प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस के अवसर पर दिए अपने संबोधन में कहा कि बीते दशक में कई पहल की गई हैं। इस संबंध में हाल ही में पंचायती राज मंत्रालय ने जमीनी स्तर पर सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम उठाया और पंचायत एडवांसमेंट इंडेक्स (पीएआई) शुरू किया। देश की 2,16,000 पंचायतों को गरीबी उन्मूलन और बेहतर आजीविका, स्वास्थ्य, जल की पर्याप्तता, समुचित अधोसंरचना और सुशासन जैसे मानकों पर आंका गया और रैंकिंग प्रदान की गई। यह सूचकांक देश के सतत विकास के एजेंडे में ग्रामीण स्थानीय निकायों की अहम भूमिका की साहसी स्वीकारोक्ति है।
संयुक्त राष्ट्र जहां विभिन्न देशों के स्तर पर सतत विकास लक्ष्यों के क्रियान्वयन की प्रगति की निगरानी करता है और नीति आयोग का एसडीजी इंडिया इंडेक्स राज्य स्तर के प्रदर्शन पर नजर रखता है वहीं हाल के वर्षों में इन लक्ष्यों के स्थानीयकरण पर जोर दिया गया है ताकि उनका प्रभावी क्रियान्वयन सुनिश्चित किया जा सके। इस संदर्भ में पीएआई एक स्वागतयोग्य कदम है और भविष्य में इसकी कवरेज को सभी 2,69,000 पंचायतों तक बढ़ाया जाना चाहिए। बहरहाल, इसके परिणाम चिंताजनक हैं। एक भी पंचायत ऐसी नहीं रही जिसने अचीवर्स की श्रेणी में जगह बनाई हो।
केवल 699 पंचायतों को अग्रणी घोषित किया गया है। इसके अलावा बहुत बड़े पैमाने पर भौगोलिक असमानताएं भी हैं। 699 अग्रणी पंचायतों में से 346 गुजरात की, 270 तेलंगाना की और 42 त्रिपुरा की हैं, जबकि कई राज्य काफी पीछे हैं।
पंचायतें शासन का वह स्तर हैं जो जनता के सबसे करीब होता है। शीर्ष से नीचे की ओर आने के मॉडल के बजाय पंचायत के नेतृत्व वाला रुख ऐसी रणनीतियां बनाने की इजाजत देता है जो हर गांव की खास सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक और पर्यावरण संबंधी चुनौतियों को ध्यान में रख सकें। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में तो यह और भी अहम है जहां अक्सर सबके लिए एक समान नीतियां नाकाम साबित होती हैं। बहरहाल, अपर्याप्त वित्तीय संसाधन भी ग्रामीण स्थानीय निकायों के सुचारू कामकाज में एक बड़ी बाधा हैं। देश की अधिकांश पंचायतें फंड के लिए सरकार के ऊपरी स्तरों पर बहुत अधिक निर्भर रहती हैं और उनके पास अपने राजस्व के लिए बहुत सीमित संसाधन होते हैं।
संपत्ति, स्थानीय बाजारों या कारोबारों पर या तो समुचित कर नहीं लग पाता या फिर इन पर कर लगाना राजनीतिक रूप से बहुत संवेदनशील होता है, खासतौर पर गरीब या छोटे गांवों में ऐसा करना मुश्किल होता है। रिजर्व बैंक द्वारा पंचायतों की वित्तीय स्थिति पर कराया गया एक अध्ययन बताता है कि 2022-23 में सभी स्रोतों से प्रति पंचायत औसत राजस्व महज 21.23 लाख रुपये था। इसमें से स्थानीय करों और शुल्क द्वारा उनका निजी राजस्व कुल राजस्व का केवल 1.1 फीसदी ही था।
सीमित तकनीकी अधोसंरचना और डिजिटल साक्षरता की कमी भी समस्या को बढ़ाती है। इनकी वजह से निगरानी, आकलन और प्रगति की रिपोर्टिंग पर असर पड़ता है। जमीनी स्तर पर प्रयासों का विभाजित होना भी उतना ही दिक्कतदेह है। गांवों में कई सरकारी विभाग बहुत कम तालमेल के साथ एक ही समय पर काम करते हैं। इसका परिणाम काम के दोहराव और संसाधनों की बरबादी के रूप में सामने आता है। विभिन्न विभागों की गतिविधियों और योजनाओं में तालमेल नहीं होने पर अक्सर सतत विकास लक्ष्यों के अधीन परिकल्पित समग्र विकास दूर ही बना रहता है।
पंचायतों की पूर्ण संभावनाओं का इस्तेमाल करने के लिए यह प्रयास किया जाना चाहिए कि उनकी सांस्थानिक क्षमता बढ़ाई जा सके। इसमें लक्षित प्रशिक्षण मुहैया कराना, डिजिटल समावेशन को बढ़ाना, निर्णय प्रक्रिया में सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा और फंड का समय पर आवंटन शामिल है। विभागों के बीच बेहतर समन्वय भी महत्त्वपूर्ण है।