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लोकतंत्र, एक राष्ट्र-एक चुनाव और सरकार

भारत जैसे लोकतंत्र में एक राष्ट्र-एक-चुनाव स्वागत योग्य प्रस्ताव है परंतु इसके साथ कई अन्य सुधारों की भी जरूरत है। विस्तार से बता रहे हैं आर जगन्नाथन

Last Updated- October 05, 2023 | 9:28 PM IST
Democracy, one nation, one election and government

दुनिया के लोकतंत्र लोकतांत्रिक मूल्यों को अक्षुण्ण रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। विशेषकर, यह कथन दुनिया के उन लोकतांत्रिक देशों की वर्तमान स्थिति के संदर्भ में सटीक हैं, जहां राजनीतिक एवं बुद्धिजीवी अब भी लोकतंत्र में निष्ठा व्यक्त करते हैं।

लोकतांत्रिक देश तभी अपना अस्तित्व बचाए रख सकते हैं जब वे स्वयं का मूल्यांकन करते रहें और श्रेष्ठ सुधारों के लिए प्रयासरत रहें। अन्यथा, वे धीरे-धीरे स्वयं अपने ह्रास का कारण बनने लगते हैं। अमेरिका के दूसरे राष्ट्रपति जॉन एडम्स ने एक बार कहा था, ‘विश्व में ऐसा कोई लोकतंत्र नहीं रहा जहां लोकतांत्रिक मूल्यों में ह्रास नहीं देखा गया।’ एडम्स का यह कथन अब भी उतना ही सत्य है जितना दो शताब्दियों पहले था।

लोकतंत्र के विफल होने के कई कारण हो सकते हैं। इनमें प्रत्येक कारण अपने तरीके से लोकतंत्र को विफल कर सकते हैं। अगर लोग अपने मन में ठान लें तो दुनिया में सर्वाधिक मजबूत संस्थाएं भी लोकतांत्रिक प्रणाली में ह्रास नहीं रोक सकती हैं। भारत का संविधान तैयार करने वाले डॉ. भीमराव आंबेडकर ने ठीक ही कहा था, ‘अगर नए संविधान के अंतर्गत कुछ चीजें गलत हो जाएं तो इसका यह मतलब नहीं है कि संविधान में त्रुटियां थीं। यह भी हो सकता है कि लोग ही संविधान के अनुरूप काम नहीं कर पाएं।’ यह तर्क दो तरफ से ठोस प्रतीत होता है।

लोकतंत्र में मानव व्यवहार में भटकाव की बात स्वीकार की जानी चाहिए और यह कारण है कि संस्थानों, यहां तक कि संविधानों पर लगातार निगरानी रखनी पड़ती है और इनमें संशोधन की जरूरत होती है। मानव स्वभाव एवं उसके कई दोषों को देखते हुए संस्थानों एवं कानूनों में अवश्य बदलाव किया जाना चाहिए। लोकतंत्र में नियमित रूप से इस बात का आकलन किया जाना चाहिए कि कौन से उपाय सफल रहे और कौन से नहीं।

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यह आकलन न केवल मानव की विफलताओं बल्कि संस्कृति पर भी आधारित होना चाहिए। संस्थानों एवं कानूनों पर लोगों से उनकी राय जानकर पुनर्विचार करना एवं इन्हें नया रूप दिया चाहिए ताकि उपयुक्त समाधान सामने आ सके। लोकतंत्र में सबके लिए एक नियम या समाधान काम नहीं कर सकता। प्रत्येक लोकतंत्र को अनिवार्य रूप से यह निर्णय लेना चाहिए कि कौन सी संरचना या व्यवस्था इसके लिए श्रेष्ठ रूप में काम कर सकती है।

अमेरिका का संविधान महान हो सकता है, जो लोगों को अधिक से स्वतंत्रता देता है मगर एक तरफ सिंगापुर (उदाहरण के लिए) भी है जिसने अपने लोगों के लिए निरंतर बेहतर परिणाम दिए हैं। खासकर, ऐसे समय में जब जलवायु परिवर्तन, बढ़ती असमानता, आबादी के पलायन और अवैध आव्रजन जैसी कुछ समस्याओं के समाधान चुनावी ढांचे में संभव नहीं हैं।

यह वह बिंदु है जहां पश्चिमी देशों में लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर देशों की सूची गलत सिद्ध हो जाती है। इसका कारण यह है कि पश्चिमी देशों का मानना है कि एक संस्कृति और अत्यधिक विविधता वाले राज्यों, छोटे, समरूपी राष्ट्र-राज्य और बड़ी सभ्यता वाले देशों का आकलन एक ही मानक पर होना चाहिए।

अगर हम आधारभूत सिद्धांतों को स्वीकार करते हैं तो कुछ व्यापक निष्कर्षों पर पहुंच सकते हैं। पहली बात, प्रत्येक राज्य को यह अवश्य स्वीकार करना चाहिए कि वह किस तरह की लोकतांत्रिक व्यवस्था चाहता है और किस गति के साथ वह बदलना चाहता है। दूसरी बात, प्रत्येक लोकतंत्र को अपनी संस्कृति के अनुकूल प्रयासों एवं गलतियों से गुजरते हुए नए आयाम स्थापित करना होगा।

इसका आशय है कि लोकतंत्र की गुणवत्ता का निर्धारण दीर्घ अवधि में प्राप्त परिणामों पर आधारित होना चाहिए, न कि छोटी अवधि के आधार पर। विभिन्न लोकतंत्रों के लिए इसका आकलन तार्किक रूप से भिन्न मानदंडों पर किया जाना चाहिए और प्रगति का आकलन प्रत्येक देश के उसके मानकों के आधार पर होना चाहिए।

तीसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मानव अधिकारों एवं विचारधारा का इस्तेमाल शक्तिशाली देशों को अस्त्र के रूप में नहीं करना चाहिए। इससे लोकतंत्र में सुधार की रफ्तार धीमी पड़ सकती है। अर्थात किसी भी बाहरी शक्ति को यह तय करने का अधिकार नहीं होना चाहिए कि उनकी नजर में जो सही है वही दूसरों के लिए भी उपयुक्त है।

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चौथी बात यह है कि सभी संस्थाओं में सुधार का आकलन किया जाना चाहिए। इस प्रक्रिया में कोई कानून बाधा नहीं बननी चाहिए। पांचवीं महत्त्वपूर्ण बात यह है कि केवल एक सुधार लागू करने से बात नहीं बनने वाली है। सुधारों के बाद सरकार के स्तर पर भी सुधार की जरूरतें पूरी की जानी चाहिए।

अब अगर भारत पर विचार करें तो यह एक सटीक लोकतंत्र का ओहदा हासिल करने से कोसों दूर है। वैसे आलोचक तो यही कहेंगे कि इसके लिए मुख्य रूप से नरेंद्र मोदी सरकार के कदम जिम्मेदार हैं मगर भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों में ह्रास के संकेत इंदिरा गांधी के समय लगाए गए आपातकाल से ही मिलने लगे थे। जहां तक सरकार के स्तर पर त्रुटियों की बात है तो कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका मौजूदा स्थिति के लिए किसी न किसी रूप में जिम्मेदार हैं।

लोकतंत्र के संचालन में सुधार का एक तरीका एक- राष्ट्र- एक- चुनाव (ओएनओपी) हो सकता है। इस समय इस प्रस्ताव पर विचार के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन भी किया गया है। बार-बार होने वाले चुनाव सरकार की सेहत के लिए ठीक नहीं होते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि सरकार का पूरा ध्यान सत्ता में बने रहने के उपायों तलाशने पर रहता है और आवश्यक सुधारों पर उनका ध्यान नहीं जाता है।

मेरे विचार में यह एक अच्छा कदम है और उम्मीद की जाती है कि विपक्ष इसलिए इसे खारिज नहीं करेगा कि नरेंद्र मोदी ने इसका प्रस्ताव दिया है। विपक्ष चाहें तो मोदी को लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता से हटाने के लिए स्वतंत्र हैं मगर उन्हें साथ ही ओएनओपी प्रस्ताव पर भी विचार करना चाहिए। सरकार को भी अपनी तरफ से आश्वस्त करना चाहिए कि सभी की सहमति के बिना कोई कानून नहीं बनाया जाएगा। मगर ओएनओपी बेहतर सरकार एवं लोकतंत्र की स्थापना की दिशा में केवल एक कदम है। पहले हुए एक चुनाव सुधार से यह बात और बेहतर तरीके से स्पष्ट की जा सकती है।

पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1980 के दशक में दल-बदल के खिलाफ कानून बनाया था। इसका एक लाभ हुआ है कि राजनीतिक स्थिरता बनाए रखने में मदद मिली है मगर इससे राजनीतिक दलों के प्रमुख इतने शक्तिशाली हो गए हैं कि पार्टी के भीतर ही लोकतांत्रिक मूल्य समाप्त हो रहे हैं। अब कोई विधायक या सांसद पार्टी से निष्कासन या अपनी सीट गंवाए बिना भिन्न विचार नहीं रख सकता है।

हां, कुछ लोग दूसरी पार्टी के विधायकों को किसी दूसरे राज्य में होटल में बंद रख सकते हैं और उनमें बगावती सुर वाले सदस्यों को अपने साथ मिला सकते हैं। मगर यह तरीका लोकतांत्रिक तो नहीं माना जाएगा। इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि लोकप्रिय मतों में मात्र 30-35 प्रतिशत हिस्सा (या इससे भी कम जैसा 2012 में उत्तर प्रदेश चुनाव में देखने में आया था) हासिल कर विधानसभा में बहुमत हासिल किया जा सकता है, मगर यह भी प्रतिनिधि लोकतंत्र की श्रेणी में शायद ही आएगा।

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अतः भारत को केवल ओएनओपी नहीं बल्कि दूसरे सुधारों की भी जरूरत है और शायद राष्ट्रपति प्रणाली की तरफ बढ़ा जाए तो अच्छा होगा। इस प्रणाली में निर्वाचित होने के लिए 50 प्रतिशत मत की आवश्यकता होती है। इसके बाद आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के साथ विधानसभा गठित की जा सकती है। बहु-दलीय गठबंधन आपसी सहमति से कानून बना सकते हैं और राष्ट्रपति अधिकांश परिस्थितियों में सरकार के स्तर पर निरंतरता सुनिश्चित कर सकते हैं।

राष्ट्रपति प्रणाली विशेषकर भारत के लिए इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि हमें सबको साथ लेकर चलने वाले चेहरों की जरूरत है जो मौजूदा प्रणाली में संभव नहीं दिख रहा है। भारत में राजनीतिक दलों की संरचना कुछ ऐसी है कि यह एक परिवार की तरह है जिसमें एक नेता उन्हें नेतृत्व प्रदान करता रहता है। इसे देखते हुए भारत को राष्ट्रपति प्रणाली अपनाने में कोई दिक्कत नहीं होगी।

अगर सरकार के तीनों अंगों को बराबर अधिकार नहीं दिए जाएंगे तो ओएनओपी का अधिकतम लाभ नहीं मिल पाएगा। स्थानीय निकाय स्तर पर तो प्रतिनिधियों को व्यावहारिक रूप से कोई अधिकार नहीं है। स्थानीय स्तर पर नागरिक सरकार के साथ सबसे अधिक संवाद करते हैं, इसलिए अगर इसे अधिकार नहीं दिए गए तो ओएनओपी का कोई महत्त्व नहीं रह जाएगा।

हमें स्थानीय निकाय स्तर की एक विधायी सूची तैयार करनी चाहिए जबकि समवर्ती सूची का आकार केवल न्यूनतम आवश्यक कार्यों तक सीमित कर दिया दिया जाना चाहिए। ओएनओपी सरकार एवं चुनावी सुधार की शुरुआत है, न कि अंतिम पड़ाव। लोकतंत्र की आत्मा सर्वसम्मति में बसती है, न कि केवल बहुमत से लिए गए निर्णयों में।

(लेखक स्वराज पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं)

First Published - October 5, 2023 | 9:28 PM IST

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