India Justice Report: इंडिया जस्टिस रिपोर्ट का ताजा संस्करण अधिकांश भारतीयों के समक्ष मौजूद एक परेशान करने वाले तथ्य को सामने लाता है। वह यह कि न्याय देने की व्यवस्था ज्यादातर मामलों में नागरिकों को न्याय नहीं दिला पाती। टाटा ट्रस्ट और सामाजिक नागरिक संगठनों के एक समूह द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में राज्यों को 24 मानकों के आधार पर रैंकिंग दी गई है। ये मानक न्याय व्यवस्था के चार स्तंभों: पुलिस, न्यायपालिका, जेल और विधिक सहायता से संबंधित हैं।
अनुमान के मुताबिक ही यह प्रदर्शन में अंतर को दिखाता है। दक्षिण भारत के राज्य चारों स्तंभों पर बेहतरीन प्रदर्शन कर रहे हैं। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु बड़े और मझोले आकार के राज्यों में शीर्ष पर हैं जबकि पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, झारखंड और राजस्थान तालिका में सबसे निचले स्तर पर हैं। राज्यों की रैंकिंग से यह संकेत निकलता है कि उच्च अंक पाने वाले राज्य किफायत, संसाधन और यहां तक कि सामाजिक समता हासिल करने के मामले में आदर्श हैं। वास्तव में कोई राज्य यह दावा नहीं कर सकता है कि उसके यहां पूर्ण व्यवस्थित और सुचारु न्याय व्यवस्था है। उदाहरण के लिए कर्नाटक सबसे ऊंची रैकिंग वाला राज्य है और उसे 10 में से 6.78 अंक मिले। यह औसत से कुछ ही बेहतर प्रदर्शन है।
यकीनन पूर्वनिर्धारित मानकों के आधार पर आकलन न्याय आपूर्ति की पूरी सचाई सामने नहीं लाता है। परंतु रिपोर्ट आंशिक रूप से यह अवश्य बताती है कि आखिर क्यों न्याय देने की पूरी व्यवस्था इस कदर शिथिल है। समस्या का एक बड़ा हिस्सा है न्याय व्यवस्था के हर स्तर पर कमी। उदाहरण के लिए पुलिस बलों में 23 फीसदी पद रिक्त हैं और देश के फोरेंसिक क्षेत्र में 50 फीसदी पद रिक्त हैं। यह स्थिति तब है जब 2020 से 2024 के बीच देश में फोरेंसिक लैब की संख्या बढ़कर 94 से 110 हो गई है। यह समस्या खासी गंभीर है क्योंकि 30,000 से अधिक मामलों में फोरेंसिक विश्लेषण लंबित है।
अकेले उत्तर प्रदेश में 11,000 से अधिक मामले लंबित हैं। रिपोर्ट दिखाती है कि जेलों में क्षमता से अधिक यानी करीब 131 फीसदी कैदी बंद हैं। इनमें से 76 फीसदी कैदी विचाराधीन हैं। ऐसा तब है जब सर्वोच्च न्यायालय कई बार राज्यों को निर्देश दे चुका है कि वे एक खास अवधि से ज्यादा समय से जेल में बंद अंडरट्रायल कैदियों को रिहा करें। जेलों में कर्मचारियों की संख्या भी काफी कम है। देश भर की जेलों में 30 फीसदी पद रिक्त हैं। न्यायपालिका की स्थिति भी इससे ज्यादा बेहतर नहीं है। रिपोर्ट बताती है कि हर 10 लाख की आबादी पर 15 न्यायाधीश हैं जबकि विधि आयोग के मुताबिक इतनी आबादी पर 500 न्यायाधीश होने चाहिए। विधिक सहायता के बारे में रिपोर्ट कहती है कि पैरालीगल वॉलंटियर्स की संख्या में तेजी से कमी आई है। इससे संकेत मिलता है कि गरीब और वंचित वर्ग के भारतीयों की न्याय तक पहुंच बहुत सीमित है।
न्याय व्यवस्था संविधान में निहित सामाजिक और लैंगिक समता के उद्देश्यों पर भी भलीभांति खरी नहीं उतरती है। राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो सरकार की ओर से 33 फीसदी की अनुशंसा के बावजूद वरिष्ठ पदों पर केवल 8 फीसदी महिला अधिकारी हैं। कोई भी राज्य या केंद्रशासित प्रदेश पुलिस बलों में महिलाओं के लिए तय कोटे को पूरा नहीं करता। न्यायपालिका में निचले स्तर पर 38 फीसदी महिलाएं हैं जबकि उच्च न्यायालयों में 14 फीसदी महिलाएं हैं। राज्यों की बात करें तो केवल कर्नाटक की न्यायपालिका ही जातीय आरक्षण को पूरा करती है। इसके साथ ही खराब गुणवत्ता वाला प्रशिक्षण हालात को और गंभीर बनाता है। अधीनस्थ स्तर पर कानून और संविधान को लेकर पर्याप्त समझ का अभाव है। दमन और नियंत्रण की औपनिवेशिक विरासत में आबद्ध भारत को अभी भी ऐसी न्याय व्यवस्था को अपनाना है जो संवैधानिक स्वतंत्रता को बरकरार रखने के लिए लोगों की सेवा करने के उद्देश्य से संचालित हो। यह एक बड़ी चुनौती है जिसे दूर करना उतना ही आवश्यक है जितना कि संसाधनों की कमी से निपटना।