समकालीन पेशेवर टिप्पणियों में दुनिया की प्रमुख ताकतों के आपसी रिश्तों पर बात करते समय एथेंस के इतिहासकार थुसीडिडीज द्वारा लिखित हिस्ट्री ऑफ पेलोपोन्नेसियन वार का जिक्र अनिवार्य तौर पर सामने आता है। यह युद्ध पांचवीं सदी ईस्वीपूर्व ग्रीस के राज्यों एथेंस और स्पार्टा के बीच हुआ था और थुसीडिडीज एथेंस में करीब 500 ईस्वी पूर्व रहा करते थे। एथेंस एक स्थापित सैन्य शक्ति था और उसे उभरते राज्य स्पार्टा से चुनौती मिली। आखिरकार पर्शिया की मदद से स्पार्टा, एथेंस पर भारी पड़ा। यह माना जा सकता है कि एथेंस स्पार्टा की महत्त्वाकांक्षाओं और उसकी बढ़ती ताकत का अनुमान नहीं लगा सका।
इस समय अमेरिका और चीन के बीच जो माहौल है उसकी तुलना पेलोपोन्नेसियन युद्ध से की जा रही है और कहा जा रहा है कि वह चीन को और अधिक उभरने नहीं देना चाहता है। शायद वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन के आक्रामक सैन्य कदमों का एक संकेत यह भी है कि वह भारत को नियंत्रित रख सकता है।
हालांकि भारत आत्मघाती कदम भी उठा सकता है लेकिन वह अपनी प्रति व्यक्ति आय को अगले 20 वर्षों में चार गुना करने में भी संभव है। चीन के व्यवहार से यह पता चलता है कि वह बहुलतावादी और लोकतांत्रिक भारत के बढ़ते आर्थिक कद को लेकर असहज है। संभव है कि चीन के कुलीन और दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों (आसियान) देशों के बीच यह भावना आती हो कि अगर लोकतांत्रिक भारत धीमा विकास करे तो केंद्रीकृत सरकार के नियंत्रण को अपेक्षाकृत अधिक उचित ठहराया जा सकेगा।
पांचवी सदी ईस्वीपूर्व एथेंस की आबादी करीब 3.5 से पांच लाख के बीच थी और स्पार्टा की आबादी महज 50,000 थी। उस युग में भी भारत और चीन में अहम सैन्य शक्तियां थीं और दोनों देशों की आबादी लगभग 2.5 करोड़ थी। हाल की सदियों में एशिया का अधिकांश हिस्सा पश्चिम की वैज्ञानिक और सैन्य शक्तियों की बदौलत उपनिवेश सा बना रहा।
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20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में यूरोपीय देश अन्य देशों के उभार के साथ कदम नहीं मिला सके और सोवियत संघ तथा वामपंथ के प्रति अमेरिकी भय के कारण शीतयुद्ध आरंभ हुआ। इन दिनों अमेरिका और चीन के बीच गतिरोध को लेकर अक्सर थुसीडिडीज का जिक्र आता है जिसका अर्थ है एक स्थापित शक्ति तथा एक महत्त्वाकांक्षी प्रतिद्वंद्वी के बीच विवाद की स्थिति। एशिया के देशों को वह मानसिकता त्यागनी होगी जो यूरोप के देशों की अतीत की शत्रुता और दो विश्व युद्धों अथवा 20वीं सदी के शीतयुद्ध से ग्रसित हैं।
21वीं सदी में चीन सैन्य और आर्थिक संदर्भ में तथा सैन्य स्तर पर भी उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के सदस्य देशों के समान हो गया। जहां तक भारत की बात है तो वह दो दशक पहले की तुलना में आज कहीं अधिक आश्वस्त नजर आता है।
द इकॉनमिस्ट के 15 अप्रैल, 2023 के अंक के मुताबिक 25 बड़े निर्गुट देशों में वे देश शामिल हैं जिन्होंने रूस पर प्रतिबंध नहीं लगाया है या कहा है कि वे चीन-अमेरिका के संघर्ष में निष्पक्ष रहना चाहते हैं। दुनिया की आबादी का 45 फीसदी इन दोनों देशों में रहता है और वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में उनकी हिस्सेदारी भी 1989 में बर्लिन की दीवार गिरते वक्त 11 फीसदी थी जो अब बढ़कर 18 फीसदी हो चुकी है।
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कम प्रति व्यक्ति आय वाले देशों को अपने अतीत के समृद्धि वाले दौर से सबक लेना चाहिए बजाय कि रूस के खिलाफ पक्ष लेने के लिए थुसीडिडीज जैसी तुलनाओं के। इसी प्रकार चीन को भी यह समझाया जाना चाहिए कि वह भारत को आर्थिक और सैन्य प्रतिद्वंद्वी न माने।
पश्चिमी टीकाकारों का यह कहना सही है कि व्लादीमिर पुतिन ने रूस को अपनी अदूरदर्शी आर्थिक नीतियों के कारण पीछे कर दिया। वह जीवाश्म ईंधन और खनिजों के निर्यात पर जरूरत से ज्यादा निर्भर रहे। बहरहाल, यूक्रेन में सैन्य संघर्ष छिड़ने के पहले दशकों तक पश्चिम की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए रूस में उत्पादन इकाइयां स्थापित करना तब तक संभव था।
रूस के अधिक आबादी वाले इलाके भौतिक रूप से चीन की तुलना में यूरोप के अधिक करीब हैं और परिवहन की कम लागत रूस में श्रम की उच्च लागत की भरपाई कर सकती थी। सारी बातों पर विचार करते हुए पश्चिमी मीडिया द्वारा पुतिन के रूस पर तानाशाही नियंत्रण की बात तथ्यात्मक रूप से सही प्रतीत होती है।
बहरहाल, जब पश्चिम यूक्रेन में सैन्य अतिक्रमण के लिए रूस को गलत ठहराता है तो यह बात सामने नहीं आती कि अतीत में अमेरिकी राष्ट्रपति मसलन जॉर्ज डब्ल्यू बुश और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने किस हद तक हस्तक्षेप किए थे। इराक, अफगानिस्तान, सीरिया और यमन में अमेरिकी सैन्य हस्तक्षेप के कारण इन देशों में करीब पांच लाख लोगों की मौत हुई।
चीन के मौजूदा वैश्विक कद के बारे में इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि कैसे उसने ईरान और सऊदी अरब के बीच खामोशी से मध्यस्थता की और कैसे 5-8 अप्रैल 2023 के बीच चीन यात्रा के दौरान फ्रांसीसी राष्ट्रपति एमैनुएल मैक्रों ताइवान को लेकर टिप्पणी करने में सतर्क रहे।’
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भारत ने जरूर रूस के खिलाफ न जाकर पश्चिम को असहज किया है। इसके साथ ही भारत के लिए यह भी आवश्यक है कि पश्चिम चीन के कदमों का विरोध कर उसका उभार रोके। पश्चिम चुनिंदा ढंग से भारत का समर्थन कर सकता है लेकिन वह ऐसा केवल कम्युनिस्ट चीन के साथ संतुलित करने के लिए करेगा।
गत सप्ताह ‘ऑल क्वाइट ऑन द वेस्टर्न फ्रंट’ को सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय फीचर फिल्म का ऑस्कर मिला। इस फिल्म में पहले विश्वयुद्ध के दौरान एक युवा की मौत का दृश्य हमें सशस्त्र संघर्षों की विभीषिका का स्मरण कराता है। पश्चिम से रूस में हस्तक्षेप रोकने की मांग करना नक्कारखाने में तूती की आवाज हो सकता है। शायद अमेरिकी नेतृत्व वाले पश्चिमी देशों का हित इसी बात में हो कि वे रूस को तोड़ दें ताकि उसके प्राकृतिक संसाधनों तक वे आसान पहुंच बना सकें।
इसी प्रकार चीन की भारत के साथ लगने वाली सीमा पर जमावड़ा और धमकाने वाला अंदाजा भी एक तयशुदा ढर्रे पर है। दुनिया भर के प्रभावशाली दायरों में स्थापित और उभरती ताकतों के बीच अपरिहार्य संघर्ष को लेकर जो चर्चा है उसे खारिज किया जाना चाहिए।
(लेखक भारत के पूर्व राजदूत एवं वर्तमान में सेंटर फॉर सोशल ऐंड इकनॉमिक प्रोग्रेस के फेलो हैं)