भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करते हुए पेटीएम पेमेंट्स बैंक लिमिटेड (पीपीबीएल) को तत्काल प्रभाव से नए ग्राहकों को जोड़ने से रोक दिया। मौजूदा ग्राहकों को अपने सभी खातों से शेष राशि निकालने या इसका उपयोग करने की अनुमति दी गई , लेकिन अतिरिक्त जमा या ऋण लेनदेन की अनुमति नहीं। अब 15 मार्च के बाद पीपीबीएल द्वारा कोई अन्य बैंकिंग सेवाएं नहीं दी जा सकती हैं। अनिवार्य रूप से, आरबीआई ने पीपीबीएल का संचालन बंद कर दिया है। सवाल यह है कि आखिर ऐसा क्यों किया गया?
आरबीआई जैसा प्रतिष्ठित नियामक बिना किसी कारण और बिना किसी औचित्य के कार्रवाई नहीं करता है। हम यह मानते हैं कि पीपीबीएल ने नियमों का गंभीर उल्लंघन किया जिसकी वजह से सख्त प्रतिक्रिया देने की आवश्यकता पड़ी। संभावना है कि पहले भी कई छोटे स्तर के उल्लंघन हुए हों। हम यह भी अनुमान लगा सकते हैं कि पीपीबीएल के शीर्ष प्रबंधन को उल्लंघनों के बारे में सूचना दी गई थी और उन्हें अपनी पिछली गलतियों को सुधारने का भी मौका दिया गया होगा। लेकिन यह सब अनुमान है और सच तो यही है कि हम इसके बारे में नहीं जानते हैं।
आरबीआई द्वारा पीपीबीएल पर की जा रही कार्रवाई की वजह सवालों में घिरी है। इस कार्रवाई को सही ठहराने के लिए आरबीआई ने अभी तक कोई औपचारिक कानूनी आदेश जारी नहीं किया है जिसमें इसकी नाकामी और कार्रवाई के औचित्य के बारे में बताया गया हो। हमारे पास केवल एक प्रेस विज्ञप्ति है जिसमें कोई सबूत या कारण बताए बिना ही दंड निर्धारित करने की बात है।
प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है, ‘बाहरी लेखा परीक्षकों (ऑडिटर) की व्यापक लेखा रिपोर्ट और बाद में किए गए अनुपालन सत्यापन रिपोर्ट ने बैंक में लगातार गैर-अनुपालन और निरंतर निगरानी की चिंताओं का खुलासा किया, जिसके लिए आगे निगरानी की आवश्यकता जताई गई है।’
यह बयान कई सवालों को अनुत्तरित छोड़ देता है। हम नहीं जानते कि कोई सुनवाई हुई थी या नहीं क्योंकि हमने पीपीबीएल का पक्ष नहीं सुना है और हमें आरबीआई द्वारा पीपीबीएल के बचाव का खंडन किए जाने की जानकारी नहीं है। इस प्रकार, यह स्पष्ट नहीं है कि दंडात्मक कार्रवाई लागू करने से पहले सार्वजनिक प्राधिकरणों द्वारा उचित प्रक्रिया और कानून के शासन के सिद्धांतों का पालन किया गया था या नहीं।
पीपीबीएल मामले में आरबीआई की कार्रवाई की प्रक्रिया उचित है या नहीं, यह सवाल इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इंगलैंड के लॉर्ड चीफ जस्टिस, लॉर्ड ह्यूर्ट ने 1924 के एक मामले में एक टिप्पणी की थी जो बेहद मशहूर है, ‘यह न केवल महत्त्वपूर्ण है बल्कि यह बुनियादी रूप से महत्त्वपूर्ण है कि न केवल न्याय हो बल्कि स्पष्ट और निस्संदेह रूप से न्याय होता दिखना भी चाहिए।’
इसका अर्थ यह है कि अनिवार्य रूप से कानून के शासन और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन किया जाए:
1. कानून का शासन का अर्थ सभी के साथ समान व्यवहार करना, सभी के लिए एक ही कानून हो और इसके अलावा कानूनी प्रक्रिया में निष्पक्ष प्रक्रियाएं हों। इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका इसे कुछ इस तरह परिभाषित करता है, ‘वह तंत्र, प्रक्रिया, संस्था, व्यवहार या नियम जो कानून के समक्ष सभी नागरिकों की समानता का समर्थन करता है और स्वेच्छाचारी शासन को रोकना सुनिश्चित करने के साथ ही सामान्य रूप से शक्ति के मनमाने इस्तेमाल को रोकता है।’
2. कानून के शासन की अवधारणा की तरह ही प्राकृतिक न्याय की अवधारणा है जिसमें दो बुनियादी तत्त्व शामिल हैं। पहला सिद्धांत यह है कि किसी भी व्यक्ति का आकलन निष्पक्ष सुनवाई के बिना नहीं आंका जाना चाहिए ताकि उन्हें अपने खिलाफ सबूत का जवाब देने का अवसर मिले। दूसरा सिद्धांत यह है कि कोई व्यक्ति अपने ही मामले में न्यायाधीश नहीं हो सकता।
आधुनिक बाजार अर्थव्यवस्था के सुचारु संचालन के लिए कानून का शासन और निष्पक्ष प्रक्रियाएं अनिवार्य हैं। अनियंत्रित शासन न केवल अनुचित है, बल्कि यह निजी निवेश को हतोत्साहित भी करता है। क्या यह संभव है कि बैंकिंग अन्य क्षेत्रों से कुछ अलग है, ऐसे में इस क्षेत्र से संवैधानिक कानूनों की बुनियाद ही खत्म कर दी जाए। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में बैंकिंग नियमन के ताजा उदाहरण यह स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि बैंकिंग क्षेत्र में भी कानून के शासन और संवैधानिक मूल्यों का पालन करते हुए काम किया जा सकता है।
एक और संभावना यह है कि अगर आरबीआई इन मामले में बहुत अधिक पारदर्शिता दिखाता तो इससे जमाकर्ताओं के बीच अपनी जमाएं निकालने की होड़ लगने के साथ ही दहशत फैल सकती थी। ऐसे में यह तर्क दिया जाता है कि बैंकों के नियमन और निगरानी के लिए कानून के शासन की प्रक्रिया उचित नहीं है। लेकिन यह तर्क यहां नहीं दिया जा सकता है। आरबीआई की कार्रवाई से पहले पीपीबीएल के 3 करोड़ से अधिक खाते, 7 लाख से अधिक पॉइंट-ऑफ-सेल टर्मिनल थे। साथ ही पीपीबीएल से 3.5 करोड़ से अधिक यूपीआई क्यूआर कोड और 30 करोड़ से अधिक वॉलेट जुड़े हुए थे।
इसके अलावा, भारतीय सड़कों पर लगभग 1 करोड़ फास्टैग पीपीबीएल के थे। इन सभी पर आरबीआई की कार्रवाई का असर पड़ेगा। चूंकि इन सभी उपयोगकर्ताओं को नहीं पता कि पीपीबीएल में क्या गड़बड़ी हुई है और उन्हें केवल आरबीआई की सख्त कार्रवाई ही दिख रही है। ऐसी स्थिति में घबराहट की स्थिति बन सकती है और आरबीआई की कार्रवाई के चलते ही बैंक जमाएं निकल सकती हैं। इसके अलावा बाजार में यह भी अफवाह है कि केवल पीपीबीएल ही अकेला नहीं है ऐसे में कई नए दौर की वित्तीय कंपनियां भी दबाव का सामना कर रही हैं।
जहां तक प्राकृतिक न्याय के दूसरे सिद्धांत का सवाल है ऐसे में यह सवाल प्रासंगिक होगा कि क्या पीपीबीएल की निगरानी करने वाले और नियमों के उल्लंघन को अनूठा बताने वाले लोग, क्या उन लोगों से अलग थे जिन्होंने सबूतों का आकलन किया और यह निष्कर्ष निकाला की सख्त कदम की दरकार है। पूरी संभावना है कि ये अलग-अलग लोग होंगे। लेकिन हमें इसकी कोई जानकारी नहीं हैं।
फिलहाल उपलब्ध जानकारी के आधार पर यह कहना मुश्किल है कि प्राकृतिक न्याय के दोनों सिद्धांतों का पूरी तरह से पालन किया गया है। इस समय यह स्पष्ट नहीं है कि न्याय को स्पष्ट रूप से और निस्संदेह रूप से लागू किया गया है।
सवाल यह है कि क्या आरबीआई को इस संकट के लिए दोषी ठहराया जाए? शायद नहीं। बैंकिंग नियमन कानून की धारा 35 ए प्रभावी तरीके से वहीं करने के लिए कहती है जो इसने किया है। आरबीआई के कर्मचारी पुराने कानून पर अमल कर रहे हैं जिनका पालन करना उनके लिए अनिवार्य है।
अब वक्त आ गया है कि इन पुराने कानूनों पर पुनर्विचार किया जाए। यह भारत की आधुनिक अर्थव्यवस्था के संस्थानों के निर्माण की यात्रा का हिस्सा है। इसका उदाहरण भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) है जिस मामले में ‘स्पष्ट आदेश’ (कारणों सहित) की अवधारणा के परिणामस्वरूप दो घटनाक्रम सामने आए जैसे कि आधुनिक कानून के तौर पर सेबी अधिनियम, 1992, आया और प्रतिभूति अपील न्यायाधिकरण की स्थापना हुई जो सेबी के कार्यों की न्यायिक निगरानी करता है।
ठीक उसी तरह, भारत को एक आधुनिक बैंकिंग विनियमन कानून की आवश्यकता है, जो यह सुनिश्चित करे कि जब भी प्राधिकरण वित्तीय संस्थाओं के साथ जुड़ते हैं, तब नियामकीय प्रवर्तन मामलों में कानून का शासन और प्राकृतिक न्याय पूरी तरह से लागू हों। आखिरकार, एक लोकतंत्र में, वित्तीय कंपनियों को इस आश्वासन की जरूरत है कि न्याय मनमाने तरीके से नहीं होगा। हम सभी, नागरिकों, जमाकर्ताओं और वॉलेट तथा क्यूआर कोड उपयोगकर्ताओं के रूप में, यह जानने का अधिकार रखते हैं कि पीपीबीएल में क्या गलत हुआ।
(लेखक पूर्व लोक सेवक, सीपीआर में मानद प्रोफेसर एवं कुछ लाभकारी एवं गैर-लाभकारी निदेशक मंडलों के सदस्य हैं)