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डॉनल्ड ट्रंप के कदम और वैश्वीकरण की हकीकत

अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने वैश्वीकरण को जो खतरा उत्पन्न किया है, उसने हमें यह पहचानने में मदद की है कि वैश्वीकरण दुनिया के लिए कितना फायदेमंद रहा है। बता रहे हैं

Last Updated- May 21, 2025 | 11:02 PM IST
President Donald Trump
प्रतीकात्मक तस्वीर

अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप टैरिफ पर अपने सख्त रुख से क्या पीछे हट गए हैं? दुनिया भर के देशों पर टैरिफ 90 दिन के लिए टाला गया था, जिसमें से अब 50 से भी कम दिन बचे हैं। इस दरम्यान उन्होंने केवल एक व्यापार समझौते की घोषणा की है, जो यूनाइटेड किंगडम के साथ हुआ सीमित समझौता है। इसमें केवल 10 फीसदी बुनियादी टैरिफ लगाने की ही गुंजाइश है।

इस बीच ट्रंप ने खास तौर पर चीन पर अपने तेवरों की तुर्शी भी कम की है। गत सप्ताह उन्होंने चीन से होने वाले आयात पर रोक लगाने की बात कही, जिसके बाद चीन पर टैरिफ कम होकर 30 फीसदी रह गया है। इसमें 10 फीसदी बुनियादी टैरिफ के साथ 20 फीसदी दर से लगाया गया खास टैरिफ है। यह खास टैरिफ शायद एक किस्म का जुर्माना है क्योंकि चीन ने मादक औषधि फेंटानाइल के कारोबार पर अंकुश नहीं लगाया है।

चीन को उन देशों की सूची में नहीं रखा गया था, जिन पर ट्रंप ने कथित ‘जवाबी’ टैरिफ लगाया था। इसके बजाय अमेरिका प्रशासन ने चीन की वस्तुओं को रोकने के लिए ऊंचा शुल्क लगा दिया था। इसके बाद ज्यादातर मामलों में व्यापार लगभग रुक ही गया था। मगर जल्द ही साफ हो गया कि यह अतिआत्मविश्वास के अलावा कुछ नहीं था। अमेरिका में कंटेनर जहाज खाली रहने और बंदरगाहों पर आवाजाही कम होने की खबरें आने लगीं। व्यापार पूरी तरह रुकने में कुछ सप्ताह का समय लगेगा और उस समय कीमतें बढ़ेंगी। ट्रंप ने ऐसा कुछ होने के पहले ही कदम वापस खींच लिए।

मोटे तौर पर यही माना जा रहा है कि ट्रंप प्रशासन पर शेयर बाजार में गिरावट का कोई असर नहीं पड़ा बल्कि बॉन्ड बाजार में मची खलबली से वह हकत में आया। जब किसी देश को अपने देश के बॉन्ड बाजार पर ध्यान देना पड़ता है तो समझ लीजिए कि हालात ठीक नहीं हैं। अप्रैल में ट्रंप इसी हालत में फंसे, जब अमेरिका सरकार के बॉन्ड पर यील्ड बढ़ने लगी।

परंतु बड़ा सवाल यही है कि अब वह टैरिफ के बारे में क्या सोचते हैं। क्या अब भी वह उतने ऊंचे टैरिफ लागू करना चाहते हैं, जितने ऊंचे की घोषणा पहले की गई थी? या वह यूनाइटेड किंगडम जैसे मामलों को अपनी जीत बताते हुए 10 फीसदी के बुनियादी टैरिफ पर मान जाएंगे?

उनका अपना प्रशासन ही इस मुद्दे पर बंटा हुआ है। जिन लोगों को वित्तीय मामलों की समझ है उनका तर्क है कि नए सौदे ऐसे होंगे जो कारोबार को सुचारु रूप से चलने दें। वित्त मंत्री स्कॉट बेसंट भी ऐसे लोगों में शामिल हैं। मगर इस विषय पर ट्रंप के विशेष सलाहकार पीटर नवारो का अब भी यही कहना है कि अमेरिका को उद्योग वापस बढ़ाने के लिए ऊंचे टैरिफ लगाने ही होंगे। उन्होंने अमेरिकी अर्थव्यवस्था के आकार में कमी का स्वागत करते हुए कहा है कि इससे पता चल रहा है कि उनकी कड़वी दवा अपना असर दिखा रही है।

ऐसे बयानों के तीन प्रभाव हुए हैं। एक ओर ब्रिटेन जैसे जिन देशों के पास गंवाने के लिए कुछ भी नहीं है, उन्हें इस बात ने अमेरिका के साथ समझौता करने का हौसला दिया है। दूसरी ओर इसने व्यापार के मोर्चे पर सख्ती बरतने वाले यूरोपीय संघ जैसे समूहों को जल्दबाजी नहीं करने का मौका दिया है।

परंतु अनिश्चितता के कारण अन्य देशों को भी आपस में व्यापार समझौते जल्द से जल्द करने की जरूरत महसूस हो रही है। भारत और ब्रिटेन के बीच हुआ समझौता ऐसा ही है। ऐसे और समझौते भी होने जा रहे हैं। ट्रंप ने दुनिया को यह देखने और सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि व्यापार के बगैर विश्व अर्थव्यवस्था कैसी नजर आएगी। ज्यादातर देशों ने उससे मुंह मोड़ लिया है, जो सही भी है।

कुछ लोग मानते हैं कि पूरी दुनिया के लिए विनिर्माण का अड्डा बने चीन के बगैर भी विश्व अर्थव्यवस्था चल सकती है। ऐसा हुआ तो दूसरे देशों में विनिर्माण का काम जोर पकड़ेगा। इनमें भारत भी शामिल है। परंतु यह बदलाव बहुत

महंगा पड़ेगा। खासकर तब और महंगा पड़ेगा, जब चीन की कंपनियों को नए विनिर्माण केंद्रों में निवेश नहीं करने दिया जाएगा।

अमेरिका के बगैर विश्व अर्थव्यवस्था की कल्पना करना भी मुश्किल है क्योंकि आखिर में वही उपभोक्ता है। जो देश किसी भी दूसरे देश को आयात से अधिक निर्यात नहीं करते हैं यानी व्यापार अधिशेष में नहीं रहते हैं, वे भी खुलेहाथ खर्च करने वाले अमेरिकियों के बल पर चल सकते हैं। भारत इसका सिर्फ एक उदाहरण है। अमेरिका आयात नहीं करेगा तो व्यापार को नए सिरे से संतुलित करने की कल्पना भी नहीं हो सकती।

अमेरिका और चीन में से किसी एक को चुनने के लिए कहा जाए तो भी ज्यादातर देश खुश नहीं होंगे। चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग अपने देश के भीतर दो अर्थव्यवस्थाओं के निर्माण की बात कर सकते हैं। एक वह जो अमेरिका के साथ व्यापार करना चाहती है और दूसरी, जो चीन में मौजूद मांग के बल पर चलना चाहती है। परंतु कई छोटे देशों के लिए ऐसा कुछ करना असंभव है। बड़े जापानी कारोबारी समूह और शायद यूरोपीय क्षेत्र के कुछ कारोबारी समूह शायद ऐसा कर सकते हैं। मगर आम तौर पर अमेरिका और चीन के साथ दो अलग-अलग कारोबारी नेटवर्क तैयार करना व्यावहारिक नहीं है। अमेरिकी वाणिज्य मंत्रालय भी इस काम के लिए नहीं बना है कि वह देश में आने वाले हर जहाज की जांच करे और देखे कि माल किस देश से आया है। ऐसा किया गया तो व्यापार पर एक तरह से रोक ही लग जाएगी।

इसलिए ऐसे किसी भी विवाद की तरह यहां भी अंत पहले से ही नजर आ रहा है मगर वहां तक पहुंचने के लिए कुछ लोगों को राजनीतिक चोट खानी होगी और यह धीमी तथा तकलीफदेह प्रक्रिया होगी। टैरिफ से प्यार करने वाले ट्रंप हकीकत को स्वीकार करने के पहले अपने देश को लंबे समय के लिए दर्द से गुजारकर हमें चौंका भी सकते हैं। परंतु संभावना यह है कि 90 दिन की मियाद पूरी होने के बाद भी अमेरिका शायद कुछ बुनियादी टैरिफ ही बनाए रखेगा, जो इतने अधिक नहीं होंगे कि महंगाई बेलगाम हो जाए या खजाना बिगड़ने लगे। चीन से होने वाले सीधे आयात पर ऊंचे कर लगेंगे। उसे यह अड़चन अमेरिका ही नहीं उन सभी देशों से झेलनी पड़ेगी, जिन्हें डर है कि टैरिफ बढ़ने पर चीन अपना सामान उनके यहां पाटने लगेगा।

चीन किसी तीसरे देश के रास्ते इन बाधाओं से बचने की कोशिश करेगा। वैश्विक व्यापार में खास स्तर की अक्षमता आ जाएगी, जो इतनी नहीं होगी कि व्यापार ही ठप हो जाए। केंद्रीय बैंकों को अधिक मुद्रास्फीति के दबाव से जूझना होगा और वृद्धि में हर जगह धीमापन आ जाएगा।

यह आदर्श स्थिति नहीं है लेकिन इससे भी बुरा हो सकता है। 2016 से तमाम लोगों ने वैश्वीकरण के अंत की बातें की हैं, लेकिन ट्रंप ने दिखाया है कि वैश्वीकरण का अंत करना कितना मुश्किल है। वैश्वीकरण से जो शिकायतें हैं, वे भी इस सच्चाई के आगे बेकार हैं कि इसने सबको और खासकर अमेरिकियों को संपन्न बनाया है।

First Published - May 21, 2025 | 10:58 PM IST

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