यह तो साफ है कि सभी को खुश करने वाले बजट मुश्किल से ही आते हैं। यह भी संभव नहीं लगता कि एक साथ कर भी घटा दिए जाएं, ऋण तथा राजकोषीय घाटा भी कम कर दिया जाए और वृद्धि को बढ़ावा देने वाले क्षेत्रों एवं बुनियादी ढांचे में निवेश भी कर दिया जाए। मगर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2025-26 के केंद्रीय बजट में यह सब साधने की कोशिश की है।
कहीं न कहीं कुछ झोल तो है, जिसे अभी तक कोई पकड़ नहीं पाया है। लगता तो यही है कि आने वाले सालों में हमें पता चल जाएगा कि किसी एक लक्ष्य का हिसाब तो गलत लगाया गया है क्योंकि ये तीनों लक्ष्य एक साथ नहीं चल सकते। तो क्या वृद्धि को सहारा देने के लिए अलग रखी पूंजीगत व्यय की राशि को ही खर्च कर दिया जाएगा? सरकार के पिछले कार्यकाल में सार्वजनिक पूंजीगत व्यय में भारी बढ़ोतरी देखी गई और 2019 में 3 लाख करोड़ रुपये का यह आंकड़ा 2024 में बढ़कर 11 लाख करोड़ रुपये से अधिक हो गया। हो सकता है कि अब इसमें और बढ़ोतरी नहीं की जाए। इसमें दिक्कत तभी हो सकती है, जब पता चले कि 2019 से 2024 के बीच पूंजीगत व्यय में किया गया बेजा इजाफा वृद्धि को 6 फीसदी से ऊपर रखने के लिए जरूरी हो गया है।
बजट में बहुत चतुराई के साथ बताया गया है कि वृद्धि के लिए पूंजीगत व्यय को लगातार बढ़ाते रहना जरूरी नहीं है और ‘मध्य वर्ग’ से मांग वापस आने पर भी ऐसा हो सकता है। अगर मुझे स्पष्ट रूप से पता होता कि भारत का मध्य वर्ग क्या है तो मैं इस बारे में ज्यादा आश्वस्त होता। एक दशक या उससे भी पहले कुछ विदेशी विश्लेषक कहते थे कि मध्य वर्ग वह है, जिसके पास कम से कम दोपहिया वाहन हो। अब तो यह सच नहीं होगा न? आंकड़े देख लेते हैं: संसद में कुछ साल पहले केंद्रीय परिवहन मंत्री ने बताया था कि देश में लगभग 28 करोड़ दोपहिया और चार पहिया वाहन हैं, जो 2020 में 32.6 करोड़ पंजीकृत वाहन होने के उनके मंत्रालय के पिछले अनुमान से अलग था। निजी वाहनों की संख्या जानने के लिए यह आंकड़ा कुछ कम कर दें क्योंकि बिकने वाले हर पांच में से एक चारपहिया वाहन वाणिज्यिक होता है। मध्य वर्ग का आंकड़ा जानने का एक तरीका और है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में भारत मोबिलिटी प्रदर्शनी को संबोधित करते हुए कहा कि उन्होंने लगभग 25 करोड़ लोगों के लिए बाजार खोल दिया है। इन लोगों को वह ‘नव-मध्य वर्ग’ कहते हैं। भारत के असली मध्य वर्ग का यह शायद सही आकलन है।
पुराना मध्य वर्ग वह था, जो तीन दशक पहले वाहन खरीद सकता था और अब वह वर्ग शायद अमीर हो चुका है। दो दशक पहले भारतीय सड़कों पर ऐसे 5-6 करोड़ वाहन थे और 25 करोड़ में ये 5 करोड़ जोड़ दें तो वही आंकड़ा मिल जाएगा।
लेकिन भारत में करीब इतने ही परिवार हैं। आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2022-23 में ऐसे 29.4 करोड़ परिवार थे, जिनमें से 20.6 करोड़ ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। आमतौर पर ऐसे घर ज्यादा नहीं होते, जिनमें कई गाड़ियां हैं। तब क्या हम कह सकते हैं कि भारत में अब हर कोई अब मध्य वर्ग में आ गया है? बिल्कुल नहीं। मगर यह पक्की बात है कि 80 करोड़ से अधिक लोग यानी भारत की लगभग 60 फीसदी आबादी प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत मुफ्त अनाज लेती है। इस 60 फीसदी आबादी को मध्य वर्ग मानना मुश्किल है, इसलिए देश में ज्यादा से ज्यादा 40 फीसदी आबादी मध्य वर्ग की है, जिसमें 60 करोड़ लोग यानी 12 करोड़ से कम परिवार हैं।
लेकिन आज हम दूसरे मध्य वर्ग की बात कर रहे हैं। अगर हम देखें कि कितने लोगों को यह जानने की पड़ी है कि नए बजट के हिसाब से उन्हें कम कर देना पड़ेगा या नहीं तो उनकी संख्या बहुत कम होगी। पिछले साल आयकर रिटर्न दाखिल करने की तय तारीख तक 7.5 करोड़ रिटर्न भरे गए, जिनमें से लगभग 4.7 करोड़ पर कोई कर ही नहीं बना था यानी लगभग 2.7 करोड़ लोगों पर ही इस खबर का असर पड़ेगा। तो क्या प्रत्यक्ष कर देने वाले 3 करोड़ लोग ही मध्य वर्ग हैं? या मध्य वर्ग वे 12 करोड़ परिवार हैं, जो अनाज के लिए सरकार पर निर्भर नहीं हैं? क्या 3 करोड़ लोगों को मध्य वर्ग मान सकते हैं चाहे वे देश की 140 करोड़ की आबादी में सबसे ज्यादा अमीर हों? ऐसे तो ‘मिडल’ की परिभाषा और दायरा कुछ ज्यादा ही बड़ा हो जाएगा।
मंदी से बाहर निकलने के लिए किसी काल्पनिक मध्य वर्ग पर निर्भर हो जाने से पहले हमें इस सवाल का सही जवाब पाना होगा। कर देने वाले 3 करोड़ लोगों के दम पर बढ़ने वाली खपत उस बड़ी आबादी के कारण बढ़ी खपत से काफी अलग होगी, जो मुफ्त खाद्यान्न की पात्र नहीं है। इसके लिए बहुत अलग नीतियों की दरकार होगी और इससे पैदा होने वाली उपभोक्ता मांग पूरी करने के लिए आपूर्ति क्षमता में भी बहुत अलग तरीके से निवेश बढ़ेगा। वृद्धि में दो अलग तरह की बढ़ोतरी हुई तो वह टिक भी अलग-अलग समय तक पाएगी। कम आबादी के बल पर आई वृद्धि शायद ज्यादा तेज होगी मगर थम भी जल्द ही जाएगी।
कर में छूट देना तभी सही है, जब इसके पीछे नैतिक कारण हों जैसे बहुत घटिया सेवाओं के लिए बहुत अधिक कर लिया जाता है। अगर इससे कर प्रक्रिया सरल होती है या कर का दायरा बढ़ता है तब भी इसकी तुक समझाई जा सकती है। लेकिन अगर ऐसा वृद्धि को रफ्तार देने के लिए ही किया जा रहा है तो हमें समझना होगा कि इसके नतीजे अप्रत्याशित होंगे और तब तो ज्याद ही होंगे, जब हमें इन उपायों का लक्ष्य ही सही से नहीं पता हो।
हाल के उदाहरण देखे जा सकते हैं। एनआईपीएफपी की सुरांजलि टंडन ने बताया है कि 2019 में कंपनी कर घटाया गया और एक संसदीय समिति के अनुसार इससे राजस्व में 1.85 लाख करोड़ रुपये की चोट पड़ गई। इससे कंपनियों की सेहत सुधरी और उनके पास नकदी बचने लगी या महामारी के सालों में वे कर्ज संभाल पाईं। किंतु केवल 0.1 फीसदी कंपनियों ने कम करके 15 फीसदी की गई विशेष कर दर के तहत नया निवेश करने की जानकारी दी। हो सकता है कि कम निवेश के पीछे कोविड-19 भी एक वजह हो मगर इसे वजह कहा नहीं जा सकता क्योंकि हाल के दिनों में भी यही नजर आया कि कर कटौती शायद ही वृद्धि को बढ़ावा देने में कारगर रही हो। अमेरिका में ब्रुकिंग्स समेत कई दीर्घकालिक अध्ययनों में ‘इस बात के बहुत कम सबूत मिले हैं कि 1980 से ही कर कटौतियों या कर सुधारों ने वृद्धि दर पर लंबे समय के लिए प्रभाव डाला हो।’
फिर भी कुल मिलाकर हमें ऐसे बजट की सराहना करनी चाहिए, जिसमें नियमन घटाने, आर्थिक उदारता लाने का संकेत है और प्रत्यक्ष करों में सुधार का वादा है। इस बजट में खुश होने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन हमें भावनाओं में बह नहीं जाना चाहिए और यह नहीं मान लेना चाहिए कि ‘मध्य वर्ग’ के लिए कर कटौती से या हमें जो मिला है, उससे अर्थव्यवस्था की वृद्धि की रफ्तार जरूर पटरी पर आ जाएगी।
इस कर कटौती की जिस तरह चर्चा हुई है और इसकी जिस कदर तारीफ की गई है, उसे देखकर लगता है कि मध्य वर्ग की वही परिभाषा सबसे काम की है, जो मैंने दी है। मेरे हिसाब से ‘मध्य वर्ग भारतीयों का वह समूह है, जो हवा का रुख इतनी अच्छी तरह से तय करता है कि जब कोई जुगत काम नहीं करती तो भी सरकार को उसके हितों का ध्यना रखना ही पड़ता है।’