कर्नाटक मंत्रिमंडल ने निजी नौकरियों में स्थानीय आरक्षण को अनिवार्य करके इस विवाद को नया मोड़ दे दिया है। संबंधित विधेयक को वर्तमान विधानसभा सत्र में पेश किया जाना है और इसमें कहा गया है कि स्थानीय कंपनियों के रोजगार में प्रबंधन के पदों पर 50 फीसदी और गैर प्रबंधकीय पदों पर 75 फीसदी नियुक्तियां स्थानीय लोगों की होंगी।
आश्चर्य नहीं कि इस कानून को लेकर आईटी के केंद्र, वैश्विक क्षमता केंद्रों और फार्मा उद्योग के गढ़ बेंगलूरु में कंपनियों ने तीव्र प्रतिक्रिया दी है। ये वे कंपनियां और क्षेत्र हैं जो अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करते हैं।
नैशनल एसोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर ऐंड सर्विसेज कंपनीज (नैसकॉम) ने पहले ही एक वक्तव्य जारी करके अपनी निराशा जाहिर कर दी है और राज्य के अधिकारियों से मुलाकात की इच्छा व्यक्त की है। स्थानीय रोजगार के कानूनों की प्रक्रिया नई नहीं है। महाराष्ट्र ने 2008 में 80 फीसदी रोजगार स्थानीय लोगों को देने का कानून बनाया था।
आंध्र प्रदेश ने 2019 में 75 फीसदी और हरियाणा ने 2020 में 75 फीसदी स्थानीय रोजगार का कानून बनाया। इन सभी कानूनों को औद्योगिक संगठनों ने अदालत में चुनौती दी। नवंबर 2023 में अदालत ने हरियाणा के कानून को निरस्त किया और पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने इसके लिए जो वजह दी वह जानकारी बढ़ाती है।
हरियाणा ने यह कानून बनाया था कि निजी क्षेत्र में 30,000 रुपये या इससे कम के मासिक वेतन वाले पदों में से 75 फीसदी स्थानीय स्तर पर भरे जाएंगे। उच्च न्यायालय ने इसे निरस्त करते हुए दो वजह दीं। पहला, खुले बाजार में नियुक्तियां करने का नियोक्ता का अधिकार राज्य सरकार के दायरे से बाहर था।
दूसरा, स्थानीय निवासियों के लिए रोजगार आरक्षित करना अन्य लोगों के विरुद्ध था। न्यायालय ने कहा कि हरियाणा के बाहर के नागरिकों को दूसरे दर्जे का स्थापित करके संवैधानिक नैतिकता का उल्लंघन किया गया है। उसने यह भी कहा कि यह आजीविका कमाने के उनके अधिकार का उल्लंघन है।
न्यायालय ने कहा कि ऐसा करने से संविधान के अनुच्छेद 19 का उल्लंघन हुआ है जो सभी नागरिकों को किसी भी पेशे या व्यवसाय को अपनाने की सुविधा देता है और उन्हें पूरे देश में अबाध रूप से कहीं भी आने-जाने की इजाजत देता है।
आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा कि राज्य का 2019 का कानून असंवैधानिक है लेकिन वह मामले की सुनवाई करेगा। हरियाणा सरकार ने उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जहां मामले की सुनवाई फरवरी में आरंभ हुई।
संवैधानिक मर्यादाओं के उल्लंघन के अलावा ऐसी संकीर्णता के पीछे कोई आर्थिक तर्क समझ पाना मुश्किल है। कर्नाटक के विधेयक में ‘स्थानीय’ को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि वह व्यक्ति राज्य में पैदा हुआ हो, वहां कम से कम 15 वर्ष से रह रहा हो और कन्नड़ भाषा पढ़ने, लिखने और बोलने में सक्षम हो।
इसके अलावा माध्यमिक स्कूली शिक्षा में कन्नड़ भाषा का होना भी जरूरी है। जिन लोगों ने माध्यमिक स्कूल में कन्नड़ भाषा नहीं ली हो उन्हें इस भाषा में कुशल होने की परीक्षा उत्तीर्ण करनी होगी। इससे पहले इस वर्ष के आरंभ में बहुराष्ट्रीय कंपनियों से पूछा गया था कि उन्होंने अपने यहां कितने कन्नड़ कर्मचारियों को रोजगार दिया है।
रोजगार पर ऐसा चुनौतीपूर्ण ढांचागत प्रतिबंध ऐसे समय में शायद निवेश आकर्षित न कर पाए जब राज्यों के बीच निजी निवेश, खास प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को लेकर तगड़ी प्रतिस्पर्धा के हालात हैं। प्रतिस्पर्धी बाजारों में संचालित निजी उद्योगों को बेहतरीन प्रतिभाओं को चुनने की आजादी होनी चाहिए।
प्रतिभा चयन को ऐसे आधार पर रोकना क्षमता और उत्पादकता पर असर डालेगा। अभी तक देश के राज्यों को देश की सांस्कृतिक विविधता से लाभ मिला है। अब उसे संकीर्ण राजनीतिक लोकलुभावनवाद के लिए सीमित करना, सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को मारने के समान होगा।