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बैंकिंग साख: जमाओं की होड़ में नए जाल में फंस रहे बैंक

अब देखते हैं कि जमा पर बैंकों की लागत कैसे बढ़ रही है। जून तिमाही में एक बैंक (करूर वैश्य बैंक लिमिटेड) को छोड़कर सभी के चालू एवं बचत खाते (कासा) कम रहे।

Last Updated- August 23, 2024 | 9:40 PM IST
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वित्तीय नतीजों का दौर बीत चुका है। इस वित्त वर्ष की जून तिमाही में कुछ बैंकों को छोड़कर ज्यादातर सूचीबद्ध बैंकों का शुद्ध मुनाफा बढ़िया रहा। पिछले वर्ष की जून तिमाही के मुकाबले उनका कुल शुद्ध लाभ 21.04 फीसदी बढ़ गया। कुछ बैंकों के समूचे कर्ज में फंसे कर्ज की हिस्सेदारी बढ़ी है मगर खतरे की बात नहीं है। बैंकों के मुनाफे के दो अहम पैमाने क्या हैं, जिनसे पता चले कि सब कुछ कब तक अच्छा रहेगा?

अब तक सभी की नजर ऋण की लागत पर थीं। सब देख रहे थे कि फंसा कर्ज कितना घटता या बढ़ता है और ऐसे कर्ज के लिए बैंक कितना इंतजाम करके रखते हैं। बैंकों की अधिक प्रोविजनिंग और अच्छी वसूली से शुद्ध फंसे कर्ज कम होते हैं और उनकी बैलेंस शीट बेहतर होती है। अब पूरा ध्यान जमा की लागत और शुद्ध ब्याज मार्जिन (एनआईएम) पर होना चाहिए। शुद्ध ब्याज मार्जिन बैंक को कर्ज पर होने वाली कमाई और जमा पर होने वाले खर्च के बीच का अंतर होता है।

जून तिमाही में सबसे अधिक 7.6 फीसदी एनआईएम बंधन बैंक लिमिटेड का था। उसके बाद आईडीएफसी फर्स्ट बैंक लिमिटेड (6.22 फीसदी) और आरबीएल बैंक लिमिटेड (5.67 फीसदी) रहे। सबसे कम एनआईएम वाले बैंकों में जम्मू ऐंड कश्मीर बैंक लिमिटेड (0.96 फीसदी), येस बैंक लिमिटेड (2.4 फीसदी) और पंजाब ऐंड सिंध बैंक (2.69 फीसदी) के नाम हैं।

साल भर पहले की तुलना में ज्यादा बैंकों का एनआईएम इस बार जून तिमाही में कम रहा। इससे पिछली तिमाही में भी ऐसा ही हुआ। कुछ बैंकों का एनआईएम तो बहुत गिर गया जैसे आईडीबीआई बैंक लिमिटेड का एनआईएम जून की तिमाही में घटकर 4.18 फीसदी हो गया, जो जनवरी-मार्च तिमाही में 4.91 फीसदी था। कैथलिक सीरियन बैंक लिमिटेड का एनआईएम 5.04 फीसदी से घटकर 4.36 फीसदी रह गया। इसी तरह इंडियन ओवरसीज बैंक का एनआईएम 3.53 फीसदी से घटकर 3.05 फीसदी हो गया।

अब देखते हैं कि जमा पर बैंकों की लागत कैसे बढ़ रही है। जून तिमाही में एक बैंक (करूर वैश्य बैंक लिमिटेड) को छोड़कर सभी के चालू एवं बचत खाते (कासा) कम रहे। कुछ बैंकों के कासा में मार्च तिमाही से तेज गिरावट रही। मिसाल के तौर पर बंधन बैंक का कासा मार्च 37.1 फीसदी से कम होकर जून तिमाही में 33.4 फीसदी रह गया। बैंक ऑफ महाराष्ट्र का कासा 52.73 फीसदी से घटकर 49.86 फीसदी, आईडीबीआई बैंक का 50.43 फीसदी से घटकर 48.57 फीसदी और कैथलिक सीरियन बैंक के लिए 27.2 फीसदी से घटकर 24.9 फीसदी रह गया। करूर वैश्व बैंक की कुल जमा में कासा की हिस्सेदारी बढ़ गई। यह मार्च के 30 फीसदी से बढ़कर 30.37 फीसदी हो गया, लेकिन पिछले साल जून तिमाही के 33 फीसदी से यह कम ही रहा।

कासा बैंकों के लिए दाल-रोटी की तरह है क्योंकि इसी के जरिये उन्हें सस्ती पूंजी मिलती है। बचत खाते पर ब्याज की दर से सरकारी नियंत्रण 2011 में खत्म कर दिया गया मगर ज्यादातर बैंक अब भी बहुत कम ब्याज देते हैं। चालू खाते में रखी गई पूंजी पर कोई ब्याज नहीं मिलता है। इसलिए कासा बढ़ने के साथ बैंकों की पूंजी लागत कम होती है और एनआईएम बढ़ जाता है। जमा के लिए होड़ बढ़ने के साथ ही बैंकों की पूंजी लागत भी बढ़ रही है। कायदे में कर्ज लेने वालों के लिए कर्ज भी महंगा होना चाहिए मगर ऐसा नहीं हो रहा है क्योंकि बैंक एक तरह के जाल में फंस गए हैं।

आंकड़ों पर नजर डालिए। सभी वाणिज्यिक बैंकों के लिए रुपये में नए ऋणों पर भारित औसत उधारी दर (डब्ल्यूएएलआर) मई में 9.39 फीसदी रह गई, जो अप्रैल में 9.55 फीसदी थी। रुपये में बकाया कर्ज पर डब्ल्यूएएलआर में कोई बदलाव नहीं आया और मई में भी यह 9.83 फीसदी ही रही। मई में नई जमाओं पर भारित औसत घरेलू सावधि जमा दर 6.47 फीसदी रही, जो अप्रैल में भी 6.48 फीसदी ही थी। लेकिन मई में ही बकाया जमा पर भारित औसत घरेलू सावधि जमा दर अप्रैल के 6.91 फीसदी से बढ़कर हो गई। आखिर ये आंकड़े क्या कहते हैं? जमाओं की लागत बढ़ रही है मगर ऋण पर कमाई या तो गिर रही है या उतनी ही बनी हुई है। आसान शब्दों में कहें तो बैंक जमा की ऊंची लागत का बोझ अपने कर्जदारों पर नहीं डाल पा रहे हैं। आखिर क्यों? क्योंकि वे फंस गए हैं।

बैंकों के कर्ज को गौर से देखें। बाहरी बेंचमार्क पर आधारित उधारी दरों से जुड़े ऋणों की हिस्सेदारी मार्च में 57.5 फीसदी थी, जो दिसंबर 2023 के 56.9 फीसदी से अधिक है। मार्च में कोष की सीमांत लागत पर आधारित उधारी दर (एमसीएलआर) 38.3 फीसदी थी, जो दिसंबर की 38.8 फीसदी से मामूली कम है। इनके अलावा भी कर्ज हैं, जो आधार दर और बेंचमार्क ऋण दर (बीपीएलआर) से जुड़े हैं और स्थिर दर वाले ऋण भी हैं। इनमें से पहली दो दर अब प्रचलन में नहीं हैं और पुराने कर्ज ही इनसे जुड़े हैं।

दिसंबर 2019 में शुरू की गई ईबीएलआर से जुड़े कर्ज सभी सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) को दिए जाते हैं। खुदरा कर्ज भी इसी से जुड़े होते हैं। बैंक बाहरी बेंचमार्क के तौर पर आम तौर पर रीपो दर का इस्तेमाल करते हैं। रीपो दर में आखिरी बढ़ोतरी फरवरी 2022 में की गई थी। तब से अभी तक 364 दिनों के सरकारी बॉन्डों पर यील्ड लगभग 0.34 फीसदी घट गई है। इसलिए बैंक पूंजी महंगी होने पर भी ईबीएलआर से जुड़े कर्ज पर ब्याज दर नहीं बढ़ा सकते।

किसी भी बैंक को एमसीएलआर से कम ब्याज दर पर कर्ज देने की इजाजत नहीं है और कर्ज लेने वाले के साथ जोखिम बढ़ता है तो एमसीएलआर पर स्प्रेड बढ़ सकता है। हां, स्थिर दर वाले कर्ज एमसीएलआर से नीचे हो सकते हैं।

नीतिगत दरें बढ़ने पर बैंक कर्ज पर ब्याज दरें फौरन बढ़ा देते हैं मगर दरें कम होने पर ऐसा ही करने में देर करते हैं। इसकी वजह यह है कि जमा दरें नीचे लाने के बाद ही वे कर्ज पर ब्याज दर घटाते हैं और यह काम रातोरात नहीं हो सकता क्योंकि नई जमा पर ही ब्याज कम होता है और पुरानी जमा पर ज्यादा ब्याज ही देना पड़ता है।

अब तस्वीर बदल चुकी है। पूंजी के फेर में बैंकों के सामने जमा के लिए ज्यादा ब्याज देने के अलावा कोई और चारा नहीं बचा है। मगर यह बोझ वे कर्जदारों पर नहीं डाल सकते क्योंकि उनके कर्ज ईबीएलआर से जुड़े होते हैं। जब तक जमा आकर्षित करने की होड़ कम नहीं होती तब तक बैंकों को चोट झेलनी ही पड़ेगी। भारतीय बैंकों के लिए यह नई बात है।

(लेखक जन स्मॉल फाइनैंस बैंक लिमिटेड के वरिष्ठ सलाहकार हैं)

First Published - August 23, 2024 | 9:27 PM IST

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