इस वर्ष जुलाई में आई आर्थिक समीक्षा में मुद्रास्फीति को लक्षित करते समय खाद्य पदार्थों को बाहर रखकर आकलन करने का सुझाव आने के बाद से ही मुद्रास्फीति को लक्षित करने की प्रणाली के बारे में दिलचस्प बहस चल रही है। वित्त मंत्रालय के अर्थशास्त्री मानते हैं कि उच्च खाद्यान्न कीमतें अक्सर आपूर्ति संबंधी कारकों से बढ़ती हैं, न कि मांग के कारण। इसके अलावा अल्पावधि की मौद्रिक नीति संबंधी उपाय अतिरिक्त समेकित मांग वृद्धि के कारण कीमतों पर बने दबाव को नहीं थाम सकते।
कई टीकाकार कह चुके हैं कि यह बहस अब समाप्त हो चुकी है और भारतीय रिजर्व बैंक को मौजूदा व्यवस्था के साथ ही आगे बढ़ना चाहिए क्योंकि यह भारत के लिए हितकारी रहा है। इस संदर्भ में समाचार पत्र ‘मिंट’ में इस सप्ताह प्रकाशित एक आलेख में मुख्य आर्थिक सलाहकार वी अनंत नागेश्वरन ने कहा, ‘विज्ञान में कुछ भी अंतिम तौर पर नहीं निपटता है, खासकर सामाजिक विज्ञान में।’
इस तर्क से आपत्ति जता पाना मुश्किल है। भारत जैसी बड़ी और जटिल अर्थव्यवस्था वाले देश में नीतियों पर निरंतर चर्चा चलती रहनी चाहिए और बदलती हकीकतों और जरूरतों के साथ उनमें परिवर्तन आते रहना चाहिए। निश्चित तौर पर हमारे देश में मुद्रास्फीति को लक्ष्य बनाने का जो फ्रेमवर्क अपनाया गया है वह पहले अपनाए गए रुख से दो तरह से अलग है।
पहली बात, सरकार को आरबीआई अधिनियम की मदद से यह शक्ति मिली हुई थी कि वह मुद्रास्फीति के लिए केंद्रीय बैंक के साथ मशविरा करके लक्ष्य तय करे। इसकी हर पांच वर्ष में समीक्षा की जा सकती है। इसके लिए उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति दर के चार फीसदी का लक्ष्य तय किया गया और दो फीसदी ऊपर या नीचे की रियायत दी गई। इससे आम बाजार की समझ बेहतर हुई और मौद्रिक नीति संबंधी निर्णय अनुमानयोग्य तथा समझने में आसान हुए।
दूसरा, मौद्रिक नीति संबंधी निर्णय अब छह सदस्यीय मौद्रिक नीति समिति द्वारा लिए जाते हैं जिनमें तीन बाहरी सदस्य हैं। इससे पारदर्शिता बढ़ी है और रिजर्व बैंक के गवर्नर पर दबाव काफी कम हुआ है जो पुरानी व्यवस्था में निर्णय लिया करते थे। ऐसे में यह दलील देनी उचित ही है कि यह फ्रेमवर्क पहले की तुलना में बेहतर है। पुरानी व्यवस्था में नीतिगत निर्णय कई बार ऐसे होते थे कि उनका संचार कठिन हो जाता था क्योंकि केंद्रीय बैंक एक नीतिगत उपाय की मदद से कई संकेतकों को लक्ष्य करता था।
बहस का दूसरा पहलू यह है कि क्या मौद्रिक नीति के लिए नॉमिनल एंकर सही है या फिर क्या भारत के लिए बिना खाद्य की मुद्रास्फीति को लक्षित करना बेहतर होगा जैसा कि आर्थिक समीक्षा में सुझाया गया है। रिजर्व बैंक या मौद्रिक नीति समिति अपने स्तर पर लक्ष्य नहीं बदल सकते, न ही वे बिना आरबीआई अधिनियम में संशोधन के एक वस्तु को उपभोक्ता बास्केट से बाहर कर सकते हैं।
अधिनियम सरकार को अधिकार देता है कि वह उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति दर को लक्ष्य बनाने के बारे में निर्णय ले। संसद पर कानून बदलने के लिए तभी दबाव बनाया जा सकता है जब इस बदलाव को उचित ठहराने के पर्याप्त प्रमाण मौजूद हों। एक विशेषज्ञ समिति की अनुशंसा के बाद यह लक्ष्य तय किया गया था। बाद में रिजर्व बैंक और अन्य स्थानों के अर्थशास्त्री भी यह दर्शाने में कामयाब रहे कि यह फ्रेमवर्क भारत के लिए कारगर रहा है।
केंद्रीय बैंक खाद्य कीमतों में क्षणिक इजाफे पर कभी भी नजर रख सकता है। बहरहाल, रिजर्व बैंक के अर्थशास्त्रियों का एक हालिया शोध आलेख इस बात को रेखांकित करता है कि निरंतर ऊंची खाद्य कीमतें कोर मुद्रास्फीति पर ऊपरी दबाव कायम करती हैं।
लक्ष्य में कोई भी बदलाव लाने के लिए ऐसे ठोस प्रमाण जरूरी होंगे जो दिखाएं कि भारत रिजर्व बैंक द्वारा कोर मुद्रास्फीति या किसी अन्य संकेतक को लक्षित करने पर बेहतर स्थिति में रहेगा। इस फ्रेमवर्क में कोई भी बदलाव करने के साथ एक जोखिम यह भी है कि इसका अर्थ हेडलाइन मुद्रास्फीति को नियंत्रित कर पाने में व्यवस्थागत कमी के रूप में निकाला जा सकता है।
इसके अलावा ऐसी किसी भी बचत में बचतकर्ताओं की अनदेखी नहीं होनी चाहिए। चूंकि आम परिवार उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति से प्रभावित होते हैं इसलिए नकारात्मक वास्तविक ब्याज दर बचत और निवेश पर असर डाल सकती है। इससे वृद्धि और स्थिरता संबंधी जोखिम बढ़ेंगे।