मई-जुलाई 1999 को चौथाई सदी बीत चुकी है। वह समय था जब भारत और पाकिस्तान के बीच नियंत्रण रेखा पर करगिल क्षेत्र में 74 दिन तक एक छोटा युद्ध चला था। तथाकथित करगिल संघर्ष में दोनों पक्षों के 500 से अधिक सैनिकों की जान चली गई और यह दक्षिण एशिया में भू-राजनीतिक रूप से तनाव के दौर का नतीजा था। यह उचित वक्त है कि हम उस संघर्ष से निकले सामरिक, कूटनीतिक और अन्य सबकों से दोबारा गुजरें।
करगिल युद्ध से हमारा सामना उस समय हुआ जब भारत इतिहास के उथलपुथल भरे दौर से गुजर रहा था। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाला भारत का उच्च कमांड सेंटर जिसे मुख्य सचिव ब्रजेश मिश्रा मशविरा दिया करते थे और जिसमें जॉर्ज फर्नांडिस, जसवंत सिंह और यशवंत सिन्हा जैसे सदस्य शामिल थे, वह शक्ति प्रदर्शन करने और श्रीलंका में तमिल टाइगर्स जैसी क्षेत्रीय समस्याओं के हल के लिए अभियान चलाने का समर्थक था।
उन हालात में भारतीय सेना पहले ही तमाम संघर्षों से दो-चार थी। 1992 तक पंजाब में पाकिस्तान समर्थित एक दशक पुराना सिख आतंकवाद खात्मे की ओर था। इससे जुड़े लोगों को अहसास हो गया था कि उन्हें पंजाब का जनसमर्थन नहीं मिल रहा है।
इससे पहले भारतीय सेना ने 1987-1990 में श्रीलंका में कार्रवाई की थी और भारतीय शांति सेना (आईपीकेएफ) को तमिल टाइगर्स से शक्ति की सीमा के बारे में सबक मिला था। असम में यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम यानी उल्फा की वजह से अशांति थी। जिस समय आईपीकेएफ की श्रीलंका से वापसी हो रही थी उस समय यानी 1989-90 में जम्मू कश्मीर झुलसने लगा था। हजारों कश्मीरी युवा पाकिस्तान द्वारा चलाए जा रहे शिविरों में हथियार चलाने का प्रशिक्षण लेने के लिए पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर जा रहे थे। केंद्र सरकार का रक्षा बजट जीडीपी के करीब 4 फीसदी के साथ उच्चतम स्तर पर पहुंच गया था।
देश में भारतीय जनता पार्टी के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के दबाव में होने के बीच भारत ने 11 मई और 13 मई, 1998 को पांच परमाणु परीक्षण किए। पाकिस्तान ने ऐसा नहीं करने के तमाम अंतरराष्ट्रीय दबाव के बावजूद उसी महीने छह परमाणु परीक्षण किए। दुनिया में दो नए परमाणु हथियार संपन्न देशों की अंतरराष्ट्रीय आलोचना से बेपरवाह वाजेपयी ने लाहौर की ऐतिहासिक बस यात्रा की तैयारी शुरू की। इस बीच परदे के पीछे पाकिस्तान की सेना के एक छोटे से समूह ने करगिल में नियंत्रण रेखा के पार से घुसपैठियों को भेजना शुरू किया। ये घुसपैठिये तमाम हथियारों, गोला-बारूद, खानेपीने की चीजें थीं ताकि वे ठंड का मौसम आसानी से काटा जा सके।
पाकिस्तान की योजना थी कि घुसपैठिये अपने हथियारों और गोला-बारूद की मदद से श्रीनगर-करगिल-लेह मार्ग को निशाना बनाएंगे ताकि करगिल और सियाचिन ग्लेशियर तक भारत की आपूर्ति बंद की जा सके। यह एक रणनीतिक योजना थी ताकि पाकिस्तान की परमाणु प्रतिरोधक क्षमता को प्रदर्शित किया जाए कि गंभीर से गंभीर भड़काने वाली कार्रवाई के बावजूद पाकिस्तान के परमाणु हथियार भारत के प्रतिरोध को रोकने में सक्षम हैं।
कूटनीतिक हलकों में पाकिस्तान के योजनाकार आश्वस्त थे कि भारत के राजनयिक वैश्विक मंचों पर पाकिस्तान के लिए अस्वीकार्य स्तर का दबाव नहीं पैदा कर पाएंगे। अंतत: सैन्य स्तर पर पीछे हटने, रणनीतिक रूप से पीछे होने और कूटनीतिक स्तर पर मात खाने के बाद भारत करगिल की नई यथास्थिति को स्वीकार कर लेगा। हालांकि ऐसा नहीं हुआ। तमाम चुनौतियों के बावजूद भारत ने पीछे हटने से इनकार कर दिया।
भारत की पहली चुनौती थी यह दिखाना कि पाकिस्तान ने एक अंतरराष्ट्रीय संधि का उल्लंघन किया है। 1972 के शिमला समझौते में दोनों पक्ष नियंत्रण रेखा पर यथास्थिति बनाए रखने पर सहमत हुए थे। करगिल में केवल घुसपैठिये ही नहीं बल्कि पाकिस्तानी सैनिकों ने भी नियंत्रण रेखा पार की थी।
पाकिस्तान के इसमें आधिकारिक रूप से शामिल होने की खबर खुफिया जानकारी से सामने आई जब भारत की टेलीफोन निगरानी करने वाली संस्थाओं ने पाकिस्तानी सेना के ताकतवर चीफ ऑफ जनरल स्टाफ लेफ्टिनेंट जनरल मोहम्मद अजीज खान और उनके बॉस तथा तत्कालीन सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ के बीच दो बातचीत सुनीं। उस समय मुशर्रफ चीन से समर्थन जुटाने पेइचिंग गए हुए थे।
भारत के खुफिया विभाग ने जो बातचीत रिकॉर्ड की थी उसमें दोनों सैन्य अधिकारी बात कर रहे थे कि करगिल के घुसपैठिये पूरी तरह उनके नियंत्रण में थे। भारत सरकार ने इस बातचीत को पाकिस्तान की गैर जिम्मेदारी के ठोस सबूत के रूप में पेश किया जो दोनों देशों के बीच परमाणु युद्ध की वजह बन सकता था।
इससे बचने के लिए भारत ने सैन्य बलों का सोचा समझा प्रयोग किया। चरणबद्ध प्रतिक्रिया में पहले तोपखाने का इस्तेमाल किया गया और बाद में हेलीकॉप्टरों और बमों की मदद से सैनिकों पर हमला बोला गया। भारत के इस सुनियोजित जवाब ने दिखाया कि वह कैसे तीनों सेनाओं के तालमेल वाले ऑपरेशन संचालित कर सकता है और ऐसा तीनों सेनाओं के लिए कोई उच्च कमांड ढांचा या समन्वय हुए बिना भी किया जा सकता है। भारतीय वायु सेना ने पाकिस्तान के अग्रिम ठिकानों पर गोलीबारी की, मुंथो ढालो में उसके लॉजिस्टिक ठिकाने को ध्वस्त किया जिससे घुसपैठियों के पास हथियारों की कमी होनी शुरू हुई।
भारत की सेना की गतिविधियों को देखते हुए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को 4 जुलाई, 1999 को अमेरिका बुला कर समझाइश दी। पाकिस्तान अमेरिका का समर्थन खो चुका था। जब शरीफ ने कहा कि भारत ने सियाचिन ग्लेशियर पर कब्जा करके पहले ही शिमला समझौते का उल्लंघन किया था तो क्लिंटन ने उन्हें तीखे स्वरों में याद दिलाया कि नए सिरे से देशों के नक्शे बनाने का समय जा चुका है और पाकिस्तानी सैनिकों को वापस लौट जाना चाहिए।
जुलाई के अंत तक वहां यथास्थिति कायम हो गई। इस युद्ध के बाद करगिल समीक्षा समिति के नाम से एक उच्चस्तरीय समिति बनाई गई जो स्वतंत्र भारत में सीमाओं की रक्षा के लिए सैनिकों की जरूरत आंकने का पहला गंभीर प्रयास था। इसकी रिपोर्ट में देश के सुरक्षा प्रबंधन में कई कमियों को रेखांकित किया गया। उसमें यह तथ्य भी शामिल किया गया कि देश के सुरक्षा प्रबंधन के लिए लॉर्ड इस्मे द्वारा तैयार और लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा अनुशंसित ढांचे को ऐसे राजनीतिक नेतृत्व ने स्वीकार किया था जो सुरक्षा तंत्र की जटिलताओं को अच्छी तरह नहीं समझता था।
समिति के निष्कर्षों और अनुशंसाओं को 2000 में मंत्रियों के एक समूह ने भी दोहराया और यह भी कहा कि जम्मू कश्मीर के विशाल भूभाग के तीनों हिस्सों की रक्षा भारतीय सेना के दो कोर द्वारा की जाती थी। इनमें से 15 कोर कश्मीर और लद्दाख की प्रभारी थीं जबकि 16 कोर जम्मू की। यह तय किया गया कि मौजूदा 15 कोर जोन से एक अलग 14 कोर बनेगी और उसे लद्दाख का प्रभार सौंपा जाएगा। इस पर अमल हो चुका है लेकिन यह 14 कोर करगिल और सियाचिन (दोनों पर पाकिस्तान दावा करता है) के साथ पूर्वी लद्दाख के लिए भी जिम्मेदार है जिस पर पाकिस्तान दावा करता है। यह दोहरापन कमांड के सहज सुचारु कामकाज को प्रभावित करता है।