जब लक्ष्य हासिल करना मुश्किल लगता है और वरिष्ठ प्रबंधन तथा ग्राहक दोनों अधीर होते हैं ऐसे में लगातार डर का माहौल बने रहना लाजिमी है और हर बैंकर में इस तरह के प्रतिकूल माहौल में भी टिके रहने और कामयाब होने की हिम्मत नहीं होती।
यह एक ऐसी कहानी है जो प्रमाणिक नहीं है। वर्ष 2009 की गर्मियों के दौरान सैंटा बारबरा कैलिफॉर्निया में एक प्री-किंडरगार्टन स्कूल की निदेशक ने शैक्षणिक वर्ष की शुरुआत में एक परंपरा के रूप में छात्र-छात्राओं को अपना परिचय देने के लिए कहा। ये सभी विद्यार्थी डॉक्टर, वकील, वैज्ञानिक और कारोबारियों के बच्चे थे। जब एक तीन साल की बच्ची ने शर्माते हुए कहा कि उसके पिता पोल डांसर हैं तो सन्नाटा छा गया। निदेशक ने छोटी बच्ची को गले लगाया, उसे चूमा और उसके साहस की बहुत प्रशंसा की क्योंकि इस पेशे को अच्छा नहीं माना जाता था। हालांकि अपनी कक्षा से निकलने से पहले, बच्ची ने उस निदेशक के कान में फुसफुसाया, ‘मिस, मैंने झूठ बोला। मेरे पिताजी बैंकर हैं।’
वर्ष 2008 के लीमन ब्रदर्स के दिवालिया होने के बाद अमेरिका में बैंकिंग बेहतर पेशा नहीं माना जाता है। भारत में भी बैंकिंग पेशा बेहद मुश्किल होता जा रहा है, हालांकि इसके कई अलग-अलग कारण हैं।
गत 19 जुलाई को बैंक राष्ट्रीयकरण दिवस था जिस दिन वर्ष 1969 में कुल जमा का 85 फीसदी रखने वाले 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था। जुलाई में इस दिवस से ठीक दो दिन पहले, पुणे में एक बड़े सरकारी बैंक की बारामती शाखा के 52 वर्षीय मुख्य प्रबंधक ने आत्महत्या कर ली। उन्होंने 11 जुलाई को सेहत संबंधी चिंताओं और कार्यस्थल पर असहनीय तनाव की स्थिति का जिक्र करते हुए इस्तीफा दिया था और वह 90 दिनों की नोटिस पर थे। पिछले साल, एक अन्य सरकारी बैंक के तमिलनाडु के अरक्कोणम में शाखा प्रबंधक ने अपनी पत्नी को काम पर छोड़ने के बाद अपने जन्मदिन पर, घर में फांसी लगा ली। उन्होंने भी काम के दबाव और असहनीय तनावपूर्ण माहौल को इसका कारण बताया।
पिछले 10 साल में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के 500 से ज्यादा अधिकारियों ने आत्महत्या की है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का अनुमान है कि दुनिया भर में सालाना लगभग 7,27,000 लोग आत्महत्या से मरते हैं। वर्ष 2021 के आंकड़ों के अनुसार, वैश्विक आत्महत्या दर प्रति एक लाख की आबादी पर 8.9 है। यानी हर 43 सेकंड में एक आत्महत्या हो रही है।
भारत में, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने वर्ष 2022 में 1,70,924 आत्महत्याएं दर्ज कीं जो इसके पिछले साल से 4.2 फीसदी की वृद्धि को दर्शाता है और 1967 के बाद से यह सबसे अधिक है। भारत की आत्महत्या दर, प्रति एक लाख पर 12.4, वैश्विक औसत से अधिक है।
एनसीआरबी के आंकड़ों में आत्महत्याओं को व्यापक व्यावसायिक समूहों के हिसाब से वर्गीकृत किया गया है। वर्ष 2022 के उपलब्ध अंतिम डेटा के मुताबिक अधिकतम आत्महत्याएं दिहाड़ी मजदूरों (26 फीसदी) में दर्ज की गईं, इसके बाद गृहिणियों (14-15 फीसदी), स्वरोजगार करने वालों (11 फीसदी), बेरोजगार लोगों (9-10 फीसदी), पेशेवर/वेतनभोगी (10 फीसदी), छात्रों (8 फीसदी), और किसानों (7 फीसदी) का स्थान रहा। बैंकर, पेशेवर व वेतनभोगी लोगों की श्रेणी में आते हैं, जिस वर्ग में 2022 में कुल मिलाकर लगभग 17,000 लोगों ने आत्महत्या की।
भारत में बैंकरों द्वारा की गई आत्महत्या में एक सामान्य बात है। इनमें से कई आत्महत्याएं बैंक की शाखा में हुईं और जिन्होंने यह कदम उठाया, उनमें ज्यादातर शाखा प्रबंधक या शाखाओं से जुड़े हुए थे। सवाल यह है कि आखिर सरकारी बैंक के शाखा प्रबंधक इस तरह के कदम उठाने के लिए क्यों मजबूर हो रहे हैं?
आर्थिक रूप से, सरकारी बैंकों के बैंकर को अच्छा माना जाता है। केवल शीर्ष पद के लोग जैसे प्रबंध निदेशक-सह-मुख्य कार्यकारी अधिकारी और कार्यकारी निदेशक ही वास्तव में निजी क्षेत्र के अपने समकक्षों की तुलना में बहुत कम कमाते हैं। बाकी, सरकारी बैंकों के कर्मचारियों का बड़ा हिस्सा, आमतौर पर निजी बैंकों के कर्मचारियों की तुलना में अधिक वेतन पाता है।
इसके अलावा, सरकारी बैंक में नौकरी की सुरक्षा भी होती है। जब तक बैंक के कर्मचारी किसी गंभीर धोखाधड़ी या भ्रष्टाचार के मामले से न जुड़े हों, उन्हें अपनी नौकरी नहीं गंवानी पड़ती है। वे बैंक के सेवा नियमों के तहत सुरक्षित होते हैं। ऐसे में उन्हें काम और जीवन के बीच संतुलन बनाते हुए आनंदपूर्वक रहना चाहिए। इसके बावजूद, कई बैंक कर्मचारी अवसाद से पीड़ित हैं और कुछ इस तरह के अतिवादी कदम उठा लेते हैं। आखिर वे ऐसा क्यों करते हैं? कोई यह तर्क दे सकता है कि हर क्षेत्र में ऐसे कर्मचारी होते हैं जो काम के दबाव का सामना नहीं कर पाते हैं। बैंकों के शीर्ष अधिकारी यह भी तर्क दे सकते हैं कि बैंकों को सेवाओं के लिहाज से ग्राहकों की अपेक्षाओं को पूरा करने, शेयर बाजार में मूल्य के लिहाज से निवेशकों की अपेक्षाओं को पूरा करने के साथ ही वरिष्ठ प्रबंधन, या वित्त मंत्रालय द्वारा निर्धारित लक्ष्यों को भी पूरा करना होता है।
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में, शीर्ष स्तर से बिना सहानुभूति और पर्याप्त सहयोग के लगातार बनाए जा रहे दबाव के भयानक परिणाम सामने आ रहे हैं। इस प्रदर्शन के दबाव से कई सरकारी बैंकों में विषाक्त कार्य संस्कृति और भी बढ़ जाती है। यह एक घातक मिश्रण है, जो लोगों में काम की प्रेरणा ही खत्म कर सकता है और अधिक अवसाद की स्थिति पैदा कर सकता है।
सरकारी बैंकों के पदानुक्रम में शाखा प्रबंधक अहम होते हैं। वे बैंक में व्यावसायिक नतीजे देने और विभिन्न लक्ष्यों को पूरा करने के लिए जवाबदेह होते हैं। उनसे अधिक ऋण देकर ब्याज आमदनी बढ़ाने की उम्मीद की जाती है, जबकि ऋण मूल्यांकन ठीक से न होने पर कर्ज के फंसने का जोखिम भी रहता है। उन्हें पिछले फंसे ऋणों की वसूली भी करनी होती है। उनके सामने कम लागत वाली जमाएं जुटाने की चुनौती भी होती है ताकि फंड की लागत कम हो सके।
इसके अलावा शाखाओं के अधिकारियों से यह उम्मीद की जाती है कि वे थर्ड पार्टी उत्पादों जैसे कि बीमा पॉलिसी और म्युचुअल फंड की बिक्री को बढ़ावा दें ताकि फीस आमदनी बढ़ाई जा सके। हालांकि बैंकिंग नियामक और वित्त मंत्रालय में वित्तीय सेवा विभाग दोनों ने इस पर आपत्ति जताई है, लेकिन थर्ड-पार्टी उत्पादों की बिक्री जारी है।
इसके अलावा बैंकर सतर्कता जांच के अधीन होते हैं और सतर्कता अधिकारी अक्सर जांच के लिए बैंक शाखाओं का दौरा करते हैं। इन दिनों आईटी आदि से जुड़ी बाधाओं के कारण अगर ग्राहकों को सेवा देने थोड़ी भी देरी होती है तो ग्राहक इंतजार नहीं करते बल्कि वापस चले जाते हैं। इससे बैंक कर्मचारियों के प्रति गुस्सा और अविश्वास बढ़ता है।
बैंकों में अवास्तविक लक्ष्य, काम के अधिक घंटे और वरिष्ठ अधिकारियों की तरफ से सहयोग की कमी ने बैंकों में कामकाज के माहौल को प्रभावित किया है। इससे पहले कि बहुत देर हो जाए सरकारी बैंकों को आत्ममंथन करना चाहिए ताकि वे कारोबारी लक्ष्यों का दोबारा मूल्यांकन करने के साथ ही कर्मचारियों की मानसिक सेहत पर भी ध्यान दें।
(लेखक जन स्मॉल फाइनैंस बैंक के वरिष्ठ सलाहकार हैं)