एमिरेट्स के प्रेसिडेंट टिम क्लार्क और इंडिगो के मुख्य कार्याधिकारी (सीईओ) पीटर एल्बर्स के बीच द्विपक्षीय हवाई सेवा समझौतों को लेकर हालिया असहमति यह दिखाती है कि पश्चिम एशिया की सरकारी विमानन कंपनियों और भारत के निजी क्षेत्र द्वारा संचालित विमानन उद्योग के बीच प्रतिस्पर्धा में तेजी आ रही है। अंतरराष्ट्रीय हवाई परिवहन महासंघ (आईएटीए) की सालाना आम बैठक में पश्चिम एशिया की सबसे बड़ी विमानन सेवा के प्रमुख क्लार्क ने विदेशी विमानन कंपनियों के साथ द्विपक्षीय सीट समझौते को लेकर प्रतिबंधात्मक नीतियों के लिए भारत सरकार की आलोचना की थी। कंपनी भारत और दुबई के बीच सीट क्षमता को 65,000 प्रति सप्ताह से बढ़ाकर 1,40,000 प्रति सप्ताह करना चाहती थी।
भारत सरकार ने अपनी दलील में कहा कि उसे उन विमानन कंपनियों के अनुचित लाभ पर कदम उठाना होगा जो अपने सरकारी हवाई अड्डों के माध्यम से अधिक यात्रियों को अमेरिका और यूरोप के लिए संपर्क वाली उड़ानों में ले जाने की क्षमता रखती हैं और इससे भारतीय विमानन कंपनियों की लंबी दूरी की उड़ानों पर असर पड़ रहा है। इंडिगो के सीईओ ने क्लार्क की आलोचना को नकारते हुए कहा कि भारत सरकार का रुख ‘निष्पक्ष और संतुलित’ है। इन दोनों की राय के बीच भारतीय विमानन कंपनियों को अंतरराष्ट्रीय संपर्क के लिहाज से रणनीतिक बदलाव के लिए सक्षम बनाने का सवाल बना हुआ है। एक नजरिये से देखें तो भारत सरकार का रवैया संरक्षणवादी माना जा सकता है। परंतु घरेलू विमानन कंपनियों का तर्क है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में उनके विस्तार को भारतीय हवाई अड्डों को हब के रूप में विकसित करने के व्यापक प्रश्न के हिस्से के रूप में देखा जाए।
यहां बात यह है कि भारतीय विमानन उद्योग अंतरराष्ट्रीय संपर्क में महत्त्वपूर्ण इजाफा करना चाहता है। वर्ष 2023 में टाटा के स्वामित्व वाली एयर इंडिया ने एयरबस और बोइंग से 470 विमान खरीदने का विशाल ऑर्डर दिया। इसके बाद उसने गत वर्ष एयरबस को 100 और विमानों का ऑर्डर दिया। इंडिगो ने इस सप्ताह चौड़े आकार वाले एयरबस विमानों के ऑर्डर को दोगुना करके 60 कर दिया। इससे पहले उसने 2023 में 500 विमानों का ऑर्डर दिया था। इसमें कोई शक नहीं है कि ये विमानन कंपनियां जीवंत और बढ़ते विमानन बाजार में अंतरराष्ट्रीय विमानन कंपनियों से मुकाबला कर सकती हैं। उनका यह कहना सही है कि ऐसा करना इस बात पर बहुत अधिक निर्भर है कि भारत के प्रमुख हवाई अड्डों को केंद्र के रूप में विकसित किया जाए जो खाड़ी देशों के ऐसे मजबूत केंद्रों का मुकाबला कर सकें। एक पूर्व-पश्चिम केंद्र के रूप में विकसित होने के लिए भारत के अतीत के प्रयास इन दोनों मोर्चों पर विफल रहे हैं।
भारत में 34 अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे और 124 घरेलू हवाई अड्डे हैं। इनमें से केवल दिल्ली ही एशिया प्रशांत और पश्चिम एशिया के शीर्ष 10 हवाई अड्डों में आता है। मुख्य रूप से ऐसा संपर्क के मामले में है, न कि अधोसंरचना की गुणवत्ता और सेवाओं के मामले में। इसके अलावा बैगेज प्रबंधन, सीमित टर्मिनल क्षमता और अपर्याप्त रनवे आदि भारतीय हवाई अड्डों की आम समस्याएं हैं। दिल्ली देश का इकलौता हवाई अड्डा है जहां चार लगभग समांतर रनवे हैं। मुंबई में दो ऐसे रनवे हैं जो एक दूसरे को काटते हैं। यानी इनका उड़ान भरने और उतरने के लिए एक साथ इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।
दुबई में दो समांतर रनवे हैं लेकिन जल्दी ही वहां इनकी संख्या बढ़कर पांच होने वाली है। केवल छह भारतीय हवाई अड्डे कैट 3 बी मानकों को पूरा करते हैं यानी वे हर मौसम में उड़ान भरने के लायक हैं। केवल 22 हवाई अड्डे ही मुनाफे में हैं और यह बात प्रबंधन की कमियों को दर्शाती है। अगर इसमें एविएशन टर्बाइन फ्यूल की उच्च कीमतों को शामिल कर दिया जाए (इसमें राज्यों द्वारा भारी भरकम कर लगाए जाने का भी योगदान है) तो यह साफ है कि भारतीय हवाई अड्डों को अंतरराष्ट्रीय केंद्रों की हैसियत पाने में अभी कुछ समय लगेगा। अगर भारत सरकार देश के हवाई अड्डों में बदलाव की गति तेज करती है तो वह द्विपक्षीय हवाई समझौतों में मजबूती से बातचीत कर सकेगी।