लिए ऊंची होती ब्याज दरों के कारण कर्ज के बढ़ते दबाव के चलते हिले हुए हैं। ऐसे में आईएमएफ की भूमिका केंद्रीय नहीं रह गई है। उसने अपनी ऊर्जा का बड़ा हिस्सा ऐसे नए उपाय तैयार करने में लगा दिया है ताकि वह उभरते बाजारों वाली अर्थव्यवस्थाओं की गरीबी कम करने और अल्प आय वाले देशों की दिक्कतों से निपटने और वृद्धि हासिल करने में मदद कर सके। इस दौरान उसने लैंगिकता और मानव विकास जैसे मुद्दों पर भी ध्यान केंद्रित किया है जबकि अन्य एजेंसियां इस दिशा में बेहतर काम कर सकती हैं।
विकासशील देशों में अपने काम के जरिये भी उसने छह मुद्दों की आलोचना की। पहला, अधिक खुले पूंजी बाजारों को बढ़ावा देना ताकि पूरी दुनिया में अधिक वित्तीय स्थिरता हासिल की जा सके। दूसरा, आईएमएफ ने उभरती अर्थव्यवस्थाओं को जो मानक सलाह दी वह संकट को बढ़ाने वाली है। लेकिन जब बात विकसित देशों की आती है तो वह एक अलग रुख अपनाता है। तीसरा, आईएमएफ विकसित देशों में जो निगरानी करता है उसे गंभीरता से नहीं लिया जाता है और न ही विकसित देशों की नीतियों पर उसके प्रभाव का विश्लेषण किया जाता है। इसका वैश्विक प्रभाव होगा और विकसित देशों में वृहद आर्थिक प्रबंधन तथा वित्तीय स्थिरता का काम अधिक कठिन होगा।
इस बात ने भी वैश्विक वित्तीय संकट का अनुमान लगाने में भूमिका निभाई होगी। चौथा, इसके कार्यक्रमों का आकार मनमाना है। कई छोटे यूरोपीय देश मसलन ग्रीस, पुर्तगाल और आयरलैंड आदि को आईएमएफ से अपने कोटे के 30 गुना तक मदद मिलती है। युद्ध के दौरान यूरोप के लिए बमुश्किल 15 अरब डॉलर की सुविधा जुटाई गई लेकिन श्रीलंका जैसे विकासशील देश को तीन अरब डॉलर के लिए प्रतीक्षा कराई गई जबकि उसके तथाकथित मित्र चीन ने एक वर्ष से भी अधिक प्रतीक्षा कराई। कई देश जिन्हें जी7 देशों का राजनीतिक समर्थन हासिल नहीं है, उन्हें और कम राशि वाले कार्यक्रम मिलते हैं। इसका परिणाम भारी कटौती कार्यक्रमों के रूप में सामने आता है और संकट बढ़ने के बाद कार्यक्रम बार-बार दोहराए जाते हैं।
पांचवीं बड़ी आलोचना यह है कि एक बार किस्तों में भुगतान न करने का प्रतिबंध हटाने के बाद आईएमएफ सिलसिलेवार ऋणदाता बन गया है। इसके कार्यक्रम अक्सर निजी कर्जदाताओं को उबारते हैं जिनका वाणिज्यिक और सॉवरिन ऋण सार्वजनिक ऋण में बदल चुका होता है और करदाताओं पर बोझ बन जाता है। इसके सदस्य देशों में से 25 फीसदी से अधिक के यहां आईएमएफ के कार्यक्रम उनकी सदस्यता से आधे से अधिक वर्षों से जारी हैं।
अंतत: आईएमएफ पर यह आरोप लगता है वह ऐसे क्षेत्रीय और सामाजिक मुद्दों में शामिल हो रहा है जिन्हें बहुपक्षीय विकास बैंकों और अन्य द्विपक्षीय तथा विशिष्ट संयुक्त राष्ट्र संस्थानों पर छोड़ दिया जाना चाहिए। अपने नए उपाय यानी रिसाइलेंस ऐंड सस्टेनबिलिटी ट्रस्ट फैसिलिटी के साथ 20 वर्ष की परिपक्वता अवधि वाले कर्ज का इस्तेमाल करके यह विश्व बैंक जैसा दिखने और एक सहायता एजेंसी जैसा व्यवहार करने का प्रयास कर रहा है।
सन 2008-09 के वैश्विक वित्तीय संकट और 2020 की महामारी तथा अब यूक्रेन युद्ध के साथ यह स्पष्ट हो गया है कि आईएमएफ बहुत छोटा है तथा इसके संसाधन इतने अधिक नहीं हैं कि वह 21वीं सदी की चुनौतियों से निपट सके। आईएमएफ के संसाधन अब वैश्विक जीडीपी का 1.1 फीसदी यानी तकरीबन एक लाख करोड़ डॉलर हैं। यह राशि कुछ देशों के संकट से निपटने के लिए भी पर्याप्त नहीं है। लेकिन निश्चित रूप से यह राशि इतनी नहीं है कि वह वैश्विक संकट का प्रबंधन कर सके। इनमें से करीब आधे उसके खुद के संसाधन हैं और शेष उधार से की जाने वाली व्यवस्था है जो जरूरी नहीं है कि हर वक्त उपलब्ध हो। उसका पूंजी आधार भी वैश्विक जीडीपी में इजाफे के साथ समायोजन के साथ स्वत: बढ़कर दोगुना हो जाना चाहिए, खासतौर पर तब जबकि दुनिया एक ऐसे दौर में प्रवेश कर रही है जहां व्यापक ऋण संकट सामने आ सकता है। बदले में आईएमएफ को स्वैप की व्यवस्था को बढ़ावा देना चाहिए और क्षेत्रीय नकदी व्यवस्था को आगे बढ़ाना चाहिए ताकि पूरी वित्तीय व्यवस्था को अधिक सुरक्षित बनाया जा सके। उसे इन्हें प्रतिस्पर्धी के रूप में नहीं देखना चाहिए।
स्पेशल ड्रॉइंग राइट्स (एसडीआर) का कुल स्टॉक 660.7 अरब है जो करीब 950 अरब डॉलर राशि का होगा यानी वैश्विक जीडीपी के एक फीसदी से कुछ अधिक। हर एसडीआर इश्यू राजनीतिक रंग ले लेता है और यह बहुत अनिश्चित होता है। हर पांच वर्ष पर अधिक स्वचालित एसडीआर इश्यू की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि कम से कम जीडीपी का एक फीसदी हिस्सा इसमें रहे और कम आय वाले देशों को जरूरत के मुताबिक अधिक हिस्सेदारी दी जा सके लेकिन मौजूदा बंटे हुए विश्व में इस पर सहमति बना पाना काफी मुश्किल होगा।
एक सुधरा हुआ और मजबूत आईएमएफ व्यवस्था का बुनियादी आधार होना चाहिए लेकिन उसे अपनी प्राथमिक भूमिका निगरानी और नियमों की मध्यस्थता के रूप में निभानी चाहिए। उसकी सफलता का आकलन कार्यक्रमों के आकार के आधार पर या इस आधार पर नहीं होना चाहिए कि उसने कितना ऋण दिया। उसे यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि वृहद अर्थव्यवस्था पर जलवायु परिवर्तन का क्या असर हो रहा है लेकिन उसे सहायता एजेंसी की तरह व्यवहार करना बंद कर देना चाहिए। उसे ऐसे कर्जदाता के रूप में देखा जाना चाहिए जिसकी मदद अंतिम उपाय के रूप में ली जानी चाहिए। उसे स्वयं को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए और नए-नए कर्ज देने के लिए नए उपाय नहीं तलाश करने चाहिए।
अगर अग्निशमन दल के किसी कर्मचारी की कामयाबी मापनी हो तो वह इस आधार पर मापी जाएगी कि उसने कितनी आगें फैलने से रोकने में कामयाबी पाई, न कि इस बात से कि उसने आग लगने के कितने मामलों में अपनी सेवाएं दीं। इस संदर्भ में उसे केंद्रीय बैंक की स्वैप व्यवस्था तथा क्षेत्रीय समर्थन प्रणाली को प्रोत्साहित करने की दिशा में काम करना चाहिए, न कि अतीत की तरह उनका प्रतिरोध किया जाना चाहिए। उसे एक मजबूत, विविध उपायों वाली वित्तीय मजबूती कायम करने की दिशा में काम करनी चाहिए, न कि विभिन्न देशों के लिए भुगतान संतुलन या वित्तीय संकट की स्थिति में इकलौता मददगार बनने के।
(लेखक इक्रियर के वरिष्ठ अतिथि प्राध्यापक हैं)