सोयाबीन उद्योग ने सरकार से 2026 को ‘सोया वर्ष’ घोषित करने का अनुरोध किया है। सार्वजनिक क्षेत्र के निकायों एवं अनुसंधान संगठनों सहित सभी हितधारकों ने इसका समर्थन किया है। यह अनुरोध ऐसे समय में आया है जब सोयाबीन क्षेत्र मुश्किल दौर से गुजर रहा है। पिछले कुछ वर्षों में सोयाबीन का वार्षिक उत्पादन लगभग 1.25 करोड़ टन पर स्थिर है, वहीं इस बहु-उपयोगी फसल की मांग लगातार बढ़ रही है जिससे इसका आयात करना पड़ रहा है।
जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम से जुड़ी अनिश्चितताओं, कीटों, बीमारियों के बढ़ते खतरे और दाम में उतार-चढ़ाव के कारण सोयाबीन की खेती अधिक मुनाफे का सौदा नहीं रह गई है। इससे किसानों में सोयाबीन को लेकर उत्साह कम हो गया है।
चालू खरीफ बोआई सत्र में फसलों की रोपाई के रुझान स्पष्ट रूप से संकेत दे रहे हैं कि देश में सोयाबीन का रकबा पूर्व की तुलना में घटा है और धान, गन्ना या मक्का जैसी अधिक मुनाफा देने वाली फसलों को ज्यादा तरजीह मिल रही है। सोयाबीन के प्रमुख उत्पादक राज्य मध्य प्रदेश में भी यह चलन दिख रहा है जहां सोया-आधारित औद्योगिक इकाइयां भी बड़ी संख्या में हैं।
सोयाबीन के उत्पादन और खपत को बढ़ावा देने के लिए अनुकूल नीतियों एवं कार्यक्रमों के माध्यम से एक उचित कदम उठाना इस क्षेत्र के लिए निहायत जरूरी हो गया है। 2026 को सोया वर्ष के रूप में मनाना इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम हो सकता है।
सोयाबीन प्रोटीन और तेल दोनों का एक समृद्ध स्रोत है। सोयाबीन का अधिक उत्पादन कुपोषण की गंभीर समस्या, विशेषकर प्रोटीन और खाद्य तेल की कमी दूर कर दो महत्त्वपूर्ण उद्देश्य हासिल करने में मददगार हो सकता है। पहला, उत्पादन बढ़ने से सोया-आधारित उद्योगों और आगे मूल्य-श्रृंखला में रोजगार के अवसर बढ़ सकते हैं।
दूसरा, वनस्पति प्रोटीन की बढ़ती वैश्विक मांग के बीच मूल्यवर्द्धित सोया उत्पादों का निर्यात भी बढ़ाया जा सकता है। फिलहाल भारत से सोया निर्यात में मुख्य रूप से कम मूल्य के मगर अत्यधिक पौष्टिक, तेल रहित सोयाबीन शामिल हैं जिनका इस्तेमाल पशु आहार के रूप में किया जाता है। मानव उपभोग के लिए प्रोटीन पूरक एवं और प्रोटीन युक्त सोयाबीन से बने स्नैक्स तैयार करने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले सोयाबीन के दानों का ज्यादातर विदेश से आयात हो रहा है।
सोया खाद्य संवर्द्धन एवं कल्याण संघ (एसएफपीडब्ल्यूए) के अनुसार सोयाबीन अच्छी गुणवत्ता वाले प्रोटीन एवं कई अन्य महत्त्वपूर्ण पोषक तत्त्वों के सबसे किफायती स्रोतों में से एक है। इसमें सभी नौ आवश्यक अमीनो एसिड (आहार प्रोटीन की एक पूरी श्रृंखला) और स्वस्थ वसा, रेशे (फाइबर), विटामिन और खनिजों की पर्याप्त मात्रा होती है। सोयाबीन में मौजूद प्रोटीन की लागत आम तौर पर अंडे और अन्य मांसाहार स्रोतों से प्राप्त प्रोटीन की लागत का लगभग छठा हिस्सा और गेहूं से प्राप्त प्रोटीन की आधी होती है।
सोयाबीन के दानों में औसतन 40 फीसदी प्रोटीन होता है, जो अंडे और विभिन्न प्रकार के मांस में मौजूद प्रोटीन के बराबर और कुछ मामलों में उससे भी अधिक है। इसमें मौजूद वसा सामग्री अनुमानित तौर पर लगभग 20 फीसदी (कुछ अन्य तिलहन जैसे सरसों और मूंगफली की तुलना में कम) है, लेकिन इनकी गुणवत्ता अच्छी मानी जाती है।
इसमें मोनो-अनसैचुरेटेड और पॉली-अनसैचुरेटेड वसा दोनों शामिल हैं। इसमें कुछ महत्त्वपूर्ण विटामिन भी होते हैं जैसे विटामिन के और विटामिन ए, कैल्शियम, आयरन, मैग्नीशियम, फाॅस्फोरस, पोटैशियम, जिंक और सेलेनियम जैसे खनिज और अत्यधिक मांग वाले एंटीऑक्सिडेंट एवं वनस्पति पोषक तत्व होते हैं। ये सभी विभिन्न स्वास्थ्य लाभ प्रदान करते हैं।
हालांकि, भारत में सोयाबीन की वर्तमान खपत का स्तर बहुत कम यानी केवल 2 ग्राम प्रति दिन है जबकि चीन में यह 40 ग्राम और जापान में 30 ग्राम है। विशेषज्ञों का मानना है कि प्रोटीन की जरूरत पूरी करने के लिए मुख्य रूप से शाकाहारी भोजन पर निर्भर लोगों में उचित पोषण सुनिश्चित करने के लिए खपत 15-20 ग्राम तक पहुंचनी चाहिए।
सीमित उपलब्धता के अलावा सोयाबीन की कम खपत के कई कारण हैं। उनमें सोयाबीन के स्वास्थ्य और पोषण संबंधी गुणों के बारे में जागरूकता की कमी, दूध, दही, लस्सी एवं पनीर जैसे दुग्ध उत्पादों को अधिक तरजीह मिलना और सोयाबीन की पाचनशीलता से संबंधित मुद्दे (खासकर जब पारंपरिक भारतीय दालों की तरह उपयोग में लाया जाता है) आदि शामिल हैं।
सोया के बीजों में कुछ अवांछनीय यौगिक जैसे ट्रिप्सिन-अवरोधक और फाइटेट होते हैं जो पोषक तत्वों के अवशोषण को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करते हैं और गैस और सूजन जैसे स्वास्थ्य जोखिम पैदा करते हैं। हालांकि सोयाबीन को रातभर भिगो कर इस्तेमाल करने, उचित तरीके से पकाने और औद्योगिक प्रसंस्करण जैसी सरल प्रक्रियाओं के माध्यम से ये जोखिम काफी हद तक कम किए जा सकते हैं। ज्यादातर लोग इससे अवगत नहीं हैं। इसके अलावा कई उपभोक्ताओं को सोया उत्पादों के स्वाद और गंध पसंद नहीं आते हैं। यहां तक कि टोफू जैसा विश्वस्तर पर लोकप्रिय सोया-आधारित उत्पाद भी भारत में अधिक नहीं बिकता है क्योंकि यह अपने समकक्ष दूध-आधारित देसी विकल्पों की लोकप्रियता को टक्कर नहीं दे पा रहा है।
दुर्भाग्य से सोयाबीन एक पहचान संकट से भी जूझ रहा है। इसे न तो तिलहन माना जाता है (जबकि यह मुख्य रूप से तेल निकालने और इसके बाद बची खली पशु आहार के रूप में उपयोग करने के काम आता है) और न ही दलहन फसल जबकि इसमें प्रोटीन की मात्रा बहुत अधिक होती है। इतना ही नहीं, अन्य दलहन फसलों की तरह यह भी मिट्टी में वायुमंडलीय नाइट्रोजन को स्थिर करता है। सोयाबीन के गुणों और इसके उपभोग के उचित तरीकों के बारे में लोगों को शिक्षित करने का दायित्व मुख्य रूप से सोया-आधारित उद्योग, व्यापार और अन्य हितधारकों पर है।
निस्संदेह, उन पर इस मोर्चे पर निष्क्रियता का आरोप नहीं लगाया जा सकता है, लेकिन भोजन के रूप में सोयाबीन की मांग को और बढ़ावा देने के लिए और अधिक कदम उठाने की आवश्यकता है। 2026 को सोया वर्ष के रूप में मनाना इस क्षेत्र को तेजी से विकास की राह पर ले जाने में कारगर साबित हो सकता है।