भारत खाद्य तेलों के अहम उत्पादकों में से एक है। दुनिया के कुल तिलहन रकबे का करीब 15-20 फीसदी भारत में है। जबकि वैश्विक उत्पादन में हमारी हिस्सेदारी 6-7 फीसदी और खपत में हमारा योगदान 9-10 फीसदी है। इसके बावजूद देश की खाद्य तेल खपत का करीब 57 फीसदी हिस्सा आयात से पूरा किया जाता है।
ऐसे में जाहिर है हम वैश्विक खाद्य तेल कीमतों में उतार-चढ़ाव को लेकर संवेदनशील रहते हैं और आपूर्ति का बाधित होना भी हमें दिक्कत देता है। इस वर्ष जुलाई में हमने रिकॉर्ड मात्रा में खाद्य तेल खरीदा क्योंकि आकर्षक कीमतों के चलते रिफाइनरों ने पाम ऑयल और सोया ऑयल की खरीद बढ़ा दी। इस संबंध में नीति आयोग ने हाल ही में एक व्यापक रिपोर्ट पेश की है जिसमें तिलहन आयात पर भारत की भारी निर्भरता का जिक्र किया गया है और भविष्य के पूर्वानुमान पेश किए गए हैं।
उदाहरण के लिए 2022-23 में भारत ने 1.65 करोड़ टन खाद्य तेल आयात किया। घरेलू उत्पादन देश की कुल जरूरत के केवल 40-45 फीसदी की ही पूर्ति कर पा रहा है। वहीं देश के खाद्य तेल की प्रति व्यक्ति खपत भी बढ़कर 19.7 किलो प्रति वर्ष हो चुकी है। 1990 के दशक में तिलहन क्रांति (येलो रिवॉल्युशन) की मदद से तिलहन के क्षेत्र में जो आत्मनिर्भरता हासिल की गई थी वह लंबे समय तक टिकाऊ नहीं रह सकी।
इस संदर्भ में रिपोर्ट में फसल उत्पादन में विविधता लाने और मुख्य अनाजों के अलावा अन्य फसल उपजाने की जरूरत को रेखांकित किया गया है। बहरहाल, बिजली और उर्वरक सब्सिडी सहित तमाम प्रोत्साहन धान और गेहूं की खेती के पक्ष में झुके हैं। इससे किसान दूसरी फसलों को नहीं अपनाना चाहते। पंजाब के किसानों को अब खरीफ के सीजन में कम पानी की खपत वाली फसलों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करने के क्रम में 17,500 रुपये प्रति हेक्टेयर की प्रोत्साहन राशि दी जा रही है। परंतु जैसा कि कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी तथा अन्य लोगों ने संकेत किया, केवल इतना करना पर्याप्त नहीं है।
धान और तिलहन के बीच मुनाफे का अंतर इतना अधिक है उसकी भरपाई इस राशि से नहीं हो पाएगी। सुझावों के मुताबिक धान की खेती से दूरी बनाने के लिए कम से कम 35,000 रुपये प्रति हेक्टेयर की प्रोत्साहन राशि देनी होगी।
पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में खरीद एजेंसियों को यह सुनिश्चित करना होगा कि तिलहन की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर की जाए ताकि किसानों के लिए बाजार जोखिम कम किया जा सके। आयात का बोझ कम करने के लिए नीति निर्माता पाम की खेती बढ़ाने पर भी ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।
देश में पाम ऑयल का उत्पादन 2010-11 के 79,000 टन से बढ़कर 2021-22 में 3.60 लाख टन हो गया। बहरहाल पाम के पौधरोपण के लिए वनों की कटाई को देखते हुए यह चिंता का विषय है। पूरे दक्षिण-पूर्वी एशिया में ऐसा देखा जा रहा है। हालांकि जैसा कि रिपोर्ट में कहा गया है कि अनुपयोगी भूमि का इस्तेमाल एक उपयोगी विकल्प हो सकता है।
हमारी खानपान की आदतों और खाद्य खपत के आधार पर रिपोर्ट में प्रस्तुत अनुमानों के मुताबिक 2030 तक खाद्य तेल के मामले में मांग और आपूर्ति का अंतर 2.95 करोड़ टन होगा जो 2047 तक बढ़कर चार करोड़ टन हो जाएगा। इस अंतर को पाटने के लिए रिपोर्ट में कई अहम हस्तक्षेपों का सुझाव दिया गया है। इसमें चुनिंदा तिलहन का रकबा बढ़ाने और तिलहन की मौजूदा खेती की उपज बढ़ाने की बात शामिल है।
ध्यान देने की बात है कि रबी के सीजन में जिन इलाकों में फसल नहीं होती है, उनकी सहायता से भी खाद्य तेलों के लिए तिलहन का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। देश के 10 राज्यों में रबी सीजन में धान की खेती के बाकी रहे क्षेत्र में से केवल एक तिहाई का इस्तेमाल करने से घरेलू उत्पादन में 31.2 लाख टन का इजाफा हो सकता है।
इन उपायों के समुचित क्रियान्वयन के साथ हमारी खाद्य तेल आपूर्ति 2030 तक 3.62 करोड़ टन और 2047 तक 7.02 करोड़ टन हो सकती है। जाहिर है हमें बेहतर कृषि व्यवहार और उन्नत उत्पादन तकनीकों की आवश्यकता है ताकि हम उत्पादकता और उत्पादन बढ़ाकर आयात निर्भरता कम कर सकें।