सात दशक से भी अधिक पुरानी एक तकनीक इन दिनो सुर्खियों में है क्योंकि वह विशुद्ध शून्य उत्सर्जन लक्ष्य हासिल करने में मददगार हो सकती है। बता रहे हैं प्रसेनजित दत्ता
दुनिया भर की कंपनियां और देश अब सात दशक पुरानी एक तकनीक की ओर बढ़ रहे हैं जिसे पहले कभी इतनी तवज्जो नहीं दी गई। वे इसके माध्यम से उत्सर्जन को विशुद्ध शून्य स्तर पर ले जाना चाहते हैं। यह सब हाल के दिनों में शुरू हुआ जब यह पता चला कि मौजूदा स्वच्छ ऊर्जा तकनीकों को आक्रामक ढंग से अपनाने भर से इन लक्ष्यों को हासिल नहीं किया जा सकेगा।
कार्बन कैप्चर ऐंड स्टोरेज (सीसीएस) अथवा इसका नया संस्करण कार्बन कैप्चर, यूटिलाइजेशन ऐंड स्टोरेज (सीसीयूएस) दोनों ही नई तकनीक नहीं हैं। इसके बुनियादी प्रयोगों की जड़ें सन 1920 के दशक में जाती हैं, हालांकि जमीन में कार्बन डाई ऑक्साइड को दबाने की पहली बड़ी परियोजना सन 1972 में टैक्सस ऑयलफील्ड ने शुरू की थी।
तब से सीसीएस और सीसीयूएस परियोजनाओं को यूरोप के देशों और अमेरिका में टुकड़ों में शुरू किया गया। हालांकि यह कभी भी पर्यावरण को लेकर लड़ाई में मुख्य रूप नहीं ले सका। एक तकनीक के रूप में इसने कभी भी कंपनियों या नीति निर्माताओं को बहुत उत्साहित नहीं किया।
नीति निर्माताओं को यह इतनी आकर्षक नहीं लगी कि वे इसे लेकर कर रियायत प्रदान करें अथवा कंपनियों को इसे अपनाने को प्रेरित करने के लिए अन्य प्रोत्साहन प्रदान करें। कंपनियों के लिए प्रतिफल की तुलना में कंपनी की लागत का समीकरण स्पष्ट नहीं था।
इसके अलावा बड़ी, मुनाफा कमाने वाली लेकिन प्रदूषण फैलाने वाली कंपनियों के लिए पर्यावरण की दृष्टि से खुद को बेहतर साबित करने के कई उपाय मौजूद थे। सौर ऊर्जा संयंत्र और पवन ऊर्जा संयंत्र स्थापित करने से लेकर पौधरोपण कार्यक्रम संचालित करने और कार्बन क्रेडिट खरीद तक बड़ी कंपनियों के पास अनेक विकल्प थे जिनकी मदद से वे खुद को पर्यावरण के अनुकूल साबित कर सकती थीं।
कई जलवायु विज्ञानी भी बड़े सीसीयूएस संयंत्र स्थापित करने के पक्ष में नहीं थे। वे इस तकनीक को व्यापक पैमाने पर प्रोत्साहित भी नहीं करना चाहते थे। उनको लगता था कि इससे एक नैतिक सवाल खड़ा हो सकता है। उनका मानना था कि अगर कार्बन कैप्चर लोकप्रिय हो गया तो विभिन्न कंपनियां और देश उत्सर्जन कम करने और स्वच्छ ऊर्जा के उत्पादन में कम रुचि लेंगे।
अंत में, कई सरकारों ने भी सोचा कि प्राकृतिक कार्बन सिंक यानी वन और समुद्र आदि उत्सर्जन को सोखने के लिए पर्याप्त हैं जबकि नीति निर्माताओं को स्वच्छ ऊर्जा तकनीक पर ध्यान देने के साथ-साथ कोशिश करनी चाहिए कि कुल उत्सर्जन में कमी आए।
अब इस विचार में बदलाव आया है। अगर कुछ और नहीं तो कम से कम पिछले कुछ वर्षों ने यह दिखाया है कि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई आसान नहीं है। इस मामले में समीकरण आसान नहीं हैं। सौर, पवन और हाइड्रोजन को अपनाने तथा हरित ऊर्जा तकनीक को अपनाने की दिशा में अपेक्षित प्रगति नहीं हो रही है। ऐसे में प्रदूषण फैलाने वाले ईंधन को अपनाने की दिशा में अपेक्षित प्रगति नहीं हो पाएगी।
रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण तेल बाजार में जो उथलपुथल मची उसके कारण कोयले की मांग ने नए सिरे से जोर पकड़ा है। न तो हरित हाइड्रोजन तकनीक और न ही भंडारण तकनीक ही इतनी तेजी से विकसित हो सकी हैं कि कोयला, तेल, गैस अथवा पेट्रोकेमिकल आधारित ईंधनों का स्थान ले सकें।
अंत में कई उद्योग मसलन उर्वरक और सीमेंट और यहां तक कि इस्पात उद्योग में भी इन ईंधनों का कोई विकल्प मौजूद नहीं है। औद्योगिक कार्बन कैप्चर में केवल कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन से निपटने का प्रयास नहीं किया जाता है बल्कि सल्फर ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और अन्य कणों से निपटना भी इस प्रक्रिया का हिस्सा है। ऐसे में यह कई प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों का सही विकल्प है।
कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन का इस्तेमाल भी कई उद्योगों में किया जा सकता है। उर्वरक से लेकर तेल रिकवरी और उसे सिंथेटिक रसायन और ईंधन में बदलने तक के काम में उसका इस्तेमाल होता है। अगर ऐसा है भी तो कुल उत्सर्जन का बहुत कम हिस्सा ही इसमें इस्तेमाल होता है। कैप्चर की गई अधिकांश गैसों को जमीन या समुद्र के बहुत नीचे गहराई में दफना दिया जाता है। इन्हें तेल या गैस की खाली हो चुकी खदानों में या कोयले अथवा भूमिगत खदानों में दफन कर दिया जाता है जहां अब खनन नहीं होता। मौजूदा आकलन के मुताबिक तो ये गैस हजारों साल तक वहीं दफन रहेंगी। इन खदानों में दफन करने के बाद शायद ही कभी गैस बाहर निकली हो।
यूरोप, ब्रिटेन, अमेरिका, चीन, मलेशिया तथा अनेक अन्य स्थानों पर ऐसी अनेक परियोजनाएं चल रही हैं। अंतराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के अनुसार फिलहाल करीब 45 टन क्षमता संचालित है और दुनिया भर में ऐसी 35 वाणिज्यिक परियोजनाएं चल रही हैं। 200 और सीसीयूएस संयंत्र निर्माण के अलग-अलग चरणों में है और उनके 2030 तक तैयार हो जाने की उम्मीद है जो 22 करोड़ टन कार्बन डाई ऑक्साइड को ग्रहण करेगा।
उत्तरी अमेरिका और यूरोप ने हाल के दिनों में इस दिशा में तेजी से प्रगति की है और औद्योगिक केंद्र विकसित कर रहे हैं ताकि बड़े सीसीयूएस सुविधाओं को किफायती ढंग से तैयार किया जा सके। ऐसे एक क्लस्टर के अंदर मौजूद कंपनियां परियोजना और परिचालन लागत को साझा कर सकती हैं। एशिया प्रशांत भी बहुत पीछे नहीं है।
शुरुआती ढिलाई के बाद भारत भी इस तकनीक को अपनाता नजर आ रहा है। नीति आयोग ने गत नवंबर में ‘कार्बन कैप्चर, यूटिलाइजेशन ऐंड स्टोरेज (सीसीयूस) पॉलिसी फ्रेमवर्क ऐंड इट्स डेवलपमेंट मैकेनिज्म इन इंडिया’ जारी किया लेकिन कई प्रायोगिक परियोजनाएं इससे बहुत पहले शुरू कर दी गई थीं।
भारत के लिए सीसीयूएस उत्सर्जन लक्ष्यों को हासिल करने के मामले में खास महत्त्वपूर्ण साबित हो सकता है। आबादी के आकार के कारण हम दुनिया के तीसरे सबसे बड़े उत्सर्जक हैं, हालांकि हमारा प्रति व्यक्ति उत्सर्जन बहुत कम है। स्वच्छ ऊर्जा पर पूरा जोर देने के बावजूद हम जीवाश्म ईंधन पर निर्भर बने हुए हैं। सबसे अहम बात यह है कि कोयले का हमारा भंडार और कोयल से गैस बनाने की हमारी परियोजनाएं भी सीसीयूएस को हमारे लिए उपयोगी बनाती हैं।
(लेखक बिज़नेस टुडे और बिज़नेस वर्ल्ड के पूर्व संपादक और संपादकीय परामर्श संस्था प्रोजैक व्यू के संस्थापक हैं)