आधुनिक एवं सक्षम बाजार अर्थव्यवस्था में मूल्य में होने वाले बदलाव की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। कीमतों में उतार-चढ़ाव के बीच मिलने वाले संकेतों से मांग एवं आपूर्ति के मोर्चों पर हरकत होने लगती है। ये उतार-चढ़ाव दीर्घ अवधि में असहज एवं नुकसानदेह हो सकते हैं। मगर वित्तीय डेरिवेटिव बाजार ऐसे माध्यम तैयार करते हैं जिनका सहारा लेकर कुछ निश्चित भुगतान करने के बदले लघु एवं मध्यम अवधि में कीमतों में उतार-चढ़ाव के प्रतिकूल असर से बचा जा सकता है।
वित्तीय डेरिवेटिव के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के बराबर, अधिक परिपक्व एवं लेनदेन के लिहाज से आसान बाजार तैयार करने की प्रक्रिया बाजार अर्थव्यवस्था की स्थापना के संग-संग चलती है। पिछली एक पीढ़ी के दौरान इन मोर्चों पर प्रगति हुई है, यह अलग बात है कि इस पर काफी अधिक खर्च आया है। इसमें कोई शक नहीं कि निवेशकों को गुमराह कर की जाने वाली कुछ डेरिवेटिव योजनाओं की बिक्री रोकने के लिए और मजबूत कदम उठाए जा सकते हैं मगर बाकी के लिए बुनियादी हालात बदलना अधिक खर्चीला साबित होगा।
भारत में समाजवादी व्यवस्था में सरकार ने कई वस्तुओं की कीमतें नियंत्रित की थीं। कभी-कभी तो कानून में नियत मूल्य की परिभाषा भी तय की गई और इसका उल्लंघन करने पर कड़े दंड के प्रावधान किए गए। अन्य अवसरों पर कानून के माध्यम से यह तय कर दिया कि कौन लेनदेन कर सकता है (मसलन केवल बैंक एवं प्राइमरी डीलर को अनुमति मिली) और लेनदेन कहां हो सकते हैं (उदाहरण के लिए केवल कृषि उत्पाद विपणन समिति में)।
इन कायदों का उल्लंघन करने वाले को दंडित भी किया गया। सरकार ने अर्थव्यवस्था नियंत्रित करने के लिए कई नियम-कायदे तैयार कर डाले थे, जिनका इस्तेमाल कीमतों में उतार-चढ़ाव पर नजर एवं नियंत्रण रखने (जैसे निर्यात एवं आयात पर प्रतिबंध के माध्यम, नियमन के स्तर पर बदलाव आदि से) के लिए किया गया था।
एक बाजार अर्थव्यवस्था में विभिन्न तरह के लोगों की अलग-अलग गतिविधियां आपूर्ति एवं मांग निर्धारित करती हैं। आपूर्ति एवं मांग पर नियंत्रण का असर सीधे कीमतों पर पड़ता है। समाजवादी व्यवस्था से संपन्नता की तरफ कदम बढ़ाते हुए हम एक ऐसी प्रक्रिया से होकर गुजरते हैं जिसमें कीमतें पहले सरकार के नियंत्रण में रहती हैं मगर बाद में ये किसी के नियंत्रण में नहीं रहती हैं।
सुधार का वास्तविक अर्थ मात्रा एवं कीमतों पर लगी पाबंदी हटाना है। हम एक ऐसे दौर में हैं जहां मांग एवं कीमतों में बदलाव होते रहते हैं। कीमतों में उतार-चढ़ाव अच्छी बात होती है क्योंकि वे अर्थव्यवस्था को संकेत भेजते हैं जिससे बाजार में बेहतर तालमेल स्थापित हो पाता है। जब रुपये में अवमूल्यन होता है तो आयात अधिक महंगा और निर्यात सस्ता हो जाता है और भारतीय वित्तीय परिसंपत्तियां विदेशी निवेशकों के लिए अधिक आकर्षक हो जाती हैं।
बाजार अर्थव्यवस्था में कीमतों में होने वाले उतार-चढ़ाव के अनुसार परिस्थितियां जब स्वतः बदलती हैं तो इससे आर्थिक संपन्नता को बढ़ावा मिलता है। कुछ लोग यह चाह रखते हैं कि उनका आने वाला कल भी उनके आज की तरह हो। मगर दुनिया बदलती रहती है और बदलते हालात के साथ तालमेल बैठाना पड़ता है। मूल्य व्यवस्था ऐसे बदलाव या समायोजन के लिए रास्ता आसानी से बना देती है।
क्या कोई बीच का रास्ता है जिसके जरिये मूल्य प्रणाली के पूर्ण लाभ तो मिले, साथ ही कीमतों में उतार-चढ़ाव के नुकसान से भी कुछ हद तक बचा जा सके? हां, वित्तीय डेरिवेटिव का इस्तेमाल कर ऐसा किया जा सकता है। वित्तीय डेरिवेटिव अपने उपयोगकर्ताओं को अधिक समय उपलब्ध कराते हैं। जब रुपये में अवमूल्यन होता है तो किसी आयातक को अधिक रकम चुकानी पड़ती है और उस स्थिति में उसे अपनी कारोबारी रणनीति पर दोबारा विचार करना पड़ सकता है। मगर लघु अवधि में यानी कुछ खास महीनों या तिमाहियों के लिए वित्तीय डेरिवेटिव के जरिये रुपये के अवमूल्यन के असर से बचा जा सकता है।
विकास रणनीति तैयार करते वक्त एक अधिक सक्रिय एवं त्वरित लेनदेन वाले वित्तीय डेरिवेटिव बाजार की जरूरत महसूस होती है। एक बाजार अर्थव्यवस्था के रूप में भारत के उदय के बाद देश में ऐसे बाजारों का होना आवश्यक है। हमें कीमतों में उतार-चढ़ाव की राह में आने वाली सारी बाधाएं दूर करनी चाहिए। इससे आर्थिक वृद्धि को गति मिलेगी मगर बदलती परिस्थितियों के साथ लगातार तालमेल बैठाने का झंझट भी बढ़ेगा। इस झंझट से उन लोगों को दिक्कत हो सकती है, जो जीवन में बदलाव से गुरेज करते हैं। अगर नीति निर्धारक वित्तीय डेरिवेटिव के लिए अधिक परिपक्व एवं त्वरित लेनदेन वाले बाजारों के उदय को बढ़ावा देते हैं तो इससे बाजार अर्थव्यवस्था की तरफ कदम बढ़ाने पर आने वाला खर्च कम हो जाएगा।
मगर इसके लिए इन बाजारों का आकार बड़ा होना चाहिए। वर्ष 2023-24 में भारतीय अर्थव्यवस्था में विदेश से लगभग 1 लाख करोड़ डॉलर आए और इतनी ही रकम बाहर चली गई। इन 2 लाख करोड़ डॉलर रकम से जुड़े लेनदेन में अगर आधे कीमतों में उतार-चढ़ाव से बचाव के लिए हुए होते तो लोगों (एंड यूजर) को 1 लाख करोड़ रुपये मूल्य के मुद्रा (करेंसी) डेरिवेटिव के फायदे मिलते। वास्तविक बाजार मूल्य का आकार कई गुना अधिक बड़ा करना होगा तभी वित्तीय पेशेवर (‘कयास लगाने वाले’ एवं ‘आर्बिट्रेजर’) इस 1 लाख करोड़ डॉलर का लाभ पाने के लिए गतिविधियों में शामिल होंगे। ये सभी कार्य निजी लोग करते हैं और सरकारी रकम की जरूरत नहीं होती है।
ये आंकड़े (उदाहरण के लिए एक वर्ष में मुद्रा डेरिवेटिव के 5 लाख करोड़ से 10 लाख करोड़ डॉलर के कारोबार) उन लोगों के लिए डरा सकते हैं जिन्होंने इस कारोबार में कदम नहीं रखा है। भारत में नीति निर्धारकों ने 1990 के दशक तक यह बात समझ ली थी। इन चीजों को वास्तविक रूप देने के लिए काफी मेहनत की गई थी। सबसे पहले बंबई स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) और बाद में 2000 में नैशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) में इक्विटी डेरिवेटिव कारोबार की शुरुआत तथा 2008 में मुद्रा में वायदा कारोबार की अनुमति शामिल हैं। धीरे-धीरे निजी इकाइयों ने इन बाजारों में परिचालन करना सीख लिया और वे लेन देन बढ़ाने और सही कीमतें हासिल करने लगे।
जिंस वायदा कारोबार भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है और भारत 20 से अधिक कृषि जिंसों में डेरिवेटिव कारोबार सेवाओं का पुरोधा बन सकता है। भारत की कृषि जिंस खंड में खास पहचान है। पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने जिंस वायदा कारोबार की शुरुआत करते समय केतन पारेख प्रकरण पर संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की रिपोर्ट से एक अच्छी बात उठा ली। 1950 के दशक में समाजवादी माहौल के बीच जिंस वायदा कारोबार बंद कर दिया गया था। मेजर जनरल (अवकाशप्राप्त) भुवन चन्द्र खंडूड़ी ने स्थायी समिति की एक रिपोर्ट लिखी, जिससे 2007 में प्रतिभूति नियमन अधिनियम में महत्त्वपूर्ण संशोधन हुए।
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने इनमें कुछ बाजारों के उभार को कई वर्षों तक रोकने का प्रयास किया। हालांकि, सरकार ने 2008 के बजट में बॉन्ड, करेंसी एवं डेरिवेटिव बाजार (एक्सचेंज ट्रेडेड करेंसी एवं ब्याज दर वायदा सहित) विकसित करने के अपने इरादे की घोषणा कर डाली। सरकार ने उचित सुरक्षा उपायों के साथ पारदर्शी क्रेडिट डेरिवेटिव बाजार तैयार करने की भी घोषणा की। ये सभी घोषणाएं बाद में क्रियान्वित हुईं मगर इससे पहले नीतिगत एवं नियमन के मोर्चे पर केंद्र सरकार में गंभीर चर्चा एवं बहुत माथापच्ची हुई।
जीडीपी के आकार का डेरिवेटिव बाजार मजबूत बुनियाद पर खड़ा होगा और इसे तैयार करने में की गई कड़ी मेहनत के लाभ मिलेंगे। मगर हाल में डेरिवेटिव कारोबार के संबंध में उठाए गए कदम हमें आगे ले जाने के बजाय पीछे धकेल देंगे। इन उपायों से विदेश में गतिविधियां बढ़ जाएंगी, इसलिए विदेशी निवेशक तो कारोबारी सुरक्षा हासिल कर लेंगे मगर स्थानीय लोग इससे वंचित रह जाएंगे।
कारोबार के स्तर पर हमारी भागीदारी कम होने से अर्थव्यवस्था अधिक पीछे चली जाएगी और भविष्य में हालात संभालने के लिए कड़ी मशक्कत करनी होगी। भारत का राजनीतिक एवं नीतिगत नेतृत्व भारत को एक विकसित अर्थव्यवस्था और दुनिया में महत्त्वपूर्ण मामलों में बड़ी भूमिका निभाते देखना चाहता है। मगर 1950 के दशक में प्रचलित नीतियों एवं विचारों को दोबारा स्थापित करना इन सपनों से मेल नहीं खाता है।
(लेखक आइजक सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी में मानद वरिष्ठ फेलो और पूर्व अधिकारी हैं)