केंद्र सरकार महंगाई को नियंत्रित करने के उपायों को लेकर भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) का समर्थन कर रही है। केंद्र सरकार ने भी संकेत दिए थे कि वह कीमतों को नियंत्रित करने के लिए व्यापार नीति का उपयोग कर सकती है और इसके बाद ही केंद्र ने पिछले हफ्ते प्याज पर निर्यात शुल्क लगाने का फैसला किया था। हालांकि, कीमतों को नियंत्रित करने की दिशा में यह कोई पहला कदम नहीं था क्योंकि सरकार ने हाल ही में चावल के निर्यात और दालों जैसे कुछ अन्य खाद्य पदार्थों के भंडारण पर भी प्रतिबंध लगाए हैं।
जुलाई महीने में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) आधारित मुद्रास्फीति दर बढ़कर 15 महीने के उच्च स्तर 7.44 प्रतिशत पर पहुंच गई और अगस्त में भी इसके केंद्रीय बैंक, आरबीआई के उच्चतम लक्षित दायरे से ऊपर रहने की उम्मीद है। यह दर काफी हद तक खाद्य वस्तुओं की बढ़ती कीमतों के कारण चढ़ी है, ऐसे में अल नीनो प्रभाव के कारण मॉनसून की प्रगति को लेकर बनी अनिश्चितता की स्थिति ने जोखिम बढ़ा दिया है।
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देश के विभिन्न हिस्सों में कम बारिश हुई है, इसकी वजह से भी कृषि उत्पादन प्रभावित हो सकता है। आरबीआई के अर्थशास्त्रियों द्वारा हाल ही में किए गए एक अध्ययन में कहा गया है कि दक्षिण-पश्चिम मॉनसून न केवल खरीफ फसलों के लिए बल्कि रबी फसलों के लिए भी उतना ही महत्त्वपूर्ण बना हुआ है। हालांकि खरीफ फसलों के लिए मॉनसून का प्रभाव भी आंकड़ों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, लेकिन हाल के वर्षों में इसमें कमी आई है।
सिंचाई के बुनियादी ढांचे में सुधार होने से कम बारिश के चलते प्रतिकूल परिस्थितियों की तीव्रता को थोड़ा कम करने में मदद मिली है। उदाहरण के तौर पर वर्ष 2016 के बाद से ही चावल और कुल खाद्यान्न उत्पादन में हर साल वृद्धि हुई है और यह वृद्धि चार वर्षों में सामान्य से कम बारिश के बावजूद हुई है। हालांकि, मॉनसून को लेकर खाद्य उत्पादन की निर्भरता का स्तर थोड़ा कम हुआ है लेकिन व्यापक तौर पर होने वाली वर्षा काफी असर डालती है।
उदाहरण के तौर पर वर्ष 2009 में वर्षा के स्तर में 21.4 प्रतिशत के विचलन के परिणामस्वरूप कुल खाद्य उत्पादन में 12 प्रतिशत की कमी आई। यह ध्यान देना होगा कि मॉनसून की प्रगति महत्त्वपूर्ण बनी हुई है लेकिन सभी राज्यों में समान रूप से सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। कम खाद्य उत्पादन को ध्यान में रखते हुए तैयारी करना सही है लेकिन सरकार के कदम अक्सर कृषि क्षेत्र के हित में नहीं होते हैं और इससे संभावित रूप से पर्याप्त आपूर्ति प्रक्रिया में बाधा पहुंचती है।
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खाद्य उत्पादन की अपेक्षाकृत अधिक कीमत, उत्पादकों को उत्पादन बढ़ाने के लिए एक संकेत देती हैं। लेकिन अगर सरकार कीमतों को नियंत्रित करने के लिए अक्सर निर्यात पर प्रतिबंध लगाती रही तब किसान भी उत्पादन बढ़ाने के लिए अतिरिक्त निवेश करने में हिचकेंगे। इस तरह के कदम वास्तव में में कृषि उत्पादों के भरोसेमंद आपूर्तिकर्ता के रूप में भारत की विश्वसनीयता पर भी असर डालते हैं। इसने अल्पकालिक दृष्टिकोण के साथ घरेलू बाजार में कीमतों को नियंत्रित करने का लक्ष्य रखा।
उदाहरण के तौर पर, अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी और अन्य विशेषज्ञों का कहना है कि इस संदर्भ में भारत की नीतियों में उपभोक्ताओं का समर्थन करने का पूर्वग्रह रहा है जिससे किसानों का राजस्व और उनकी कमाई भी प्रभावित होती है। सरकार को इस तरह के हस्तक्षेप से बचना चाहिए और दीर्घकालिक दृष्टिकोण के साथ कृषि क्षेत्र का समर्थन करना चाहिए जिससे निवेश और उत्पादन बढ़ाने में मदद मिलेगी।
खाद्य वस्तुओं की ऊंची महंगाई दर पर सरकार की प्रतिक्रिया समझ में आती है। हालांकि यह हमेशा वांछनीय नहीं होती है, लेकिन आरबीआई की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) के लिए चीजें अधिक जटिल हैं। समिति ने अपनी पिछली बैठक में नीतिगत रीपो दर में कोई बदलाव नहीं किया था और इसे मुद्रास्फीति में अपेक्षित वृद्धि के आधार पर देखने का फैसला किया जो मुख्य रूप से सब्जियों की बढ़ती कीमतों के कारण है। इस तरह की परिस्थिति में मौद्रिक नीति से जुड़े हस्तक्षेप का वांछित प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं है।
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दरअसल आम समझ यह है कि कीमतों से जुड़े इस तरह के झटके कुछ वक्त के लिए होते हैं और इसमें जल्द ही बदलाव आ जाता है। हालांकि, कीमतों का दबाव लगातार बने रहने पर नीतिगत कार्रवाई की आवश्यकता महसूस हो सकती है क्योंकि इसके कारण अपेक्षाओं पर असर पड़ना शुरू हो जाता है। इसी स्तर पर मॉनसून महत्त्वपूर्ण होगा। इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि सीपीआई के तहत अनाज की कीमतों में भी दो अंकों में मुद्रास्फीति दर देखी जा रही है। इस प्रकार उम्मीद से कम खाद्यान्न उत्पादन जोखिम बढ़ा सकता है। अब अक्टूबर में होने वाली एमपीसी की अगली बैठक तक इसको लेकर तस्वीर साफ हो जानी चाहिए।