भारतीय रिजर्व बैंक की छह सदस्यों वाली मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) की बैठक इस सप्ताह शुरू हो गई है। नए वित्त वर्ष की यह पहली बैठक है, जो वैश्विक अनिश्चितताओं के कारण अत्यधिक जटिल माहौल में हो रही है। अमेरिका ने पिछले हफ्ते सभी व्यापार साझेदारों पर जवाबी शुल्क लगा दिया। अब सभी देशों पर 10 फीसदी बुनियादी शुल्क लग रहा है। जिन देशों को वह निर्यात कम करता है मगर जहां से आयात ज्यादा होता है उन पर अतिरिक्त शुल्क लगाया गया है। उदाहरण के लिए भारत से होने वाले आयात पर 26 फीसदी टैरिफ लगेगा। चीन पर 34 फीसदी जवाबी शुल्क लगा है और पहले से लगे 20 फीसदी शुल्क को मिला दें तो चीनी माल पर कुल शुल्क 54 फीसदी हो जाता है। चीन ने भी जवाब में अमेरिकी आयात पर 34 फीसदी शुल्क लगा दिया है। अमेरिका के ये शुल्क और दूसरे बड़े व्यापार साझेदार देशों के जवाबी शुल्क विश्व व्यापार पर क्या असर डालेंगे या वैश्विक वृद्धि को किस तरह प्रभावित करेंगे इसका अंदाजा लगाना अभी मुश्किल है।
यही वित्तीय बाजारों में भी नजर आ रहा है। अस्थिरता बहुत बढ़ गई है और दुनिया भर के शेयर बाजार गिर रहे हैं। बंबई स्टॉक एक्सचेंज सोमवार को 2.95 फीसदी गिर गया। दुनिया भर के बाजारों में कच्चा तेल सस्ता हुआ है और ब्रेंट क्रूड अप्रैल में 15 फीसदी से ज्यादा नीचे आ चुका है। 10 साल के अमेरिकी सरकारी बॉन्ड पर यील्ड इस महीने करीब 25 आधार अंक घट गई है। इससे पता चलता है कि वित्तीय बाजार मान रहे हैं कि फेडरल रिजर्व नीतिगत दरों में तेजी से कमी करेगा। आशंका यह भी है कि अमेरिका मंदी की गिरफ्त में जा सकता है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए हालात तेजी से प्रतिकूल होते जा रहे हैं। मुश्किल यह है कि मंदी तब आ रही है, जब शुल्क बढ़ने से अमेरिका में उपभोक्ता कीमतें चढ़ सकती हैं। फेड के चेयरमैन जेरोम पॉवेल ने पिछले हफ्ते कहा कि शुल्क के कारण महंगाई कुछ समय तक बढ़ी रह सकती है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मंदी आई तो विश्व युद्ध के बाद के सबसे बड़े वैश्विक व्यापारिक झटके के साथ मिलकर यह वैश्विक वृद्धि पर बहुत बुरा असर डाल सकती है।
एमपीसी के सामने चुनौती यह भांपना है कि बढ़ी हुई अनिश्चितता भारत में वृद्धि और मुद्रास्फीति पर कैसा असर डालेगी क्योंकि नीतिगत निर्णय इसके आधार पर ही लिया जाएगा। एमपीसी का निर्णय बुधवार को आएगा और उस पर तथा रिजर्व बैंक के अधिकारियों के बयान पर ही वित्तीय बाजारों की नजर टिकी रहेगी। आज के हालात में एमपीसी को लगता है कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक वाली मुद्रास्फीति की दर इस वित्त वर्ष में औसतन 4.2 फीसदी रहेगी, जो केंद्रीय बैंक के मध्यम अवधि के लक्ष्य के आसपास है। भारत निर्यात पर अधिक शुल्क लगाता है (बेशक वह कुछ एशियाई देशों से कम है), जिसका असर उत्पादन और वृद्धि पर पड़ेगा। हालांकि अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी क्योंकि भारत सरकार अमेरिका के साथ द्विपक्षीय समझौते पर बातचीत कर रही है। फिर भी खाद्य मुद्रास्फीति नरम रहने पर धीमी वृद्धि कंपनियों की मूल्य तय करने की ताकत घटाएगी, जिससे कुल मिलाकर मुद्रास्फीति में कमी आएगी। कच्चे तेल की कीमतों में कमी भी मुद्रास्फीति को कम करेगी। केंद्र सरकार ने सोमवार को पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क में दो रुपये प्रति लीटर का इजाफा किया है, जिससे कच्चा तेल सस्ता होने का ज्यादा फायदा नहीं मिल पाएगा।
इसके अलावा अमेरिका में शुल्क अधिक रहने से आयात मांग घटेगी। दुनिया भर में अधिक उत्पादन के कारण इस सूरत में कुछ समय वैश्विक मूल्य घटे रहेंगे। इसके कारण वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला की दिशा भी बदल सकती है, जिससे कीमतें बढ़ेंगी मगर सही असर का अंदाजा अभी लगा पाना मुश्किल है। इस तरह देखा जाए तो एमपीसी के पास नीतिगत दरों में 25 आधार अंक कटौती की भरपूर वजह है। देखने वाली बात यह है कि वह वृद्धि तथा मुद्रास्फीति के अनुमान भी बदलती है या नहीं। हां, मध्यम अवधि में अगर व्यापार के मोर्चे पर ज्यादा झटका लग जाता है तो भी समिति को वृद्धि तेज करने के लिए जरूरत से ज्यादा ढिलाई नहीं बरतनी चाहिए।