यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (यूपीआई) को गत सप्ताहांत एक बड़ी समस्या का सामना करना पड़ा जिसके चलते देश भर के उपभोक्ता कई घंटों तक परेशान रहे। यूपीआई नेटवर्क का संचालन करने वाले नैशनल पेमेंट्स कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (एनपीसीआई) ने सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों को जानकारी दी कि उसे रुक-रुक कर तकनीकी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है जिसके चलते यूपीआई लेनदेन आंशिक तौर पर विफल भी हो रहे हैं। बहरहाल चिंता की बात यह है कि यह अपनी तरह की इकलौती घटना नहीं है। शनिवार को यूपीआई के अचानक बंद होने के पहले भी हाल के दिनों में दो बार ऐसा हो चुका है। हालांकि एनपीसीआई ने गत सप्ताह यह सूचना दी थी कि उसने समस्या की जड़ का पता लगाने के लिए विश्लेषण किया है लेकिन शायद इससे खास मदद नहीं मिली। चूंकि यह बीते एक साल में इसके बाधित होने का छठा अवसर था इसलिए अब वक्त आ गया है कि कुछ सवाल किए जाएं और ऐसी बाधाओं की आशंकाओं को समाप्त किया जाए।
इसमें दो राय नहीं कि एनपीसीआई ने बीते एक दशक में शानदार काम किया है। उसने देश में डिजिटल लेनदेन को पूरी तरह बदल दिया है। इस समय देश में रोज करीब 60 करोड़ यूपीआई लेनदेन होते हैं। यूपीआई की कामयाबी के कारण बहुत बड़ी संख्या में भारतीय बिना नकद राशि लिए घर से निकलते हैं। बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जिनका मोबाइल फोन ही उनका बटुआ है क्योंकि देश के दूरदराज इलाकों में भी यूपीआई से भुगतान स्वीकार किया जाता है। ऐसे में लेनदेन की प्रक्रिया का अबाध होना आवश्यक है। अगर यूपीआई अनायास बंद होता रहा तो कारोबारों को बहुत नुकसान होगा, खासकर छोटे कारोबारियों और वेंडरों को। एक तरह से देखें तो यह वित्तीय व्यवस्था के लिए भी जोखिम भरा साबित हो सकता है।
एक औसत भारतीय के जीवन में यूपीआई के महत्त्व को देखें तो यह अहम है कि जवाबदेही सुनिश्चित की जाए और व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए जरूरी कदम उठाए जाएं। ऐसी खबरें हैं कि यूपीआई में बार-बार समस्या आने की एक वजह लेनदेन में अचानक इजाफा भी है। जरूरत पड़ने पर एनपीसीआई को अपनी क्षमता बढ़ानी चाहिए। भारतीय रिजर्व बैंक को भी इसकी वजह पता लगानी चाहिए और जरूरी कदम उठाने चाहिए। आमतौर पर वह विनियमित संस्थाओं की कमियों को जल्दी पकड़ता है और उसे ऐसा करना भी चाहिए लेकिन एनपीसीआई के मामले में ऐसा देखने को नहीं मिल रहा है। यह भी रिजर्व बैंक को ही तय करना है कि भुगतान में शामिल सभी संस्थान चाहे वे बैंक हों, भुगतान कंपनियां हों या सेटलमेंट के लिए जिम्मेदार संस्थाएं, वे सभी उचित तरीके से काम करें। ताजा समस्याएं एनपीसीआई के एकाधिकार और केंद्रीकरण से जुड़े जोखिम के अहम प्रश्न को भी उठाती हैं। एनपीसीआई ने व्यक्तिगत संस्थाओं के लिए 30 फीसदी तक बाजार हिस्सेदारी सीमित करने के प्रस्ताव में देरी करके एक तरह से दो कंपनियों के दबदबे की व्यवस्था बनाए रखा है जहां दो भुगतान सेवा प्रदाता 90 फीसदी बाजार पर काबिज हैं। इस समस्या को तत्काल हल करने की आवश्यकता है।
नीति की बात करें तो रिजर्व बैंक ने भुगतान निस्तारण के लिए नई संस्थाएं बनाने का विचार कुछ साल पहले पेश किया था। ऐसा होने से एनपीसीआई के लिए प्रतिस्पर्धा की स्थिति बनती। बहरहाल, इस दिशा में ज्यादा कुछ नहीं हुआ। एनपीसीआई एक गैर लाभकारी कंपनी है और इसका स्वामित्व कई बैंकों और वित्तीय संस्थानों के पास है। एनपीसीआई के व्यापक स्वामित्व को देखते हुए प्रतिस्पर्धी संस्थाएं स्थापित करना आसान नहीं होगा। ऐसे में सरकार और रिजर्व बैंक के लिए यह अहम होगा कि वे हितधारकों को ऐसी संस्थाओं में निवेश करने को कहें जो एनपीसीआई के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकें। वास्तव में जोखिम को कई कंधों तक फैलाना वित्तीय व्यवस्था के हित में होगा। इस संदर्भ में यह अहम होगा कि सरकार तय करे कि वह यूपीआई को लोगों के लिए नि:शुल्क रहने की कीमत कब तक चुकाना चाहती है। एक प्रतिस्पर्धी मर्चेंट डिस्काउंट रेट भुगतान कारोबार में शामिल कंपनियों को टिकाऊ कारोबार तैयार करने में मदद करेगी। इससे प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और जोखिम बंटेगा। डिजिटल लेनदेन के व्यापक लाभों का बचाव होना चाहिए।