गत सप्ताह केंद्र सरकार ने कई नई परियोजनाओं और योजनाओं की घोषणा की जिनकी अनुमानित लागत करीब 1.2 लाख करोड़ रुपये है। इनमें देश के 169 शहरों में 10,000 बिजली चालित बसें शुरू करना, भारतीय रेल की मालवहन क्षमता को बढ़ाने के लिए सात मल्टी ट्रैकिंग परियोजनाओं की शुरुआत करना जो नौ राज्यों के 35 जिलों से गुजरेंगी, डिजिटल इंडिया का विस्तार और विश्वकर्मा योजना की मदद से कलाकारों-दस्तकारों को वित्तीय सहायता प्रदान करना आदि वे प्रमुख प्रस्ताव हैं जिन्हें 16 अगस्त को केंद्र सरकार की मंजूरी मिली।
जाहिर है इन परियोजनाओं में होने वाला सारा व्यय चालू वर्ष के दौरान केंद्र सरकार पर अतिरिक्त बोझ होगा। ऐसा इसलिए कि व्यय का एक हिस्सा राज्यों द्वारा वहन किया जाएगा और आवंटित संसाधनों का बहुत कम हिस्सा मार्च 2021 के पहले व्यय होगा। संभव है कि कुछ परियोजनाओं को पहले ही 2023-24 के बजट में शामिल किया जा चुका हो और ऐसे में केंद्र सरकार की ओर से अतिरिक्त आवंटन न किया जाए।
चाहे जो भी हो, ये घोषणाएं केंद्र सरकार की चुनाव पूर्व कवायद का हिस्सा हो सकती हैं और इनकी मदद से मतदाताओं को सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी की ओर आकर्षित करने की कोशिश की जा सकती है। गत सप्ताह जो घोषणा की गई उसकी अतिरिक्त वित्तीय लागत का प्रबंधन किया जा सकता है। परंतु अगले पांच महीनों में कई विधानसभा चुनाव होने हैं और उनके बाद मई 2024 में आम चुनाव होना है। ऐसे में इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि ऐसी और घोषणाएं नहीं की जाएंगी। दिसंबर 2023 के बाद सभी को खाद्यान्न वितरण योजना का विस्तार या किसानों को आय समर्थन आदि इसकी बानगी हो सकते हैं।
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ऐसे में केंद्रीय वित्त मंत्रालय का इन परियोजनाओं तथा कुछ अन्य आगामी योजनाओं को लेकर चिंतित होना स्वाभाविक है कि इनसे राजकोषीय घाटा, 2023-24 के लिए जीडीपी के 5.9 फीसदी के तय लक्ष्य को पार कर जाएगा। हमें यह याद रखना होगा कि केंद्र का सकल कर राजस्व इस वर्ष की पहली तिमाही में 10 फीसदी के सालाना वृद्धि लक्ष्य की तुलना में केवल 3 फीसदी रहा। विशुद्ध कर राजस्व और कम रहा और उसमें 14 फीसदी की कमी आई। विनिवेश प्राप्तियां वर्ष के शुरुआत में उल्लिखित अनुमान से बहुत कम मिलती नजर आ रही हैं ऐसे में सरकारी क्षेत्र के उच्च लाभांश और भारतीय रिजर्व बैंक से स्थानांतरित उच्च लाभांश के फायदे शायद उस तरह फलीभूत न हो सकें।
इसके बावजूद अगर बढ़ते राजकोषीय घाटे की चिंता के चलते केंद्र के पूंजीगत व्यय की गति पर अंकुश लगाना पड़ा तो यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा। हां, उसे सरकारी व्यय पर नजर रखनी चाहिए। खासतौर पर राजस्व व्यय पर जिसके 2023-24 में केवल 1.4 फीसदी बढ़ने का अनुमान है। यह 2023-24 में 34.52 लाख करोड़ रुपये था। परंतु वर्ष के दौरान 10 लाख करोड़ रुपये के अनुमानित पूंजीगत व्यय से कोई समझौता नहीं किया जाना चाहिए। ऐसी तीन वजह हैं जिनके चलते वित्त मंत्रालय को राजकोषीय घाटा बढ़ने के बाद भी पूंजीगत व्यय के लक्ष्य से पीछे नहीं हटना चाहिए।
पहला, केंद्र ने अब तक पूंजीगत व्यय में उल्लेखनीय गति पकड़ी है। पहली तिमाही में इसमें 59 फीसदी का इजाफा हुआ जो 36 फीसदी के सालाना इजाफे से काफी अधिक है। इस गति से 10 लाख करोड़ रुपये के पूंजीगत व्यय का लक्ष्य पहुंच में नजर आता है। यह राशि जीडीपी के तीन फीसदी के बराबर है।
अप्रैल-जून 2023 में राज्यों के पूंजीगत व्यय में भी काफी इजाफा हुआ है यानी करीब 74 फीसदी का इजाफा। केंद्र ने उन्हें पूंजीगत व्यय के लिए 50 वर्ष का ब्याज रहित ऋण दिया है। 2022-23 में केंद्र सरकार ने राज्यों को ऐसी सहायता के लिए एक लाख करोड़ रुपये की राशि आवंटित की थी लेकिन केवल 81,200 करोड़ रुपये प्रदान किए गए। चालू वित्त वर्ष के पहले चार महीनों के दौरान राज्यों को 30,000 करोड़ रुपये मिल चुके हैं जबकि कुल आवंटन 1.3 लाख करोड़ रुपये का है। केंद्र ने राज्यों के पूंजीगत व्यय के लिए ऋण के रूप में 85,000 करोड़ रुपये देने को मंजूरी दी है। यह सालाना आवंटन का करीब 65 फीसदी है।
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निवेश की यह गति अच्छी है और यह इस बात का द्योतक है कि पूंजीगत परियोजनाओं का क्रियान्वयन सही ढंग से बिना किसी देरी के हो रहा है। ऐसे में सरकार के पूंजीगत व्यय में जो सुधार हुआ है उसे बरकरार रखना होगा तभी भारतीय अर्थव्यवस्था झटकों से बच सकेगी।
दूसरा, केंद्र सरकार ने कोविड महामारी के बाद अपना पूंजीगत व्यय बढ़ाना आरंभ कर दिया। केवल तीन साल में केंद्र सरकार का पूंजीगत व्यय 2020-21 के 4.26 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 2023-24 में 10 लाख करोड़ रुपये पहुंचने की उम्मीद है। ऐसी स्थिर वृद्धि में बीते कुछ सालों में निजी निवेश की स्थिर आवक की अहम भूमिका रही है।
रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक निजी कंपनियों ने 594 परियोजनाओं की निवेश योजना के लिए मंजूरी हासिल की जिसकी लागत 2020-21 में 1.17 लाख करोड़ रुपये थी। 2021-22 में यह बढ़कर 791 परियोजनाओं और 1.96 लाख करोड़ रुपये तक हो गई। अगले वर्ष यह 982 परियोजना और 3.53 लाख करोड़ रुपये जा पहुंची। वर्ष 2022-23 के निवेश के आंकड़े 2014-15 के बाद के उच्चतम आंकड़े हैं। निजी पूंजीगत व्यय में इजाफे के कारण ही चालू वर्ष में पहले ही 1.72 लाख करोड़ रुपये की निवेश प्रतिबद्धता हो चुकी है। यह मानना उचित होगा कि निजी क्षेत्र के निवेश में इस स्थिर सुधार में सरकार के पूंजीगत व्यय की योजना से भी मदद मिली है। सरकार के अपने पूंजी निवेश में कमी न करने के लिए यही वजह पर्याप्त है।
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तीसरा, भारतीय कंपनियों का घरेलू निवेश बढ़ने के बावजूद प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का रुझान ठीक नहीं है। वर्ष 2012-13 के बाद पहली बार 2022-23 में सकल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 16 फीसदी घटकर 71 अरब डॉलर रहा। 2023-24 की पहली तिमाही में भी गिरावट का यह रुझान जारी रहा और ऐसा विदेशी निवेश 22 फीसदी घटकर 18 अरब डॉलर रह गया। अप्रैल-जून 2023 में भारत में विदेशी इक्विटी निवेश भी 33 फीसदी कम हुआ। विपरीत वैश्विक हालात ने न केवल भारत के वस्तु और सेवा निर्यात पर असर डाला है बल्कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की आवक भी प्रभावित हुई है।
ऐसे हालात में सरकार के लिए आवश्यक है कि वह अपने पूंजीगत व्यय को बरकरार रखे। देश का बाहरी क्षेत्र फिलहाल कुछ उम्मीद जगाता है जबकि विदेशी निवेश और निर्यात कमजोर पड़ रहे हैं। ऐसा कोई भी कदम जिसका नतीजा घरेलू निवेश में धीमेपन के रूप में सामने आए, फिर चाहे वह निजी हो या सरकारी, देश की आर्थिक वृद्धि पर उसके कई विपरीत प्रभाव होंगे। सरकार को चालू वर्ष के लिए राजकोषीय घाटे के लक्ष्य पर टिके रहना चाहिए लेकिन उसे यह लक्ष्य हासिल करने के लिए अपने राजस्व व्यय पर लगाम लगानी चाहिए। यह काम निवेश योजना की कीमत पर नहीं होना चाहिए।