विश्व के लोकतांत्रिक देशों की वी-डेम रैंकिंग की आलोचना यह बताती है कि आखिर यह क्रम तय करने के उसके तरीकों में क्या समस्या है। इस विषय में जानकारी दे रहे हैं आर जगन्नाथन
भारतीय लोकतंत्र में निश्चित तौर पर कमियां हैं। हमें इस बात में कोई संदेह नहीं होना चाहिए क्योंकि दुनिया का कोई भी लोकतंत्र अपने आप में संपूर्ण नहीं है।
बहरहाल नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार इस बात को लेकर अनावश्यक रूप से नाखुश रही है कि बीते सालों में कई स्वतंत्र ‘थिंक टैंक’ जिनमें फ्रीडम हाउस से लेकर इकॉनमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट और स्वीडिश वी-डेम ( वराइटीज ऑफ डेमोक्रेसी) तक शामिल हैं ने, निरंतर लोकतांत्रिक सूचकांकों पर भारत की रैंकिंग कम की है।
यहां दो बातें महत्त्वपूर्ण हैं। पहला तो यह कि सरकार को ऐसी रिपोर्टों को केवल इसलिए खारिज नहीं कर देना चाहिए कि वे प्रतिकूल हैं, भले ही उनमें कुछ दिक्कत हो। अगर हमें उनकी प्रविधि गलत लगती है तो हमें उस गलती को चिह्नित करना चाहिए और रेटिंग एजेंसियों से बात करके उनमें सुधार कराना चाहिए।
समस्या तब खड़ी होती है जब ये रैंकिंग एजेंसियां भी उचित आलोचना को सीधे-सीधे केवल इसलिए नकार देती हैं कि ये सरकार के करीबी अधिकारियों की ओर से की गई है।
वी-डेम के निदेशक स्टेफन लिंडबर्ग ने हाल ही में एक साक्षात्कार में कहा कि उनके संगठन ने भारत को जो रेटिंग दी वह ‘उचित’ थी। उन्होंने उन आरोपों की उपेक्षा कर दी कि जिन विशेषज्ञों का इस्तेमाल करके वी-डेम ने भारत को 2022 में 93 की निचली रैंकिंग दी थी वे भारत के प्रति पूर्वग्रह रखते थे।
खासतौर पर ऐसा इसलिए कि रैंकिंग के दो आलोचकों संजीव सान्याल और आकांक्षा अरोड़ा ने उल्लेख किया कि लसोटो जहां 2014 में तख्तापलट हुआ था, उसे भारत से काफी ऊंची रैंकिंग दी गई। लिंडबर्ग ने संकेत किया कि लसोटो के साथ तुलना नस्लवादी हो सकती है। उन्होंने दावा किया कि वी-डेम के नतीजे उच्चस्तरीय गणित पर आधारित थे इसलिए उनमें गड़बड़ी नहीं हो सकती।
लिंडबर्ग ने खुलासा किया कि विशेषज्ञों ने पांच मानकों में से तीन का इस्तेमाल किया। इन सभी को गोपनीय रखा गया। इन विशेषज्ञों में ऐसे विद्वान शामिल थे जो अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं और भारत में न्यायपालिका अथवा चुनावों पर उनके वैज्ञानिक आलेख प्रकाशित है। उन्होंने यह भी कहा कि उनके पास भारत को लेकर व्यवस्थित वैज्ञानिक जानकारियां हैं।
भारत जैसे जटिल देश के बारे में किसी नतीजे पर पहुंचने के लिए विशुद्ध विज्ञान का सहारा नहीं लिया जा सकता है बल्कि इसके लिए व्यवहार विज्ञान अधिक उचित रहता जहां पूर्वग्रह असावधानीवश ही आ जाते, किसी देश को सजग ढंग से रैंकिंग में ऊपर या नीचे करने के लिए पूर्वग्रह की आवश्यकता ही न होती।
वी-डेम का गुब्बारा सिडनी स्थित इंडियन सेंचुरी राउंडटेबल के निदेशक सल्वाटोर बैबोंस के शोध पत्र के कारण फूटने को है जिन्होंने लोकतंत्र पर भारत को रैंक करने के तरीकों को खारिज किया है। इस समय प्रोफेसर बैबोंस भारतीय लोकतंत्र पर एक पुस्तक के लिए शोध कर रहे हैं।
प्रोफेसर बैबोंस ने कहा है कि वी-डेम की रैंकिंग पांच उप सूचकांकों पर आधारित हैं जो हैं- निर्वाचित अधिकारी, सार्वभौमिक मताधिकार, निष्पक्ष चुनाव, एकत्रित होने की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
इनमें से पहले दो मानकों में गंभीर खामी है और शेष तीन में भी पूर्वग्रहों की भरपूर गुंजाइश है। उदाहरण के लिए प्रमुख निर्वाचित पदाधिकारी और सार्वभौमिक मतदान पर मूल्यांकन रैंकिंग में शामिल देशों के संविधान के आधार पर हुआ। यानी अगर किसी देश का संविधान अधिकारियों के ‘निर्वाचन’ की बात कहता है तो उसे पूरे अंक मिलते हैं। ऐसे में इस आधार पर पूरे अंक पाने वाले देश थे क्यूबा, लीबिया, रूस, सीरिया और वियतनाम। 131 देशों को पूरे अंक मिले।
भारत पीछे रह गया क्योंकि 2021 तक एंग्लो इंडियन समुदाय के दो लोकसभा सदस्य चयनित किए जाते थे। 2021 में यह कानून खत्म किया गया लेकिन इसके बावजूद 2022 में वी-डेम ने इसके चलते भारत को कम अंक दिए।
सबको मताधिकार के मामले में 174 देशों को पूरे अंक दिए गए जिसमें चीन, ईरान, उत्तर कोरिया, म्यांमार और वेनेजुएला शामिल हैं। इस मामले में दुनिया के सबसे बड़े अधिनायकवादी देशों और सबसे लोकतांत्रिक देशों को समान अंक मिले। यानी एकदलीय शासन वाला देश भी अगर सबको मताधिकार देता है तो उसे भी उतना ही लोकतांत्रिक माना जाएगा जितना बहुदलीय प्रणाली वाले देश को।
बैबोंस कहते हैं कि बाकी तीन मानकों यानी स्वच्छ चुनाव, एकत्रित होने की आजादी और अभिव्यक्ति की आजादी की रैंकिंग विशुद्ध विशेषज्ञों की राय पर की गई। वह समस्या को रेखांकित करते हुए कहते हैं, ‘राजनीति विज्ञान कोई विज्ञान नहीं है, राजनीति विज्ञानियों द्वारा लोकतंत्र के संकेतकों का आकलन किसी रसायन विज्ञानी द्वारा किसी द्रव के तापमान का आकलन करने जैसा नहीं होता।’ यानी भारतीय लोकतंत्र को लेकर किसी विशेषज्ञ के ज्ञान को विशुद्ध नहीं माना जा सकता है और वह राजनीतिक, वैचारिक या व्यक्तिगत पूर्वग्रह से प्रभावित हो सकता है।
उदाहरण के लिए एक न्यायाधीश कानून का विशेषज्ञ हो सकता है लेकिन हम अपने अनुभव से जानते हैं कि अलग-अलग न्यायाधीश एक ही अपराध के लिए अलग-अलग सजा निर्धारित कर सकते हैं।
विशेषज्ञों की व्यक्तिपरकता का एक उदाहरण स्वच्छ चुनावों के मानकों पर भारत की कमजोर रैंकिंग से आता है। यह मानक दरअसल यह तय करता है कि चुनाव आयोग कितना सही और निष्पक्ष है।
2014 में भारत कुल चार अंकों में से 3.6 मिले थे जो अब घटकर 2.3 रह गए। यानी हम स्विट्जरलैंड के स्तर से फिसल कर जांबिया के स्तर पर आ गए। यह स्थिति तब है जबकि सत्ताधारी दल 2014 से जितने चुनाव जीता है करीब उतने ही हारा भी है।
प्रोफेसर बैबोंस कहते हैं, ‘वी-डेम की दिक्कत सांख्यिकीय गणना से नहीं बल्कि संकेतकों के गलत चयन, निर्णयों को समझने में समस्या और विशेषज्ञों के पूर्वाग्रह से संबद्ध है।’ संक्षेप में कहें तो समस्या मॉडल के साथ नहीं बल्कि आंकड़ों में है।
भारत को प्रोफेसर बैबोंस के शोध से दो सबक लेने चाहिए। पहला, उसे वी-डेम से बातचीत करके प्रेरित करना चाहिए कि वह अपनी प्रविधि में बदलाव लाए ताकि वह सही मायनों में भारतीय लोकतंत्र को दर्शा सके। इस बात की परवाह नहीं करनी चाहिए कि अंतत: हमें क्या रैंकिंग मिलती है।
दूसरी बात, उसे अपने मानक तैयार करने चाहिए जिनके आधार पर भारत के विविध, बहुधर्मी, बहुसांस्कृतिक, बहुभाषी और बहुलतावादी लोकतंत्र का आकलन किया जा सके। हमारा लक्ष्य होना चाहिए अपनी रैंकिंग में सुधार न कि वी-डेम की व्यवस्था में बदलाव।
बहुलतावादी लोकतंत्र की बात करें तो भारत के आसपास ऐसे देश ज्यादा नहीं हैं। इसकी तुलना काफी हद तक अमेरिका या ब्रिटेन जैसे सांस्कृतिक विविधता वाले देशों से की जा सकती है।
भारत एक ऐसा देश है जिसके जिलों का औसत आकार 100 से अधिक देशों के बराबर या उनसे बड़ा है। भारत का सबसे बड़ा राज्य आबादी के लिहाज से दुनिया भर में पांचवे स्थान पर है। ऐसे में सार्वभौमिक मानकों का इस्तेमाल करने से सही तस्वीर सामने नहीं आएगी। हमें हमेशा यह बात ध्यान में रखनी चाहिए।
(लेखक स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं)