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अमृत कहे जाने वाले डेटा का विश्लेषण और GST नीति

कर सुधार का सुखद अंत उचित नीतिगत सुधारों पर निर्भर करता है, जिसके लिए शोध संस्था द्वारा गहन अंतर्दृष्टि के लिए जीएसटी डेटा के समृद्ध स्रोत का दोहन करने की जरूरत है।

Last Updated- July 17, 2024 | 10:39 PM IST
GST

कहा जाता है कि डेटा ही नया तेल है। यह भी कहा जा सकता है कि डेटा वह अमृत है जिसे नीति निर्माताओं को पीने और पचाने के बाद अच्छी नीति का निर्माण करना चाहिए। अरविंद सुब्रमण्यन और उनकी टीम के हालिया अध्ययन ने वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की शुरुआत की सातवीं वर्षगांठ के अवसर पर इस दावे की सच्चाई सामने ला दी है।

एक निष्कर्ष यह है कि जीएसटी का राजस्व संबंधी प्रदर्शन बढ़ाचढ़ा हुआ है क्योंकि विशुद्ध राजस्व के बजाय सकल राजस्व पर विचार किया गया। ऐसा इसलिए कि एकीकृत जीएसटी यानी आईजीएसटी रीफंड का बड़ा हिस्सा निर्यातकों को रीफंड किया जाता है। यह सकल घरेलू उत्पाद अर्थात जीएसटी के 0.7 से 0.8 फीसदी के बराबर होता है। ऐसे में 2023-24 में जीएसटी-जीडीपी अनुपात जीएसटी के पहले के 6.1 फीसदी के स्तर तक पहुंच गया।

अगर इस बारे में पहले जानकारी होती तो शायद जीएसटी दरों में कमी करने के लिए 2017-18 और 2018-19 में जो प्रयास किए गए वे और अधिक कठोर होते और चुनिंदा वस्तुओं में इजाफा करके दरों में कटौती को संतुलित कर दिया जाता ताकि राजस्व निरपेक्षता बरकरार रहे।

अध्ययन के नतीजों से एक अहम तथ्य सामने आया: हमने जीएसटी डेटा के अहम स्रोत का पूरा उपयोग नहीं किया है। अब वक्त आ गया है कि इसे हमारे विश्वविद्यालयों के तमाम निजी शोध संस्थानों तथा सार्वजनिक फाइनैंस समूहों के लिए खोल दिया जाए। इसमें नीति निर्माण के लिए महत्त्वपूर्ण शोध के क्षेत्र कौन से हैं?

पहला, अंतर्राज्यीय व्यापार का क्षेत्र महत्त्वपूर्ण है। जब जीएसटी के क्रियान्वयन पर बहस हो रही थी, तब यह दावा किया गया था कि प्रवेश शुल्क और चुंगी यानी तथाकथित ‘सीमा कर’ को समाप्त करने से अंतर्राज्यीय व्यापार बढ़ेगा।

द इकनॉमिस्ट ने अपनी हालिया विशेष रिपोर्ट में कहा कि जीडीपी के हिस्से के रूप में अंतर्राज्यीय व्यापार 2017 से 2021 के बीच 23 फीसदी से बढ़कर 31 फीसदी हो गया। हमें आईजीएसटी डेटा तथा अन्य डेटा का इस्तेमाल करके इस दावे की गहराई से पड़ताल करनी होगी। यह जानना जरूरी है कि क्या जीएसटी के बाद भारतीय बाजार का विस्तार हुआ है और किन राज्यों को लाभ हुआ है।

एक अन्य अहम क्षेत्र है छोटे कारोबारों और अर्थव्यवस्था के औपचारिकीकरण की कुल प्रक्रिया पर जीएसटी का प्रभाव। छोटे कारोबारों की श्रेणी में एकरूपता नहीं है। जीएसटी सुधारों के जरिये उन सभी छोटी सेवा कंपनियों की तकदीर सुधरनी चाहिए थी क्योंकि उन्हें पूंजीगत वस्तुओं पर चुकता किए गए कर पर क्रेडिट का उपयोग करने का अवसर मिलना चाहिए था। नीतिनिर्माताओं को जहां इस विश्लेषण की प्रतीक्षा है वहीं सवाल यह है कि हम ऐसा कैसे करेंगे?

पहली बात, दरों को युक्तिसंगत बनानेकी जरूरत है ताकि जीएसटी प्राप्ति में और सुधार हो। जीएसटी अध्ययन सुझाता है कि ‘खराब और नुकसानदेह वस्तुओं’ को जीएसटी दर ढांचे में शामिल करने के बाद भी उपकर जारी रखा जाए। सरकार ने एक मंत्री समूह समिति का गठन किया है जिसकी अध्यक्षता अब बिहार के वित्त मंत्री कर रहे हैं। समिति के सामने एक कठिन काम है। उसे राजस्व निरपेक्षता बरकरार रखने और मुद्रास्फीति के दबाव से बढ़ने के दोहरे दायित्व को निभाना है। समिति के लिए कुछ ठोस विचार इस प्रकार हैं:

पहला, मानक जीएसटी दर को 18 फीसदी से कम करके 16 फीसदी करना चाहिए। यह एक अहम संकेत होगा कि सरकार विनिर्माण और सेवा क्षेत्र दोनों की लागत को कम करना चाहती है। यह जानना जरूरी है कि मानक दर को कम करने के लिए दोनों सिरों पर उत्पादों पर दर बढ़ानी होगी।

जीएसटी राजस्व में नुकसानदेह वस्तुओं पर लगने वाले कर की हिस्सेदारी 16 फीसदी है जिसे 28 फीसदी से बढ़ाकर 40 फीसदी कर दिया जाना चाहिए। 12 फीसदी की दर को 16 फीसदी की दर में मिला दिया जाना चाहिए। कपड़ा और औषधि क्षेत्र को इसका अपवाद माना जा सकता है।

औषधि क्षेत्र के मामले में दरों को 12 फीसदी से कम करके आठ फीसदी किया जा सकता है और कपड़ा क्षेत्र में दरों को 5 से 12 फीसदी के बीच की दर के बजाय आठ फीसदी की एक दर लागू की जा सकती है। स्वर्ण और आभूषणों पर तीन फीसदी की दर को बढ़ाकर 6 फीसदी किया जा सकता है ताकि मानक दर कम करने से होने वाले नुकसान की भरपाई की जा सके।

सभी रियायतों को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना होगा और इन वस्तुओं को 8 फीसदी की दर वाले दायरे में रखना होगा। केवल उन्हीं वस्तुओं को रियायत मिलनी चाहिए जिन्हें जीएसटी के पहले के दौर में मूल्यवर्धित कर से रियायत मिलती थी।

आखिर में जीएसटी के तहत हर प्रकार की रियायत कम करने की आवश्यकता है। यह समझने की जरूरत है कि रियायतें अंतत: नुकसानदेह साबित होती हैं क्योंकि वे कारोबारों को इनपुट कर क्रेडिट से वंचित करती हैं।

एक अन्य लाभ यह होगा कि कर चोरी में कमी आएगी, क्योंकि अक्सर छूट प्राप्त इकाइयों के नाम पर अक्सर फर्जी चालान जारी किए जाते हैं। ऐसे में 8 फीसदी, 16 फीसदी और 40 फीसदी के स्लैब के साथ तीन स्तरीय जीएसटी ढांचा तथा सीमित रियायतें जीएसटी राजस्व बढ़ाएंगी और मानक दर में कमी के साथ विनिर्माण को गति देंगी। दरों को तार्किक बनाने की इस कवायद को आपूर्ति पक्ष पर पुनर्गठित टैरिफ नीति द्वारा पूरक बनाने की आवश्यकता होगी।

जैसा कि प्रमुख अर्थशास्त्रियों ने कहा है, यह जरूरी है कि सीमा शुल्क की दर को वर्तमान 18 प्रतिशत से घटाकर 10 प्रतिशत या उससे कम किया जाना चाहिए। इसके तहत हम तीन स्तरीय संरचना बना सकते हैं जिसमें कच्चे माल पर सबसे कम दर, मध्यवर्ती वस्तुओं पर थोड़ी अधिक दर तथा तैयार माल पर सबसे अधिक दर होगी। इससे इनवर्टेड ड्यूटी ढांचे में सुधार होगा और अहम कच्चा माल तथा घटक हमारे विनिर्माण उद्योग को मिल सकेंगे। इन बदलावों को आगामी बजट में भी अंजाम दिया जा सकता है।

जीएसटी कर सुधारों को अगर इस ढंग से अंजाम दिया गया तो ये कर-जीडीपी अनुपात को मौजूदा 18 फीसदी से बढ़ाकर 20 फीसदी तक पहुंचा सकते हैं। बेहतर कर-जीडीपी अनुपात सरकार को प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में व्यय बढ़ाने में मदद करेगा, मसलन स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में।

कुल मिलाकर अगर समुचित नीतिगत सुधार किए जाएं तो जीएसटी का सुखद समापन हो सकता है। इससे विनिर्माण के क्षेत्र में भी एक तरह का पुनर्जागरण आएगा। खासतौर पर श्रम गहन विनिर्माण में क्योंकि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को कपड़ा, जूते-चप्पल, हल्की इंजीनियरिंग और खाद्य प्रसंस्करण जैसे क्षेत्रों में बढ़ावा मिलता है। इससे इन क्षेत्रों के लिए भी मारुति जैसा अवसर बना सकता है। केवल तभी हम जनांकिकीय लाभ मिल सकेगा। हमारे नीति निर्माताओं का देश के युवाओं के प्रति यह दायित्व है।

(लेखक सीबीआईसी के सदस्य रह चुके हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)

First Published - July 17, 2024 | 10:39 PM IST

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