महामारी के कारण मची उथल-पुथल से तेजी से उबरने के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था सामान्य वृद्धि के पथ पर लौटती नजर आ रही है। एक अनुमान के मुताबिक 2024-25 में यह 6.5 फीसदी की दर से बढ़ी और चालू वर्ष में इसकी वृद्धि के अनुमान भी करीब इसी स्तर के हैं। बहरहाल, भारत को अगर अपने तय लक्ष्यों को हासिल करना है तो उसे इससे तेज वृद्धि हासिल करनी होगी। वृद्धि संबंधी नतीजों को टिकाऊ ढंग से बेहतर बनाने के लिए तमाम क्षेत्रों में गतिविधियों में सुधार करना होगा।
महामारी के बाद की अवधि में भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे अधिक उल्लेखनीय बात रही है सरकार का उच्च पूंजीगत व्यय। इसका लक्ष्य वृद्धि में सहयोग करने के साथ-साथ निजी निवेश को आकर्षित करना भी रहा है। हालांकि, ऐसा वांछित स्तर पर नहीं हो सका और इसकी कई वजहें हैं। इस संदर्भ में संसद की स्थायी समिति की अनुशंसाओं का पालन करते हुए राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने निजी क्षेत्र के पूंजी निवेश के इरादों को लेकर एक दूरदर्शी सर्वे करना आरंभ किया। ऐसे पहले सर्वेक्षण के नतीजे मंगलवार को जारी किए गए।
सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की सराहना की जानी चाहिए कि उसने अनुशंसा को पूरा करने की दिशा में प्रयास किया। हालांकि आंकड़े अपेक्षाकृत छोटे समूह के नमूने पर आधारित हैं लेकिन यह इस बात की झलक तो देता ही है कि निजी क्षेत्र की अपेक्षाएं क्या हैं। सुधार के साथ ऐसे सर्वेक्षण हमें नीति निर्माण में मदद कर सकते हैं। मौजूदा सर्वेक्षण में 2,172 उपक्रमों ने पांच साल के आंकड़े पेश किए। विनिर्माण क्षेत्र के उपक्रमों में उन पर विचार किया गया जिनका टर्नओवर 400 करोड़ रुपये से अधिक था, वहीं 300 करोड़ रुपये से अधिक कारोबार वाले व्यापारिक उपक्रमों को शामिल किया गया। अन्य उपक्रमों के लिए 100 करोड़ रुपये के टर्नओवर की सीमा तय की गई।
परिणाम दिखाते हैं कि 2024-25 में पूंजीगत व्यय में 55 फीसदी के उल्लेखनीय इजाफे के बाद सर्वेक्षण में शामिल की गई कंपनियां 2025-26 में सतर्क हो गईं और नियोजित आवंटन में 25 फीसदी की कमी आई। साल बीतने के साथ इन आंकड़ों में सुधार हो सकता है। कई बार कंपनियां उन परियोजनाओं का खुलासा करने की इच्छुक नहीं होतीं जिन्हें मंजूरी नहीं मिली होती है। चाहे जो भी हो, परिणाम यह बताते हैं कि कंपनियां सतर्क हो गई हैं। इसकी उपयुक्त वजहें भी हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था में वृद्धि जहां सामान्य दर पर स्थिर हो रही थी, वहीं अमेरिकी व्यापार नीति में बदलाव ने वैश्विक स्तर पर भारी अनिश्चितता पैदा कर दी। हालांकि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष सहित विभिन्न अनुमान यही सुझाते हैं कि भारत पर इसका सीमित असर होगा। ऐसे में इस समय निश्चित तौर पर कुछ भी कह पाना मुश्किल है।
एक अनिश्चित माहौल अक्सर कंपनियों को निवेश के प्रति हतोत्साहित करता है और यह पूरी दुनिया में हो रहा है। बहरहाल भारत के लिए निकट भविष्य में हालात दो वजहों से बदल सकते हैं। पहली बात, अमेरिका के साथ भारत एक द्विपक्षीय व्यापार समझौते पर बातचीत कर रहा है और खबरें बताती हैं कि सबकुछ सही दिशा में चल रहा है। एक सफलता कारोबारों के लिए चीजें स्पष्ट कर देगी। दूसरा, कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां कारोबार के मामले में चीन से दूरी बनाना चाहती हैं। भारत खुद को एक आकर्षक विकल्प के रूप में पेश कर सकता है। उदाहरण के लिए ऐसी खबरें हैं कि ऐपल अमेरिका को निर्यात किए जाने वाले अपने ऐपल स्मार्ट फोन का समूचा उत्पादन भारत स्थानांतरित करना चाहता है।
ऐसे अवसरों का लाभ उठाने से निवेश, रोजगार और वृद्धि, तीनों को गति मिलेगी। घरेलू नीतिगत मोर्चे पर जहां अतिरिक्त राजकोषीय मदद की कोई गुंजाइश नहीं है वहीं ब्याज दरों में अनुमानित कटौती से मौद्रिक नीति सहयोग मिल सकता है। हालांकि, रिजर्व बैंक को अपने नीतिगत विकल्पों पर सतर्कता के साथ ध्यान देना होगा। वृद्धि की मदद के लिए अतिरिक्त समायोजन के अनचाहे परिणाम सामने आ सकते हैं। चाहे जो भी हो, कंपनियां मांग की स्थिति से अधिक संचालित होती हैं। पिछले कई वर्षों से निजी निवेश में कमजोरी देश की विकास गाथा की कमजोर कड़ी है। एक अनिश्चित आर्थिक माहौल बदलाव में और देरी की वजह बन सकता है।