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प्राकृतिक आपदाओं के लिए हमारे शहर कितने तैयार?

प्राकृतिक आपदाओं की वजह से शहरों की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। ऐसे में शहरों को शासन के अनुकूल मॉडल और व्यापक नियोजन की मदद से मजबूत बनाने की जरूरत बहुत बढ़ गई है। बता रहे हैं अमित कपूर और विवेक देवरॉय

Last Updated- April 21, 2023 | 8:15 PM IST
How prepared are our cities for natural disasters?

दुनिया भर के शहर पहले की तुलना में आपस में बहुत अधिक जुड़े हुए हैं और उनकी आबादी का घनत्व (population density) भी काफी अधिक बढ़ गया है। इसके सामाजिक और आर्थिक लाभ बहुत अधिक हैं लेकिन इसके साथ ही दिक्कतें भी बढ़ रही हैं। किसी भी शहर के सामने कई तरह की दिक्कतें आती हैं। इनमें प्राकृतिक आपदाओं (natural disasters) से लेकर अचानक घटित होने वाली घटनाएं भी शामिल हैं जो आबादी के लिए खतरा उत्पन्न करती हैं।

इसके अलावा अत्यधिक बेरोजगारी, सामाजिक सुरक्षा ढांचे की कमी तथा असमान सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था, गरीबी का प्रभाव आदि समय के साथ किसी समुदाय के सामाजिक ढांचे को क्षति पहुंचाते हैं और तब लगने वाले झटके और अधिक नुकसानदेह हो जाते हैं।

आज मांग ऐसे शासन ढांचे की है जो जोखिम को कम करें और बदलते हुए हालात से निपटें। इस संदर्भ में जरूरत इस बात की है कि हम अधिक समायोजन वाला माहौल तैयार करें ताकि जीवन की सुगमता और कारोबार करने की सहजता में सुधार लाया जा सके और शहरी व्यवस्था के लचीलेपन में और अधिक इजाफा किया जा सके।

संयुक्त राष्ट्र का इंसानी बसावट कार्यक्रम यानी यूएन हैबिटेट शहरी लचीलेपन को जिस प्रकार परिभाषित करता है उसका दूसरे शब्दों में यही अर्थ निकलता है कि शहरी लचीलापन दरअसल किसी शहर की व्यवस्था, उसके कारोबारों, समुदायों तथा लोगों की वह क्षमता है जिसके माध्यम से वे तमाम मुश्किलों और तनावों का सामना करते हुए भी हालात से निपटते हैं और समृद्ध होते हैं।

एक शहर अपने बुनियादी ढांचे को मजबूत करके तथा उसकी स्थिरता को चुनौती देने वाले मसलों की बेहतर पहचान करके अपना दायरा तथा अपने रहवासियों की बेहतरी सुनिश्चित कर सकता है। ऐसा करके ही वह यह सुनिश्चित कर सकता है कि तमाम कठिनाइयों के बावजूद शहर का विकास होता रहे। यह शहरीकरण, जलवायु परिवर्तन और वैश्वीकरण जैसे वैश्विक रुझानों को हल करने का मानक भी बनता है।

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शहरी लचीलेपन की एक आवश्यकता यह भी है कि शहर अपनी क्षमताओं और अपने समक्ष मौजूद खतरों को व्यापक रूप से परखते रहें। खासतौर पर अपने सर्वाधिक संकटग्रस्त नागरिकों को ध्यान में रखते हुए। शहरी शासन अक्सर खंडित संरचना वाला होता है जहां विभिन्न टीमें संकट से निजात पाने की योजनाएं बनाती हैं, वे टिकाऊपन के मसले पर नजर रखती हैं, आजीविका पर ध्यान केंद्रित करती हैं और अधोसंरचना तथा भू उपयोग नियोजन पर काम करती हैं।

आपस में जुड़ी हुई दुनिया में अलग-थलग नियोजन की मदद से शहरीकरण के दायरे को परिभाषित नहीं किया जा सकता है। शहर लोगों और स्थानों से मिलकर बनते हैं और इनमें अक्सर तेजी से परिवर्तन होता है। अगर लचीला शहरी भविष्य तैयार करना है तो यह आवश्यक है कि हम स्थान आधारित एकीकृत समावेशी, जोखिम से बचाव वाली और भविष्योन्मुखी ढंग से समस्याओं को संबोधित करें और उनके हल विकसित करें।

जो शहर अपने नियोजन और विकास में लचीलेपन को मूल में रखते हैं वे उसके लाभ को अधिक बेहतर तरीके से हासिल कर पाते हैं। इसमें आबादी, अधोसंरचना, अर्थव्यवस्था और पर्यावरण आदि से संबंधित दबावों और झटकों को बेहतर ढंग से सहने की शक्ति शामिल है।

शहरी क्षेत्र की अन्य चुनौतियां मसलन शहरी आबादी का बढ़ता प्रतिशत (संयुक्त राष्ट्र विश्व शहरीकरण संभावना परियोजना के अनुसार दुनिया की 68 फीसदी आबादी शहरों में रहेगी) आदि ने दबाव बढ़ाया है और इसकी वजह से शहरी बुनियादी ढांचे में तत्काल निवेश बढ़ाने की आवश्यकता है। शहरी जलवायु परिवर्तन शोध नेटवर्क के अनुसार करीब सभी शहर जोखिम में हैं और 70 फीसदी शहर पहले ही जलवायु परिवर्तन का असर झेल रहे हैं।

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उदाहरण के लिए चूंकि सभी शहरी इलाकों में 90 फीसदी हिस्सेदारी तटीय इलाकों की है इसलिए दुनिया के अधिकांश शहरों में बढ़ते जल स्तर और तूफान के कारण बाढ़ का खतरा भी बहुत अधिक है। हकीकत यह है कि 84 फीसदी से अधिक शहर जहां आबादी की वृद्धि सबसे तेज है, उनमें से अधिकांश एशिया और अफ्रीका में स्थित हैं। इन देशों को जलवायु के क्षेत्र में बड़े खतरों का सामना करना है।

सच यह भी है कि कई उच्च जोखिम वाले शहर चुनौतीपूर्ण देशों में स्थित हैं। ये देश कम विकसित हैं, कम आय वाले हैं और कई मामलों में तो ये छोटे द्वीप समूह रूपी देश हैं। शासन संबंधी कमियां और संसाधन की सीमा हालात को और मुश्किल बनाती है। इस संदर्भ में विश्व बैंक का अनुमान है कि दुनिया भर में सालाना 4.5 लाख करोड़ डॉलर की राशि को शहरी बुनियादी ढांचा क्षेत्र में निवेश करने की आवश्यकता है।

बुनियादी ढांचे को जलवायु परिवर्तन की दृष्टि से अनुकूल बनाने के लिए 9 फीसदी से 27 फीसदी के प्रीमियम की आवश्यकता होगी। ये तमाम बातें इस बात पर वजन देती हैं कि शहरी लचीलेपन को कहीं अधिक गंभीरता से देखने की आवश्यकता है।

बीते एक दशक से अधिक वक्त में शहरी लचीलापन अंतरराष्ट्रीय विकास की चर्चाओं में प्रमुख जगह ले चुका है। इसने अंतरराष्ट्रीय विकास के लक्ष्यों के ढांचे में खुद को टिकाऊ शहरी विकास के बुनियादी सिद्धांत के रूप में स्थापित किया है, मिसाल के तौर पर पेरिस समझौता।

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शहरी लचीलेपन की बुनियादी बातों को आर्थिक, सामाजिक और जलवायु लचीलेपन में बांटा जा सकता है। आर्थिक लचीलापन टिकाऊपन के नए वित्तीय ढांचे पर आधारित है। सामाजिक लचीलापन सामाजिक संरक्षण को मजबूत करने या सामाजिक सुरक्षा ढांचे को व्यापक बनाने के इर्दगिर्द केंद्रित है। वहीं जलवायु लचीलापन पर्यावरण के अनुकूल निवेश तथा बेहतर बहुस्तरीय सहयोग पर आधारित है।

इन जोखिमों से सुरक्षा का सबसे बेहतर तरीका यही है कि बेहतर शहरी नियोजन और प्रबंधन किया जाए। सक्रिय शहरी प्रबंधन रणनीति और अधोसंरचना विकास योजनाओं की बात करें तो इन जोखिमों को ध्यान में रखना उल्लेखनीय बात है। इस संदर्भ में संभावित रुख यह हो सकता है कि सभी शहरी निवासियों को अनिवार्य सेवाएं उपलब्ध कराई जाएं और उन परिवारों पर ध्यान दिया जाए जो सबसे अधिक संवेदनशील स्थिति में हैं।

नए विकास को दिशा देने के लिए, प्राकृतिक आपदाओं पर आंकड़े जुटाने तथा जलवायु परिवर्तन की घटनाओं को दर्ज करने के लिए जोखिम संबंधी नियोजन को अंजाम दिया जाना चाहिए। शहरी विकास की प्रक्रिया में भागीदारी का इस्तेमाल होना चाहिए और एक ऐसा रुख विकसित करना चाहिए जो तमाम नगर निकाय संस्थाओं में संस्थागत समन्वय बढ़ाने वाला हो तथा मानव तथा वित्तीय संसाधनों को मजबूती प्रदान करने वाला हो।

(कपूर इंस्टीट्यूट फॉर कंपीटिटिवनेस, इंडिया में चेयर और स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी में लेक्चरर हैं। देवरॉय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन हैं)

First Published - April 21, 2023 | 8:15 PM IST

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