जनवरी 2022 में रेलवे भर्ती बोर्ड की परीक्षाओं में कथित तौर पर हुई अनियमितताओं तथा उसी वर्ष जून में अग्निवीर योजना के हिंसक विरोध की खबरें सबसे पहले बिहार से आई थीं। यह बात दर्शाती है कि राज्य के युवाओं में राज्य के भीतर रोजगार के अवसरों की कमी को लेकर कितना अधिक गुस्सा है।
बिहार सरकार ने मंगलवार को राज्य में किए गए जाति सर्वेक्षण को सार्वजनिक किया और उसके सामाजिक-आर्थिक ब्योरों ने एक बार फिर यह दिखाया है कि राज्य में रोजगार की स्थिति कितनी खराब है और वहां गरीबी कितनी ज्यादा है।
बहरहाल बिहार का सत्ताधारी प्रतिष्ठान यानी जनता दल (यूनाइटेड)-राष्ट्रीय जनता दल-कांग्रेस का महागठबंधन जिसे वाम दलों का बाहरी समर्थन हासिल है, उसने शायद सर्वे के निष्कर्षों से गलत नतीजे निकाल लिए हैं।
बहरहाल, राज्य की हालत सुधारने के लिए निजी पूंजी जुटाने की राह सुझाने के बजाय आंकड़ों ने बिहार सरकार को यकीन दिला दिया है कि वह राज्य में जाति आधारित कोटा को बढ़ाकर 65 फीसदी करने का विधेयक लाए। ऐसा करने से कुल आरक्षण 75 फीसदी हो जाएगा।
कम आय वाले राज्य के दर्जे से बाहर निकलने के लिए जूझ रहे और वेतन वाले या नियमित वेतन वाले रोजगार के मामले में देश के सबसे पिछड़े राज्यों में शुमार बिहार के लिए यह कोटा कोई रामबाण नहीं साबित होने जा रहा है।
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सावधिक श्रम शक्ति सर्वे (पीएलएफएस) के मुताबिक 2022-23 में बिहार में केवल 8.6 फीसदी ऐसे रोजगार थे जो 21 बड़े राज्यों में सबसे कमजोर आंकड़ा है। इन सभी राज्यों का औसत 22.7 फीसदी है। सरकार के आंकड़ों के मुताबिक बिहार की 13 करोड़ की आबादी में से केवल 1.57 फीसदी यानी 20.4 लाख लोगों के पास सरकारी नौकरी 1.22 फीसदी यानी 16 लाख लोागें के पास निजी नौकरी, 2.14 फीसदी यानी 28 लाख लोगों के पास असंगठित क्षेत्र में काम और 3.05 फीसदी यानी करीब 40 फीसदी लोगों के पास स्वरोजगार था।
बाकी लोगों की बात करें तो सर्वे के मुताबिक 67.54 फीसदी या करीब 8.82 करोड़ लोग घरेलू महिलाएं या छात्र हैं। 7.7 फीसदी या एक करोड़ लोग खेती से जुड़े हैं और करीब 17 फीसदी या 2.18 करोड़ लोग श्रमिक हैं। सर्वे के अनुसार 63.74 फीसदी यानी करीब 29.7 लाख परिवार रोजाना 333 रुपये से कम यानी 10,000 रुपये मासिक से कम पर गुजारा करते हैं। वहीं 34.13 फीसदी या एक तिहाई से अधिक लोग रोजाना 200 रुपये या उससे कम पर गुजर बसर करते हैं।
आंकड़े दर्शाते हैं कि सामान्य वर्ग या उच्च जाति के हिंदुओं को सरकारी नौकरियों और जमीन तथा वाहनों के मालिकाने में अन्य जातियों पर असाधारण बढ़त हासिल है, हालांकि यह आकार भी बहुत बड़ा नहीं है। यहां भी अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजाति में गरीबी का स्तर 42 फीसदी के साथ काफी अधिक है वहीं 25 फीसदी सामान्य एवं 33 फीसदी अन्य पिछड़ा वर्ग तथा अति पिछड़ा वर्ग के परिवार 6,000 रुपये या उससे कम प्रतिमाह पर गुजारा कर सकते हैं।
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आंकड़े बताते हैं कि बिहार का संकट केवल जातिगत भेदभाव से उपजा हुआ नहीं है और इसे केवल सकारात्मक भेद की मदद से खत्म नहीं किया जा सकता है। आवश्यकता यह है कि राज्य निवेश को बढ़ावा दे, छोटे और मझोले उद्योगों को समर्थन दे और बागवानी, मत्स्यपालन तथा खाद्य प्रसंस्करण में निवेश करे।
श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की भी आवश्यकता है। 2020 के विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव ने रोजगार देने का वादा करके तथा खुद को पिता की जाति आधारित राजनीति से दूर दिखाकर लोगों का समर्थन हासिल किया था। दुर्भाग्यवश नीतीश कुमार की सरकार राज्य की समस्याओं को राजनीतिक रूप से हल करने का प्रयास कर रही है और ऐसा 2024 के लोकसभा चुनाव तथा 2025 के विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है।