आखिरकार बॉन्ड बाजार ने अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप को विवश किया कि वह पूरी दुनिया पर टैरिफ लगाने के अपने अभियान को ’90 दिन’ के लिए रोक दें। वॉल स्ट्रीट जर्नल में छपी एक खबर के मुताबिक वित्तीय बाजारों का वास्तविक अनुभव रखने वाले उनकी कैबिनेट के दो सदस्यों वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट और वाणिज्य मंत्री हॉवर्ड लटनिक ने राष्ट्रपति को समझाया कि बॉन्ड बाजार पतन की ओर बढ़ रहे हैं। उन्होंने ट्रंप को यह समझाने के लिए वह समय चुना जब टैरिफ समर्थक सलाहकार पीटर नवारो आपत्ति जताने के लिए उनके आसपास नहीं थे।
उन्होंने राष्ट्रपति को तब तक समझाया जब तक कि उन्होंने अपने सोशल मीडिया नेटवर्क ट्रुथ सोशल पर टैरिफ को टालने का ऐलान नहीं कर दिया। वित्तीय क्षेत्र के ये दोनों मंत्री शायद इसलिए कामयाब रहे क्योंकि ट्रंप अर्थव्यवस्था के जिस एक हिस्से से जुड़े लोगों के प्रति वास्तव में सम्मान का भाव रखते हैं वे वही लोग हैं जो दूसरों को ऋण देते हैं। मेरा मानना है कि अचल संपत्ति के कारोबारियों को भी ब्याज दर, कर्जदाताओं के आत्मविश्वास और कर्ज को आगे बढ़ाने की लागत आदि के बारे में अध्ययन करना चाहिए।
जब राष्ट्रपति ने कहा था कि वह चिंतित हैं कि कुछ लोग नर्वस हो रहे हैं तो उनका तात्पर्य सामान्य अमेरिकी नागरिकों या शेयर बाजार से नहीं था। उनका तात्पर्य ऐसे निवेशकों से था जो अमेरिकी ट्रेजरी बिल पर यील्ड का निर्धारण करते हैं। चंद रोज में 10 वर्ष के ट्रेजरी बॉन्ड पर यील्ड 3.9 फीसदी से बढ़कर 4.5 फीसदी हो गई।
सरकारों यहां तक कि डॉनल्ड ट्रंप की सरकार को भी बॉन्ड बाजार की सुननी पड़ी। ब्रिटिश प्रधानमंत्री के रूप में लिज ट्रस का कुछ सप्ताह का काम इस बात की बानगी है कि अगर सरकारें न सुनें तो क्या हो सकता है। सरकारें जिनकी नहीं सुनती हैं वे हैं उपभोक्ता। उच्च टैरिफ की तात्कालिक कीमत तो वे लोग ही चुकाएंगे जो चीजें खरीदेंगे। इसके बावजूद उपभोक्ताओं की हड़बड़ाहट ट्रंप को नहीं रोक सकी।
उपभोक्ताओं की जरूरतों की अनदेखी करने के मामले में ट्रंप का प्रशासन भी दुनिया की अन्य सरकारों से अलग नहीं। उपभोक्ताओं का समूह कोई संगठित हित समूह नहीं है। कम से कम तब नहीं जबकि बात व्यापारिक नीति की हो। कुछ नीति निर्माता उपभोक्ताओं के हितों को गंभीरता से लेने वाले हो सकते हैं परंतु अधिकांश समय विभिन्न उत्पादकों और विशेष हितों की आवाज कहीं अधिक जोरदार होती है।
इससे लंबे समय में असंतुलन की स्थिति निर्मित होती है। उदाहरण के लिए चीन में नीति निर्माण के समय उपभोक्ताओं पर ध्यान नहीं दिया जाता है। बचतकर्ताओं के रूप में अपनी क्षमताओं के बावजूद चीन के नागरिक वित्तीय दमन के शिकार हैं। उन्हें अधिक बचत और खपत कम करनी होती है। इस बीच वे लंबे समय से वैश्विक उत्पादों से दूर हैं। ऐसा आयात लाइसेंस कोटा और गैर टैरिफ अवरोधों की वजह से है।
कम्युनिस्ट पार्टी ने वादा किया था कि वह अर्थव्यवस्था को नए सिरे से संतुलित करेगी और निवेश आधारित वृद्धि से खपत आधारित वृद्धि की ओर ले जाएगी लेकिन वह लगातार ऐसा करने में नाकाम रही। वृद्धि में हालिया कमजोरी की प्रतिक्रिया के रूप में चीन ने अपने संसाधनों को एक बार फिर निवेश की ओर केंद्रित किया और यह सुनिश्चित किया कि औद्योगिक उत्पादन खुदरा बिक्री की तुलना में कहीं अधिक तेजी से बढ़े।
उसे इस नाकामी की कोई राजनीतिक कीमत नहीं चुकानी पड़ी। जैसा कि शांघाई के एक अर्थशास्त्री ने हाल ही में रायटर्स से कहा, ‘चीन की आर्थिक नीतियां आश्चर्यजनक रूप से इस मामले में निरंतरता वाली रही हैं कि उन्होंने कमजोरी के स्पष्ट संकेतों के बावजूद उपभोक्ताओं पर विनिर्माताओं को तरजीह दी है।’
भारत की स्थिति भी बेहतर नहीं है। हम अक्सर सुनते हैं कि मुक्त व्यापार ने हमारे लिए हालात को मुश्किल बनाया है। अतीत में हमने जो भी समझौते किए उनमें से कोई भी हमारे लिए फायदेमंद नहीं साबित हुआ। लाभ की परिभाषा में उपभोक्ताओं को जानबूझकर बाहर रखा गया है। उदाहरण के लिए जब हमसे कहा जाता है कि आसियान देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौता होने के कारण हमारे निर्यात की तुलना में उनका आयात हमारे यहां अधिक हो रहा है तो इसे नाकामी का संकेत माना जाता है। परंतु यकीनन इसे उन लाभों के विरुद्ध संतुलित किया जाना चाहिए जो भारतीय उपभोक्ताओं को दक्षिण पूर्वी एशियाई उत्पादों तक पहुंच से हासिल होता है।
देश का दो-तिहाई खाद्य तेल आयात किया जाता है। इसमें से अधिकांश आयात इंडोनेशिया और मलेशिया से किया जाता है। अब तेल की कीमत काफी स्थिर है और उपभोक्ताओं के पास ढेर सारे विकल्प भी हैं। क्या ये लाभ इतने नगण्य हैं कि व्यापार के लाभ का आकलन करते समय इनकी अनदेखी कर दी जानी चाहिए?
दुख की बात है कि ऐसा ही हो रहा है। हमारे देश में व्यापार वार्ताकार और ट्रंप की भावनाएं, दोनों उत्पादकों को बचाने पर केंद्रित हैं जबकि वे उपभोक्ताओं पर पड़ रहे असर पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। तार्किक ढंग से सोचें तो किसी खास क्षेत्र के व्यापार एकीकरण की लागत और उसके लाभ का विश्लेषण स्वतंत्र रूप से करना चाहिए और उपभोक्ताओं और उत्पादकों दोनों पर उनके प्रभाव की तुलना की जानी चाहिए। सिक्के के एक पहलू की ओर देखने पर व्यापार के मोर्चे पर सही निर्णय नहीं लिए जा सकेंगे।
ट्रंप भी यही करने के लिए दृढ़ हैं। उनका दावा है कि विदेशी उत्पादक, टैरिफ का भुगतान करेंगे। यह बात उनके पहले राष्ट्रपति चुनाव अभियान के दौर की तरह ही झूठी है जब उन्होंने कहा था कि अमेरिका के साथ लगने वाली सीमा पर बनाई जा रही दीवार का मेक्सिको भुगतान करेगा। वास्तविकता यह है कि आयात शुल्क का असर अभी स्पष्ट नहीं है और यह संबंधित वस्तु की मांग के लचीलेपन जैसी बातों पर निर्भर करेगा। परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि अमेरिकी उपभोक्ता भी बोझ का एक बहुत बड़ा हिस्सा वहन करेंगे।
टैक्स हमेशा कल्याण कार्यों पर दो तरह का असर डालते हैं। एक तो आपूर्ति और मांग के सामान्य संचालन में हस्तक्षेप करने से होनी वाली अकुशलता के कारण होने वाला नुकसान और दूसरा वितरण संबंधी प्रभाव जो प्राय: संसाधनों को निजी क्षेत्र से सरकार की ओर ले जाता है। टैरिफ के कई प्रभाव होते हैं। ट्रंप का उद्देश्य अनिवार्य रूप से अमेरिका के उपभोक्ताओं से उत्पादकों की ओर स्थानांतरण करने का है।
सामान्य तौर पर जब किसी समूह को नीतिगत बदलाव से नुकसान होने वाला होता है तब वे उसका विरोध करने के लिए एकजुट हो जाते हैं। परंतु उपभोक्ताओं का आकार बहुत बड़ा है और इसलिए वे आसानी से किसी एक हित समूह के रूप में एकजुट नहीं हो सकते। शायद अगर तय योजना के मुताबिक टैरिफ लागू हो जाते तो खान-पान और विलासिता की वस्तुओं की कीमत में एक साथ तीव्र इजाफा होने की स्थिति में लोगों में नाराजगी पैदा होती और तब उपभोक्ताओं की आवाज सुनी जाती।
इसके बावजूद हमें एक बात स्पष्ट रूप से पता है कि उपभोक्ताओं की अनदेखी की गई, शेयर बाजारों में घबराहट का माहौल रहा लेकिन उसकी अनदेखी हुई और केवल बॉन्ड बाजार की ओर से खतरा दिखने पर ही कदम पीछे खींचे गए। यह स्थिति भारत से कितनी अलग है? आखिरकार भारत कई व्यापार समझौतों को लेकर बातचीत की प्रक्रिया में है लेकिन हमने अधिकारियों से एक बार भी यह नहीं सुना कि किस तरह उपभोक्ताओं को सस्ती वस्तुओं का लाभ हो सकता है। उपभोक्ता किसी भी देश में सबसे बड़े हित समूह होते हैं लेकिन वे सबसे कम प्रभावी भी होते हैं।
(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली के सेंटर फॉर इकनॉमी ऐंड ग्रोथ में निदेशक हैं )