केंद्र सरकार के नीति निर्माता उत्साहित नजर आ रहे हैं। संसद द्वारा पांच साल पहले पारित चार श्रम संहिताओं को लेकर हाल ही में जारी की गई अधिसूचना शायद इस नतीजे पर पहुंचने की सबसे ताजा वजह है। यकीनन बहु-प्रतीक्षित श्रम संहिताओं को अधिसूचित किया जाना जिनमें 29 वर्तमान श्रम कानूनों को सरलीकृत करने और उपयुक्त बनाने के बाद समाहित किया गया है, यह मानने का उचित कारण है कि नरेंद्र मोदी सरकार अतीत की तुलना में सुधारों को लेकर अधिक अनुकूल है।
परंतु अर्थव्यवस्था में सुधारों की जरूरत के प्रति सरकार के प्रयास में आया बदलाव उतना सरल नहीं है जितना विश्लेषकों ने अब तक समझा है। बीते दिनों श्रम संहिताओं के साथ जो हुआ, वह भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था और उसके आर्थिक सुधारों की गति के बीच बदले हुए समीकरण का भी प्रतिबिंब है। यह परिवर्तन धीरे-धीरे हुआ है, जिसकी शुरुआत जून 2024 में तीसरी बार मोदी सरकार के गठन के तुरंत बाद हुई थी। इसके स्वरूप और चरित्र तुरंत स्पष्ट नहीं थे लेकिन जब आप पिछले 17 महीनों में सरकार द्वारा लिए गए अनेक निर्णयों पर नजर डालते हैं, तो यह बदलाव अब स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा है।
मोदी सरकार के गठन के करीब दो महीने बाद विभिन्न केंद्रीय मंत्रालयों में कई वरिष्ठ पदों पर ऐसे लोगों को नियुक्त किया गया जो सरकारी व्यवस्था से बाहर के थे। सरकार की लैटरल-एंट्री योजना के तहत 45 पदों के लिए आवेदन आमंत्रित करने वाली एक अधिसूचना 17 अगस्त, 2024 को जारी की गई थी। लेकिन दो दिन बाद, इस विचार का सरकार के भीतर और बाहर राजनीतिक विरोध तेज होने पर वह अधिसूचना वापस ले ली गई। वह अधिसूचना केवल वापस नहीं ली गई, बल्कि निजी क्षेत्र की प्रतिभा को शामिल करके सिविल सेवा को मजबूत करने का पूरा विचार ही दफन कर दिया गया। यह सुधारों के लिए एक झटका था, जिसने यह संदेश दिया कि सरकार ऐसे किसी सुधार को अपनाना नहीं चाहती जो अफसरशाहों को नाराज कर सकता हो।
उसी महीने के अंत में हालात थोड़ा बदले। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने यूनिफाइड पेंशन स्कीम (यूपीएस) शुरू करने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी ताकि सरकारी कर्मचारियों को राष्ट्रीय पेंशन प्रणाली (एनपीएस) का विकल्प दिया जा सके। एनपीएस कई राज्यों में इसलिए निशाने पर थी क्योंकि वह गारंटीड पेंशन की पेशकश नहीं करती थी। इसके विपरीत यूपीएस में सेवा के अंतिम महीने में मिलने वाले औसत मासिक वेतन के 50 फीसदी के बराबर गारंटीड पेंशन की बात कही गई। परंतु राजकोष पर इसके असर को कम करने के लिए अन्य कई अर्हताओं में परिवर्तन किया गया।
शुरुआत में आशंका थी कि यूपीएस को राजनीतिक प्रतिरोध का सामना करना होगा और यह सरकारी कर्मचारियों की चिंताओं को दूर करने में कामयाब नहीं हो सकेगा। परंतु वे डर निराधार साबित हुए। इसकी कई वजहें थीं। कांग्रेस अध्यक्ष और पार्टी के अन्य प्रमुख लोगों ने यूपीएस पर निर्णय का स्वागत किया था। कैबिनेट बैठक में यूपीएस को मंजूरी मिलने के तुरंत बाद पीएम मोदी ने केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों के लिए संयुक्त परामर्श मशीनरी के एक प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात की। उस प्रतिनिधिमंडल ने कर्मचारियों को सुनिश्चित पेंशन देने की इस पहल का स्वागत किया। राष्ट्रीय ट्रेड यूनियनों ने चुप्पी साधे रखी, और अप्रैल 2025 से इसका क्रियान्वयन अब तक सुचारु रूप से चल रहा है।
एनपीएस से यूपीएस में आने का विकल्प शुरू में कर्मचारियों के लिए केवल तीन महीने, यानी जून 2025 के अंत तक ही उपलब्ध था। इसके बाद इसे दो बार बढ़ाया गया और अब यह विकल्प चुनने का अंतिम दिन इसी महीने का अंत है। लेकिन अधिकांश केंद्रीय सरकारी कर्मचारी एनपीएस में ही बने हुए हैं, और सितंबर 2025 के अंत तक 23 लाख कर्मचारियों में से केवल लगभग 1 लाख ने यूपीएस को चुना है। केवल महाराष्ट्र ने यूपीएस को अपनाया है, जबकि अधिकांश अन्य राज्यों ने कोई बदलाव नहीं किया है। एनपीएस से यूपीएस में आने की अंतिम तारीख फिर से बढ़ाई जा सकती है, लेकिन जो एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा प्रतीत हो रहा था, उसे बहुत कम राजनीतिक विरोध और सीमित वित्तीय लागत के साथ संभाल लिया गया है।
पिछले 17 महीनों में उन योजनाओं को धीरे-धीरे टालने और पीछे धकेलने की प्रवृत्ति देखी गई है, जो संरक्षणवादी स्वभाव की रही हैं। इसके अलावा वित्त मंत्रालय द्वारा कई आयात शुल्कों को युक्तिसंगत बनाया गया है, जो एक लगातार चलने वाली कवायद का हिस्सा प्रतीत होता है। अगस्त 2023 में सरकार ने लैपटॉप, पर्सनल कंप्यूटर, टैबलेट और कंप्यूटर सर्वर के आयात पर लाइसेंस संबंधी प्रतिबंधों की घोषणा की थी। लेकिन उपयोगकर्ताओं और उद्योग के लिए राहत की बात यह रही कि इन प्रतिबंधों के लागू होने को कम से कम चार बार टाला गया है, और नवीनतम विस्तार दिसंबर 2025 के अंत तक है। सरकार के वर्तमान रुख को देखते हुए, आने वाले महीनों में आयात प्रबंधन प्रणाली लागू होने की संभावना कम है। लेकिन यह तथ्य चिंता का कारण है कि ऐसी योजना अभी भी कागज पर मौजूद है।
गुणवत्ता नियंत्रण आदेशों (क्यूसीओ) के विचार के प्रति सरकार का रुख कुछ अधिक आश्वस्त करने वाला रहा। हाल तक, 2016 से 2025 के बीच लगभग 720 क्यूसीओ जारी किए गए थे। मूल रूप से क्यूसीओ का उद्देश्य उन उत्पादों में गुणवत्ता मानकों को सुनिश्चित करना था जो आयात के माध्यम से देश में आते हैं। लेकिन समय के साथ ये गैर-शुल्क बाधाएं बनाने का आसान साधन बन गए। जब क्यूसीओ को कच्चे माल और मध्यवर्ती उत्पादों पर लागू किया गया, तो इसने घरेलू उद्योग की प्रतिस्पर्धात्मकता को भी कमजोर किया।
यह दर्शाते हुए कि पिछले कुछ महीनों में मोदी सरकार का दृष्टिकोण कैसे बदला है, एक उच्च-स्तरीय आधिकारिक समिति ने 208 क्यूसीओ को वापस लेने की सिफारिश की है, जो सभी कच्चे माल और मध्यवर्ती उत्पादों पर लागू किए गए थे। क्यूसीओ के मोर्चे पर कार्रवाई तेज रही है। अब तक 69 क्यूसीओ निलंबित किए जा चुके हैं, जिससे यह संभावना मज़बूत हो गई है कि कच्चे माल और मध्यवर्ती उत्पादों पर लागू अधिकांश क्यूसीओ जल्द ही वापस ले लिए जाएंगे।
ये सभी बदलाव ऐसे माहौल में हो रहे हैं जहां सरकार ने कराधान व्यवस्था को भी थोड़ा अनुकूल बना दिया है। सालाना 12 लाख रुपये तक की आय को लगभग कर मुक्त कर दिया गया है और माल एवं सेवा कर यानी जीएसटी को भी बहुत हद तक युक्तिसंगत बनाया जा चुका है। इसमें करदाताओं का पंजीयन आसान किया गया है और नई व्यवस्था ने लोगों और कारोबार का बोझ कम किया है। सरकार यह संदेश देने में भी कामयाब रही है कि उसका जोर उन सुधारों पर है जो कारोबारी सुगमता बढ़ाने वाले हैं।
सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अब समितियां नियमों और विनियमों को सरल बनाने के लिए काम कर रही हैं ताकि वे कम बोझिल हों। यदि सरकार कई क्षेत्रों में सुधार लागू करने और समस्याग्रस्त योजनाओं को वापस लेने या टालने में सफल रही है, तो इसका मुख्य कारण यह है कि उसने हितधारकों के साथ समिति-आधारित दृष्टिकोण के माध्यम से जुड़ने का निर्णय लिया है। सरकार की राजनीतिक अर्थव्यवस्था प्रबंधन का यही पहलू हाल के सुधारात्मक कदमों की श्रृंखला का कारण बना है और इसने आने वाले महीनों में और अधिक सुधारों की उम्मीदें बढ़ा दी हैं।