व्यापक राजकोषीय दृष्टिकोण से वित्त वर्ष 2023-24 का बजट बेहतर माना जा सकता है। यह वर्ष 2016 में अरुण जेटली द्वारा पेश चर्चित बजट के बाद से अब तक का सबसे शानदार बजट है। बजट की घोषणाओं के क्रियान्वयन और वृहद राजकोषीय हालात के प्रबंधन में वित्त मंत्रालय कई बार कमजोर साबित हुआ है। वर्ष 2023-24 के बजट में व्यापक आर्थिक हालात कठिन बनाने वाले कारकों से तो नहीं निपटा गया है, मगर इनका प्रबंधन पिछले कुछ वर्षों की तुलना में बेहतर तरीके से किया गया है।
वित्त वर्ष 2023 में सकल कर राजस्व और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का अनुपात 11.3 प्रतिशत रहा है। यह वित्त वर्ष 2019 और 2020 में तय लक्ष्य की तुलना में कम
है। इसमें आई कमी संकेत दे रही है कि कर राजस्व बढ़ाने के मामले में सरकार तंग हैं। वित्त वर्ष 2024 के लक्ष्य में कोई बदलाव नहीं किया गया है और एक तरह से सरकार स्वीकार कर रही है कि राजस्व संग्रह बढ़ाने की उसकी क्षमता फिलहाल सीमित है।
वित्त वर्ष 2023 के संशोधित अनुमान में राजकोषीय घाटा 4.6 प्रतिशत के ऊंचे स्तर पर है। यह वित्त वर्ष 2019 की तुलना में लगभग दोगुना है। सरकार ने धीरे-धीरे इसे कम कर राजकोषीय घाटा 4.5 प्रतिशत तक सीमित करने का लक्ष्य रखा है, जो वित्त वर्ष 2020 में कोविड महामारी से पूर्व के स्तर के करीब है। वित्त वर्ष 2017 में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने राजकोषीय घाटा जीडीपी का 3.5 प्रतिशत तक सीमित रखने का लक्ष्य हासिल कर लिया था।
पिछले तीन वर्षों में इस सरकार की एक बड़ी सफलता यह रही है कि यह उपभोग (राजस्व व्यय) के लिए उधारी लेने में कमी करने में कामयाब रही है। वित्त वर्ष 2019 में उधार लिए गए प्रत्येक 1 रुपये में 70 पैसा उपभोग व्यय के मद में खर्च किया गया था। यह अनुपात धीरे-धीरे कम होकर वित्त वर्ष 2023 में 63 पैसे रह गया और अब वित्त वर्ष 2024 में यह कम होकर 48 पैसे रहने का अनुमान है। अगर सरकार यह आंकड़ा हासिल कर लेती है तो वित्त वर्ष 2007 के बाद यह पूंजीगत व्यय के मद में उधार ली गई सर्वाधिक रकम होगी।
‘अमृत काल’ का नारा बुलंद करने वाले लोग इसे सार्वजनिक पूंजी व्यय में एक बड़ी बढ़ोतरी मान रहे हैं। वे बजट अनुमान में 10 लाख करोड़ रुपये के पूंजीगत व्यय के आंकड़े से मंत्र मुग्ध लग रहे हैं। यह आंकड़ा जीडीपी का 3.3 प्रतिशत है। हालांकि केंद्र सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का संयुक्त पूंजीगत आवंटन जीडीपी के 3.9 प्रतिशत हिस्से के बराबर है।
बजट में पूंजीगत आवंटन में जितना इजाफा हुआ है उसी अनुपात में सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आवंटन में कमी आई है। पूंजीगत व्यय के लिए राज्यों को ऋण में इजाफा एक स्वागत योग्य कदम है मगर कुछ हद तक इनका इस्तेमाल राज्यों द्वारा पूंजीगत व्यय के लिए किए गए प्रावधान के लिए होगा। हालांकि इसके बाद भी यह एक अच्छी पहल है मगर सरकार के समर्थक जिस तरह महिमामंडन कर रहे हैं उसकी तुलना में सरकार के पास ज्यादातर संसाधन सीमित मात्रा में हैं।
पर्याप्त संसाधन जुटाने में सरकार के हाथ लगातार तंग होने का मतलब है कि राजकोषीय स्तर पर आंकड़े दुरुस्त करने के लिए व्यय में कमी का सहारा लिया जाएगा। वित्त वर्ष 2023 में व्यय में कमी (जीडीपी के 0.7 प्रतिशत के बराबर) से राजकोषीय घाटा 0.3 प्रतिशत कम हो पाया और बाकी बची रकम का इस्तेमाल प्राप्तियों में आई कमी की भरपाई करने में की गई। वित्त वर्ष 2024 में सरकार ने व्यय में 0.4 प्रतिशत और कमी करने का प्रस्ताव दिया है।
यह कटौती राजकोषीय घाटे में आई कमी के बराबर है। इसे देखते हुए मैं एक बार फिर वही कहने जा रहा हूं जो मैं 2019 से लगातार कहता आया हूं। पूरा नीतिगत तंत्र गंभीर स्थिति से गुजर रहा है और इस बात की अनदेखी की जा रही है कि वित्तीय रूप से सरकार के हाथ एक सीमा से अधिक तंग हैं। यही वजह है कि राजकोषीय स्थिति ठीक करने के लिए सरकार व्यय में कटौती का सहारा ले रही है। यह एक कारण है कि क्यों तथाकथित राजकोषीय गुणक का सिद्धांत आधारहीन एवं विश्लेषण के लिहाज से सुस्त है। सार्वजनिक व्यय में कमी करने से राजकोषीय गुणक प्रभाव में नहीं आ सकता या निजी निवेश या खपत में कमी की भरपाई नहीं कर सकता है।
इस राजकोषीय बाधा के परिणाम इस रूप में देखे जा सकते हैं कि बजट में पूंजीगत आवंटन बढ़ाने के लिए मांग को स्थिरता देने वाले वाली मनरेगा जैसी योजनाओं के लिए रकम में कटौती करनी पड़ी है। सरकार ने खाद्य एवं उर्वरक सब्सिडी में भी जीडीपी के 0.64 प्रतिशत हिस्से के बराबर कमी की है मगर यह नाकाफी रही और सरकार को मनरेगा के लिए आवंटन में कटौती करने से नहीं रोक पाई। हालांकि इस राजकोषीय बचत का इस्तेमाल राजकोषीय हालत दुरुस्त करने और पूंजीगत व्यय में निरंतरता के लिए होना चाहिए था।
इसमें कोई शक नहीं कि इस सरकार को चुनाव जीतने के लिए आर्थिक संपन्नता लाने के मोर्चे पर अच्छा प्रदर्शन करने की जरूरत नहीं है इसलिए यह मनरेगा जैसी योजनाओं में कमी का विकल्प चुन पाई मगर तब भी यह एक तरजीही समाधान तो नहीं माना जा सकता है। राजस्व संग्रह बढ़ाने में सरकार के लगातार कमजोर प्रदर्शन और विनिवेश लक्ष्य हासिल करने में असफल रहने से संसाधन जुटाने में बाधा आ रही है।
इससे सरकार पास विकल्प काफी सीमित रह जाते हैं। निजीकरण के लिए मजबूत राजनीतिक समर्थन और क्रियान्वयन करने की क्षमता जरूरी हैं। यह स्पष्ट हो चुका है कि सरकार के पास इन दोनों ही की कमी है। वित्त वर्ष 2020 में सरकार विनिवेश लक्ष्य से 55,000 करोड़ रुपये दूर रह गई। वित्त वर्ष 2021 में सरकार विनिवेश लक्ष्य से 1,70,000 करोड़ रुपये दूर रह गई। ऐसा कहा जा रहा है कि वित्त वर्ष 2022 में सरकार संशोधित अनुमान से 97,000 करोड़ रुपये दूर रह गई। बुधवार को पेश बजट में दिए गए अंतिम आंकड़े बताते हैं कि सरकार विनिवेश से 15,000 करोड़ रुपये से भी कम रकम हासिल कर पाई। इस तरह, सरकार विनिवेश लक्ष्य 1,60,000 करोड़ रुपये से चूक गई।
इन परिस्थितियों को देखते हुए वित्त मंत्रालय वित्त वर्ष 2023 में अपना लक्ष्य संशोधित कर 65,000 करोड़ रुपये तक रखने के लिए विवश हो गई। संशोधित अनुमानों में दावा किया गया है कि यह लक्ष्य काफी हद तक पूरा किया जा चुका है। पिछले प्रदर्शन को देखते हुए मैं इस दावे को चुनौती देता हूं क्योंकि 2022 तक इस लक्ष्य का केवल आधा ही हासिल हो पाया था। इस प्रकार का बजट प्रबंधन सरकार की कार्य क्षमता एवं राजकोषीय नीति के लिए नुकसानदेह है। राजनीतिक तंत्र को चाहिए कि वह समस्या को दूर करें और जवाबदेह लोगों को तलब करे।
बजट में प्रत्यक्ष कर सुधार की दिशा में प्रयास किए गए हैं मगर तथाकथित मध्यम आय वर्ग पर इनके असर को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जा रहा है। बजट भाषण में स्वयं अपनी पीठ थपथपाने और भारत की अवश्यंभावी प्रगति का बढ़-चढ़ कर दावा करने के बजाय ‘अमृत काल’ का बार-बार जिक्र किया गया है। वित्त मंत्री ने कम से कम नौ बार ‘अमृत काल’ का उल्लेख किया है। बजट छोटा भी रखा गया और इसमें व्यापक राजकोषीय हालात पर पर्याप्त ध्यान दिया गया है।
इन सभी बातों का स्वागत किया जा सकता है मगर इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि सरकार गंभीर संरचनात्मक राजकोषीय चुनौतियों से जूझ रही है। इससे आर्थिक वृद्धि हासिल करने या आम भारतीय के जीवन स्तर में सुधार के प्रयासों पर नकारात्मक असर हो सकता है। एक मुश्किल स्थिति का प्रबंधन इसका स्थायी समाधान नहीं है।