संस्थान मायने रखते हैं। उन्हीं पर विकास, निवेश और आर्थिक स्थिरता की बुनियाद रखी जाती है। या फिर इसका उलटा सच है? क्या आर्थिक परिवर्तन ही आधुनिक संस्थाओं को जन्म देते हैं? अर्थशास्त्रियों ने लंबे समय से इन दोनों के बीच संबंध को समझने की कोशिश की है। पिछले वर्ष, तीन अर्थशास्त्रियों को नोबेल पुरस्कार मिला, जिन्होंने यह दर्शाया कि वे संस्थाएं जो निवेश को प्रोत्साहित करती हैं और क्षति नहीं पहुंचाती, वे दशकों ही नहीं, बल्कि सदियों तक आर्थिक वृद्धि को संभव बना सकती हैं।
हम एक बड़े प्रयोग के बीच में जी रहे हैं। इसका श्रेय अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप को जाता है। उन्होंने अपने दूसरे कार्यकाल में उन बंधनों से आजाद होने का निर्णय लिया है जिन्होंने उन्हें पहले कार्यकाल में जकड़ रखा था। उन्होंने ऐसे कई संस्थानों को बरबाद किया है जो लंबे समय से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को परिभाषित करते आ रहे थे। क्या अमेरिका आर्थिक दृष्टि से बेहतरीन प्रदर्शन करता हुआ इससे पार पा लेगा? क्या दुनिया की सबसे मजबूत और सबसे गहरी अर्थव्यवस्था अपनी गति बरकरार रख सकेगी, वह भी तब जबकि उसकी बुनियाद को ही क्षति पहुंचाई जा रही है? इसका जवाब आने वाले दशकों में मिलेगा।
ट्रंप के राष्ट्रपति का पद संभालने के बाद जिन खबरों ने अमेरिका के बाहर सबसे अधिक सुर्खियां बटोरी हैं वे उनके द्वारा दी जा रही या लागू की गई शुल्क संबंधी धमकियों से संबंधित हैं। जिन देशों पर ये शुल्क लगाए गए हैं उनमें भारत भी शामिल है। ट्रंप ऐसा करने के क्रम में संवैधानिक सीमा को पार कर गए हैं। अमेरिका की जांच और निगरानी व्यवस्था राष्ट्रपति को व्यापार नीति बनाने का काम नहीं सौंपती। यह विधायिका यानी अमेरिकी कांग्रेस का काम है। इस दायित्व को खुद संभालना और इस प्रकार शुल्क आरोपित करना तथा संबंधित कानूनों को ही नए सिरे से लिखना राष्ट्रपति द्वारा शक्तियों के बंटवारे पर चोट भी है।
आखिर इस बात की बहुत कम संभावना है कि यदि विधायिका के सदस्यों द्वारा गुप्त और अंतरात्मा की पुकार पर आधारित मतदान कराया जाए, तो वे ट्रंप द्वारा लगाए गए शुल्क को एक अच्छा विचार मानेंगे। लेकिन इस प्रक्रिया में विधायिका की मिलीभगत रही है। उसने स्वयं को कमजोर किया जिसके चलते इतनी संस्थागत क्षति हुई। एक जवाबदेह और विचारशील विधायिका, और एक तेज लेकिन सीमित कार्यपालिका यही वह नीति-निर्माण प्रणाली रही है जिसने अमेरिका को विकास और लचीलापन प्रदान किया है। क्या अब वृद्धि बिना उस प्रणाली के जारी रह सकती है?
अमेरिकी अर्थव्यवस्था का एक अन्य स्तंभ रहा है उसकी उत्कृष्टता, गति और आंकड़ों की पारदर्शिता। हमारे पास इस बात के मासिक आंकड़े रहते हैं कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था कैसा प्रदर्शन कर रही है? हमें यह जानकारी जॉब रिपोर्ट से मिलती है। यकीनन इन तमाम आंकड़ों में से बाद वाले और सटीक परिणाम कई बार अंतरिम परिणामों से अलग रह सकते हैं क्योंकि अंतरिम आंकड़े कुछ हद तक सूत्रों और संभावनाओं पर आधारित होते हैं। परंतु हाल ही में ऐसा हुआ कि रोजगार संबंधी रिपोर्ट में ऐसे ही एक संशोधन से प्रशासन को शर्मिंदा होना पड़ा। इन आंकड़ों को एकत्रित करने वाली एजेंसी के मुखिया को काम से निकाल दिया गया। ट्रंप ने उसकी जगह जिस व्यक्ति को नामित किया वह न तो रोजगार संबंधी अनुभव रखता है न ही उसका इतिहास ऐसा है कि वह आधिकारिक आंकड़ों में भरोसा बरकरार रख सके।
अमेरिकी नीति निर्माण और अर्थव्यवस्था में उसका निवेश दोनों को उच्च गुणवत्ता वाले आंकड़ों की मौजूदगी से मदद मिली। भारतीय अर्थव्यवस्था जो कई प्रभावी आंकड़ों की श्रृंखला गंवा चुकी है या जो समय के साथ तुलना योग्य नहीं रह गए हैं, वह हमें बताता है कि कैसे अच्छे आंकड़ों की अनुपलब्धता से नीतिगत चयन बिगड़ सकते हैं। इससे यह भी पता चलता है कि कैसे निवेशक और कंपनियां जिन्हें अपने ही स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है, वे एक प्रकार से विवश हो जाती हैं। क्या अमेरिकी अर्थव्यवस्था भी इससे प्रभावित होगी? और क्या इससे निवेश का पैमाना या सटीकता कम हो जाएगी?
इसके बाद प्रश्न आता है केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता का। 1970 के दशक से हमने यह समझा है कि एक अलग मौद्रिक प्राधिकरण कितना महत्त्वपूर्ण होता है। यदि राजकोषीय प्राधिकरणों को बिना रोक-टोक के करेंसी छापने की छूट दे दी जाए, तो उनके प्रोत्साहन असंतुलित हो जाते हैं। समय के साथ मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए एक ऐसे केंद्रीय बैंक की आवश्यकता होती है जो अर्थव्यवस्था से आने वाले वास्तविक संकेतों पर प्रतिक्रिया दे, न कि राजनीतिक दबावों पर। भारत का हालिया आर्थिक इतिहास इस सिद्धांत का समर्थन करता प्रतीत होता है। एक दशक पहले शुरू मौद्रिक लक्ष्य निर्धारण ने मुद्रास्फीति की अपेक्षाओं को स्थिर किया है और सरकार को बॉन्ड बाजारों में अपने ऋणदाताओं को नियंत्रण में रखने में मदद की है।
सरकारें हमेशा चाहती हैं कि आर्थिक विकास उनके कार्यकाल में हो। वे अभी पैसा खर्च करना चाहती हैं, क्योंकि यदि इससे मुद्रास्फीति बढ़ती है, तो वह बाद में होगी। इसी कारण वे हमेशा यह चाहती हैं कि ब्याज दरें नीचे की ओर हों। वे उस दर से कम ब्याज दर चाहती हैं जो किसी विशेष मुद्रास्फीति-वृद्धि संतुलन के लिए उपयुक्त हो सकती है। भारत और अन्य देशों में यह कई बार देखा जा चुका है। अब यह स्थिति अमेरिका में भी दिखाई दे रही है, जहां ट्रंप ने फेडरल रिजर्व के एक गवर्नर को हटाने की धमकी दी है और एक अन्य को नियुक्त किया है, जिसकी मुख्य विशेषता राष्ट्रपति के प्रति व्यक्तिगत निष्ठा है। उनका मुख्य निशाना फेड चेयरमैन जेरोम पॉवेल बने हुए हैं। निवेशक आज यह सुनिश्चित नहीं कर सकते कि चेयरमैन अपने पद पर बने रहेंगे या नहीं, या फिर फेड बोर्ड की मौद्रिक नीति को नरम करने की दिशा में जो झुकाव दिख रहा है, वह वास्तव में आर्थिक तर्कों पर आधारित है या राजनीतिक दबाव के कारण हो रहा है।
अमेरिका ने अपने संस्थानों पर गर्व किया है। वह दुनिया के लिए टिकाऊ और निरंतर आर्थिक वृद्धि का भी विश्वसनीय स्रोत रहा है। हमारी सहजबुद्धि द्वारा इन दो तथ्यों को जोड़कर देखना स्वाभाविक है। अब उस सहजता की परीक्षा होने वाली है।
लेकिन हमने एक बात पहले ही समझ ली है। अमेरिका की संस्थाएं उतनी अच्छी तरह से डिजाइन नहीं की गई थीं, जितना वर्षों से दावा किया जाता रहा है। वे उस प्रकार के राष्ट्रपति का सामना करने के लिए तैयार नहीं हैं, जो असहमति या असहज आंकड़ों को राजनीति की सामान्य प्रक्रिया के बजाय किसी साजिश के रूप में देखता है।
रिचर्ड निक्सन वास्तव में स्वतंत्र संस्थाओं को लेकर शंकालु थे लेकिन उन्हें सत्ता से हटाया गया, क्योंकि उनकी ही पार्टी के विवेकशील सदस्यों ने उनका विरोध किया। इसका अर्थ यह भी है कि अमेरिका की संस्थाएं कुछ महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों पर निर्भर करती हैं। जैसे नियामक अधिकारी, कांग्रेस के मध्य मार्ग सदस्य, न्यायाधीश और जांचकर्ता जो अपना काम ईमानदारी से करें और आपस में मिलीभगत न रखें।
शायद यह बात सभी संस्थाओं पर लागू होती है। लेकिन ऐसा लगता है कि अमेरिका की संस्थाएं व्यक्तिगत ईमानदारी पर दूसरों की तुलना में अधिक निर्भर हैं। वे दूसरों से अधिक मजबूत इसलिए लगीं क्योंकि उन्हें बहुत कम बार कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ा।
यह विचार का विषय है क्योंकि पिछली बार जब संघीय सरकार की सभी इकाइयों ने सामूहिक रूप से अपनी स्वतंत्रता का त्याग दी थी और एकपक्षीय उद्देश्य में लग गई थीं, वह वक्त आज से 150 साल पहले का था। उस समय अमेरिका गृहयुद्ध की दिशा में बढ़ रहा था।