आमतौर पर भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) द्वारा दिए गए कामों में कोई भी राजनीतिक संकेत नहीं तलाश करता है लेकिन कई बार अनजाने ही वे नजर आते हैं। शहरी इलाकों में उपभोक्ता धारणाओं का सावधिक सर्वेक्षण भी ऐसा ही एक मामला है जिसे रिजर्व बैंक आयोजित और जारी करता है।
ऐसा प्रतीत होता है कि यह सर्वेक्षण यह दिखाता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शहरी भारतीयों में बहुत प्रभावी ढंग से उम्मीद का संचार करने में कामयाब रहे हैं। भले ही उनके आर्थिक हालात कठिनाई से भरे हों या उनमें सुधार न हुआ हो लेकिन वे भविष्य को लेकर आशान्वित हुए हैं। मोदी के आगमन के पहले ऐसा नहीं था।
वर्तमान और भविष्य में उपभोक्ताओं के आकलन का द्वैत रिजर्व बैंक के सर्वेक्षण पर आधारित दो सूचकांकों में में उलझा है: वर्तमान स्थिति का सूचकांक और भविष्य की अपेक्षाओं का सूचकांक। वर्ष 2013 में दोनों सूचकांक एक दूसरे के काफी करीब थे। उस वर्ष सितंबर में वर्तमान स्थिति सूचकांक 88 और भविष्य की अपेक्षाओं का सूचकांक 90.5 पर था। दिसंबर तक दोनों सूचकांकों में अंतर आने लगा।
वर्तमान सूचकांक में जहां मामूली सुधार हुआ और वह 90.7 तक पहुंचा वहीं भविष्य की अपेक्षाओं से जुड़ा सूचकांक 100.7 पर पहुंच गया यानी दोनों में 10 अंकों का अंतर आ गया। मार्च और जून 2014 के बीच यानी सत्ता परिवर्तन के दरमियान यह अंतर बढ़कर क्रमश: 15 और 22.5 अंक हो गया।
उसके बाद के वर्षों में यह अंतर बढ़ता गया। मई 2023 में उपभोक्ता आत्मविश्वास का वर्तमान सूचकांक जहां करीब एक दशक पहले के 88.5 के स्तर पर लौट गया है (यह मुद्रास्फीति, गैर जरूरी चीजों पर व्यय में कमी और रोजगार से जुड़ी चिंताओं को परिलक्षित करता है) जबकि भविष्य के अनुमान पर आधारित सूचकांक बढ़कर 116.3 हो गया है। वर्तमान उपभोक्ता धारणा सूचकांक सामान्य से नीचे है लेकिन फिर भी यह उम्मीद तेज है कि हालात एक वर्ष पहले की तुलना में बेहतर होंगे।
मोदी के कार्यकाल को दो कालखंडों में बांटा जा सकता है: नोटबंदी के पहले और बाद में। नवंबर 2016 के पहले वर्तमान परिस्थितियों का सूचकांक निरंतर 100 से ऊपर के स्तर पर था जबकि भविष्य की अपेक्षाओं का सूचकांक 120 के स्तर के आसपास या उससे ऊपर था। नोटबंदी एक निर्णायक मोड़ साबित हुई।
वर्तमान सूचकांक के आंकड़े उसके बाद तेजी से गिरे और मार्च 2019 तक 100 से नीचे रहे। उसके बाद इनमें कुछ सुधार हुआ और ये 104.6 पर पहुंचे। ठीक उसी समय भविष्य की अपेक्षाओं संबंधी सूचकांक तेजी से बढ़ा और 133.4 अंकों के साथ दशक के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया। उपभोक्ता धारणा में समय पर हुए मामूली सुधार ने शायद भारतीय जनता पार्टी को 2019 के लोकसभा चुनाव में जीत पाने में मदद की।
यहां दो बातें ध्यान देने लायक हैं। पहली बात, जब एक वर्ष आगे के समग्र आर्थिक हालात को लेकर लोगों की राय निराशाजनक हो तो ऐसे सर्वेक्षणों का कोई अर्थ नहीं है, भविष्य सूचकांक हमेशा वर्तमान हालात के सूचकांक से बेहतर प्रदर्शन करता है। बल्कि कोविड के दौर में वर्तमान सूचकांक गिरकर 50 अंकों तक आ गया था। यह करीब एक वर्ष तक ऐसे ही निचले स्तर पर बना रहा लेकिन उल्लेखनीय तथ्य यह है भविष्य की अपेक्षाओं पर आधारित सूचकांक करीब 100 के स्तर पर बना रहा।
एक समय दोनों के बीच का अंतर 60 अंकों तक पहुंच गया था। अपने जीवन की तमाम कठिनाइयों के बावजूद शहरों और कस्बों के अधिकांश लोग मानकर चलते रहे कि उनकी मुश्किलें अस्थायी हैं। ऐसा साबित भी हुआ क्योंकि उपभोक्ता आत्मविश्वास सूचकांक में उल्लेखनीय सुधार देखने को मिला। यहां दूसरी बात आती है।
यह सूचकांक मार्च 2019 के स्तर के आसपास भी नहीं पहुंचा। 88.5 अंकों के साथ सूचकांक अभी भी कोविड आरंभ होने के मार्च 2020 के स्तर के करीब नहीं पहुंचा, उस समय यह 85.6 पर था। एक वर्ष पहले के चुनाव के समय के 104.6 के स्तर से गिरकर वह यहां तक पहुंचा था।
वास्तव में अगर उपभोक्ता आत्मविश्वास का स्तर कोई राजनीतिक संकेतक है तो सवाल यह है कि क्या सूचकांक का मौजूदा स्तर इस बात के लिए पर्याप्त है कि भाजपा एक वर्ष बाद एक और चुनावी जीत हासिल करे। या फिर 2019 की तरह सूचकांक को और इजाफे के साथ 100 का स्तर पार करना होगा? उसके लिए खुदरा मुद्रास्फीति को नियंत्रित करना होगा, रोजगार की संभावनाओं में सुधार लाना होगा और लोगों की आर्थिक स्थिति बेहतर बनानी होगी। ऐसा होने पर ही पार्टी की चुनावी जीत की संभावना मजबूत होगी।