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केवल लचीलापन ही नहीं, अर्थव्यवस्था के स्थिर बढ़ोतरी के लिए कड़े सुधारों की जरूरत

वैश्विक उथल-पुथल के बीच भारत की स्थिरता उल्लेखनीय है, वृद्धि को बनाए रखने के लिए कठोर सुधार जरूरी हैं

Last Updated- October 10, 2025 | 9:31 PM IST
Economy Growth
प्रतीकात्मक तस्वीर | फाइल फोटो

दिल्ली में आयोजित कौटिल्य इकनॉमिक कॉन्क्लेव में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वैश्विक उथल-पुथल के बीच भारत की अर्थव्यवस्था द्वारा हासिल जबरदस्त लचीलेपन का उल्लेख किया। यह लचीलापन घरेलू उपभोग पर आधारित आर्थिक वृद्धि को मजबूती से स्थापित करके हासिल किया गया है। उनकी इस बात को भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर ने भी दोहराया। उन्होंने कहा कि देश ने एक मजबूत और संतुलित विकास अर्जित किया है जो सभी बाधाओं से निपटते हुए अस्थिर वैश्विक माहौल में स्थिरता प्रदान कर रहा है। 

निश्चित तौर पर ये वक्तव्य काफी भरोसा पैदा करते हैं, खासतौर पर वैश्विक संघर्षों और ट्रंप द्वारा थोपे गए शुल्कों के कारण बाहरी मोर्चे पर व्याप्त अनिश्चितता के इस दौर में। बहरहाल, हमें हकीकत की पड़ताल करने की आवश्यकता है। केवल घरेलू खपत के आधार पर वृद्धि में तेजी हासिल करने और विकसित देश का दर्जा हासिल करने की हमारी सोच सही नहीं है। विकास के इस तरीके को आगे ले जाने के बजाय आवश्यकता यह है कि हम मौजूदा हालात की चुनौतियों को एक अवसर के रूप में लें और अर्थव्यवस्था को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए प्रभावी प्रतिक्रिया दें।

निश्चित तौर पर  निर्भरता को विवशता में बदने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए लेकिन इसका हल यह है कि हम पर्याप्त शक्ति हासिल करके दुनिया के साथ सक्रियता से जुड़े रहें। यह न केवल प्रभावी आर्थिक शक्ति के रूप में सम्मान पाने के लिए जरूरी है बल्कि देश के लोगों के कल्याण को बढ़ाने के लिए भी यह जरूरी है।

बीते वर्षों के दौरान भारत ने बाहरी झटकों और आंतरिक अनिश्चितताओं दोनों के विरुद्ध लचीलापन हासिल किया है। बाहरी मोर्चे पर हमें अब पहले के नाजुक देश की तुलना में तेजी से विकसित होती बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार किया जा रहा है। हम अंतरराष्ट्रीय विवादों के कारण उपजी अनिश्चितता और जिंस कीमतों में उतार चढ़ाव, कच्चे माल की कमी और आपूर्ति क्षेत्र की बाधाओं से भलीभांति निपटने में कामयाब रहे हैं। एक मजबूत और ठोस वित्तीय व्यवस्था के साथ देश ने वैश्विक वित्तीय अनिश्चितताओं से समुचित बचाव हासिल कर लिया है।

यहां तक कि घरेलू स्तर पर भी अर्थव्यवस्था अब मॉनसून की नाकामी और आपूर्ति क्षेत्र की दिक्कतों को लेकर मुश्किल में नहीं रहती है। वैश्विक माहौल में उथल-पुथल के बीच भी भारत ने वृद्धि और टिकाऊपन हासिल किया है और यह उसकी पहचान रही है।

आश्चर्य नहीं कि रिजर्व बैंक ने 2025-26 के वृद्धि अनुमानों को 6.5 फीसदी से बढ़ाकर 6.8 फीसदी कर दिया है। यह पहली तिमाही में तेज वृद्धि दर7.8 फीसदी की बदौलत है, जो पिछले वित्त वर्ष की पहली तिमाही में दर्ज 6.5 फीसदी और इसकी पिछली तिमाही के 7.4 फीसदी  की तुलना में अधिक है। शेष तीन तिमाहियों में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर क्रमशः 7 फीसदी, 6.4 फीसदी और 6.2 फीसदी रहने का अनुमान है। इस प्रकार, भले ही अमेरिका द्वारा टैरिफ को एक हथियार के रूप में लागू किए जाने के बाद वृद्धि की संभावनाओं को लेकर कुछ आशंका थी, लेकिन वृद्धि दर में बेहतरी की ओर संशोधन भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती को फिर से प्रमाणित करता है।

हालांकि पिछले कुछ वर्षों में वृद्धि की प्रवृत्तियों को लेकर प्रमुख चिंता यह है कि इनका मुख्य आधार घरेलू उपभोग मांग रही है। सरकार ने निजी निवेश को प्रोत्साहित करने की आशा में पूंजीगत व्यय बढ़ाने का प्रयास किया है, लेकिन निजी निवेश की मांग का रुझान अब भी कमजोर बना हुआ है। देश में निवेश करने के बजाय भारतीय कंपनियों द्वारा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में तेज वृद्धि देखी गई है। 

भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, 2024–25 में भारतीय कंपनियों का विदेशी निवेश 40 फीसदी बढ़कर 36 अरब डॉलर तक पहुंच गया है। अकेले निजी घरेलू खपत पर निर्भरता से वृद्धि को टिकाऊ गति नहीं मिल सकती है। ऐसे में वृद्धि के अन्य इंजन की बाधाएं दूर करना आवश्यक है। इसके लिए नीतिगत आत्मावलोकन की आवश्यकता है।

एक आशंका यह है कि घरेलू खपत और अस्थिर, अक्सर आक्रामक अंतरराष्ट्रीय माहौल भारत को आत्मनिर्भर आर्थिक नीति व्यवस्था की ओर धकेल सकता है, जो विनाशकारी सिद्ध हो सकता है। हम सहज हालात में नहीं जीते रह सकते। अगर हमें अगले दो दशक में विकसित देश का दर्जा हासिल करना है तो हम 6.5 फीसदी की दर की निरंतर वृद्धि से ऐसा नहीं कर सकते। आत्मनिर्भर भारत की बातों के बीच हमें यह याद रखना होगा कि दुनिया का कोई देश खुद को वैश्विक प्रतिस्पर्धा से बचाकर निरंतर उच्च वृद्धि नहीं हासिल कर सकता है।

अमेरिका द्वारा शुल्क इजाफे का इस्तेमाल भी काफी नुकसान पहुंचाने वाला होगा खासतौर पर श्रम गहन उद्योगों में। अल्पावधि में व्यापार में विविधता लाना मुश्किल है। उम्मीद है कि यह एक अस्थायी दौर है और व्यापार वार्ताएं ज्यादा उचित समाधान तक पहुंचने में मदद करेंगी। फिर भी, नीति निर्माताओं को इसे एक चेतावनी के रूप में लेना चाहिए और जो चुनौती सामने आई है, उसे सुधार का एक अवसर मानकर उसका समाधान करना चाहिए।  

वृद्धि को गति देने के लिए निवेश में इजाफा करना होगा और उत्पादकता बढ़ानी होगी। सकल घरेलू पूंजी निर्माण जीडीपी के 30-31 फीसदी पर ठहरा हुआ है और पूंजी-उत्पादन अनुपात में भी कोई कमी आने के संकेत नहीं दिख रहे हैं। उत्पादकता में इजाफा न केवल अर्थव्यवस्था की वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए आवश्यक है बल्कि घरेलू उपभोक्ताओं को गुणवत्तापूर्ण उत्पाद मुहैया कराने के लिए भी यह जरूरी है। हमें यह समझने की जरूरत है कि संरक्षणवाद केवल निर्यातकों पर ही नहीं, बल्कि घरेलू उपभोक्ताओं पर भी एक प्रकार का कर है।

आत्मनिर्भर भारत पर बहुत अधिक जोर देने से लाभ केवल उन अक्षम घरेलू उत्पादकों को होगा, जो संरक्षण के आवरण में उपभोक्ताओं को घटिया उत्पाद उपलब्ध कराएंगे। भावनात्मक भाषण देना और जनभावनाओं को उभारना आकर्षक हो सकता है, लेकिन असली चुनौती यह है कि हम गहराई से आत्ममंथन करें ताकि कार्यकुशलता प्रभावित न हो।

जैसा कि मैं पहले भी लिख चुका हूं, भारत को अंतरराष्ट्रीय माहौल द्वारा उत्पन्न चुनौतियों को अवसर के रूप में लेना चाहिए और सुधारों की शुरुआत करनी चाहिए। ये सुधार भी बुनियादी होने चाहिए न कि सतही। आवश्यक हस्तक्षेपों में श्रम और भूमि बाजारों में सुधार शामिल हैं। 

पूंजी की लागत को कम करने के लिए राजकोषीय मजबूती की प्रक्रिया को जारी रखना होगा, क्योंकि घरेलू क्षेत्र की शुद्ध वित्तीय बचत केवल लगभग 5.1 फीसदी है। सार्वजनिक निवेश को बनाए रखने के लिए विनिवेश और निजीकरण कार्यक्रम को पुनर्जीवित करके वित्त पोषण करना आवश्यक होगा।

कानून का शासन सुनिश्चित करने, संपत्ति अधिकारों की रक्षा करने और अनुबंधों को शीघ्रता से लागू करने के लिए सार्वजनिक प्रशासन में सुधार अत्यंत आवश्यक है। आत्मनिर्भरता की बात करना जारी रखा जा सकता है, लेकिन हमें कठोर पर आवश्यक सुधारों से पीछे नहीं हटना चाहिए।

First Published - October 10, 2025 | 9:31 PM IST

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