अमेरिका के वाणिज्य मंत्री हॉवर्ड लटनिक ने इस सप्ताह कहा कि वह इस बात को लेकर ‘बहुत आशान्वित’ हैं कि भारत के साथ व्यापार समझौते पर शीघ्र ही सहमति बन सकती है। उन्होंने कहा कि यह समझौता अमेरिका द्वारा लगाए गए जवाबी शुल्क के स्थगन की जुलाई में 90 दिन की अवधि समाप्त होने से पहले भी पूरा हो सकता है। यह बहुत अच्छी खबर प्रतीत होती है लेकिन इसकी सराहना के साथ थोड़ी शंका भी बनती है।
भारत के वार्ताकारों की मानें तो वे इस बात को लेकर बहुत निश्चिंत नहीं हैं कि कोई भी आरंभिक समझौता क्या इतना व्यापक होगा कि दोनों पक्षों को संतुष्ट कर सके। यह समझौता कुछ क्षेत्रों तक सीमित रह सकता है जो राजनीतिक दृष्टि से मौजूदा अमेरिकी प्रशासन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। बहरहाल, इसमें चुनिंदा कृषि क्षेत्र भी शामिल हो सकते हैं जो भारत की ओर से एक बड़ी रियायत होगी।
यह आवश्यक है कि सरकार उच्च शुल्क दर से बचने का हरसंभव प्रयास करे लेकिन उसे यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि अमेरिका के साथ कोई भी समझौता उसके नेतृत्व की अनिश्चितताओं और राजनीतिक तथा कानूनी माहौल में बदलाव से प्रभावित होगा। राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप द्वारा लिए गए शुल्क संबंधी निर्णयों को न्यायिक चुनौती पहले ही दी जा चुकी है। अमेरिकी कांग्रेस में भले ही ट्रंप के दल का दबदबा है लेकिन यह निश्चित नहीं है कि वह ट्रंप के अंतिम निर्णय का समर्थन करेगी या नहीं।
तकनीकी तौर पर देखें तो व्यापार समझौते विधायिका का मसला हैं, न कि कार्यपालिका का। विधायिका किसी भी समय स्वीकृति देने की शक्ति पुन: हासिल कर सकती है। और यकीनन ट्रंप के आवेश में आकर निर्णय लेने को भी ध्यान में रखना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत के साथ कोई भी समझौता जो उनके समर्थकों के मन मुताबिक नहीं हुआ, उसे किसी भी समय एकतरफा ढंग से रद्द किया जा सकता है। भले ही इसके लिए जरूरी कानूनी आधार हो अथवा नहीं।
चूंकि अमेरिका एक तरह के राजनीतिक उथलपुथल से गुजर रहा है इसलिए वह विश्वसनीय सहयोगी नहीं रह गया है। व्यापार के मामले में भारत सारा दांव अमेरिका पर नहीं लगा सकता। सच तो यह है कि दुनिया के तमाम अन्य देशों की तरह भारत के लिए भी यह आवश्यक होगा कि वह अन्य कारोबारी साझेदार तलाश करे जिनके साथ वह नियम आधारित विश्वसनीय समझौते कर सके।
अमेरिका के वर्तमान हालात जैसे अस्थिर माहौल के बीच टिकाऊ कारोबारी संपर्क नहीं कायम किया जा सकता है। नियम और विश्वसनीयता की बदौलत ही पूंजी और समय का निवेश करके मजबूत कारोबारी संपर्क कायम किए जा सकते हैं। भारत को अमेरिका के साथ वार्ता में कुछ ठोस रेखाएं खींचनी होंगी लेकिन इसके साथ ही उसे उन देशों के साथ अपनी मांगें कम करनी चाहिए जो नियमों का पालन करने के इच्छुक हैं।
कई संभावनाएं हैं, जिनमें से कुछ के लिए अवधि बहुत कम है। उदाहरण के लिए भारत और यूरोपीय संघ के नेताओं ने भी वादा किया है कि वर्ष के अंत तक समझौता हो जाएगा। चूंकि यह नियम आधारित और विश्वसनीय होगा इसलिए इसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए और भारत को इसे पूरा करने में पूरी प्रतिबद्धता दिखानी चाहिए। परंतु यहीं रुकने की आवश्यकता नहीं है। विभिन्न बहुपक्षीय ब्लॉक पर नजर डालते हुए व्यापार के नए युग में उनकी उपयोगिता पर नए सिरे से विचार करना चाहिए।
भारत क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी से इस डर से बाहर हो गया कि उसमें चीन भी है, लेकिन तब से समय बदल चुका है और चीन की वस्तुओं या उसके निवेश को मूल्य श्रृंखला से पूरी तरह बाहर करना असंभव है। उच्च गुणवत्ता वाले समझौते मसलन प्रशांत पार व्यापक एवं प्रगतिशील समझौता यानी सीपीटीपीपी आदि पर एक बार फिर नजर डालनी चाहिए और ऐसे नियामकीय बदलाव किए जाने चाहिए जो भारत को सदस्य बनने का अवसर दें। नियम आधारित व्यवस्थाएं अभी भी कारोबार के लिए सबसे अच्छे मानक हैं।