Small Cap Fund: स्मॉलकैप फंड्स को हाई रिस्क और हाई रिटर्न वाला फंड माना जाता है। आमतौर पर रिटेल निवेशक स्मॉलकैप फंड्स में निवेश को जोखिम भरा मानते है, क्योंकि इन फंड्स में भारी उतार-चढ़ाव देखने को मिलता है। एक्सपर्ट्स भी लगातार दोहराते है कि इन फंड्स में उन्हीं निवेशकों को दांव लगाना चाहिए, जिनकी जोखिम सहने की क्षमता ज्यादा है। लेकिन AMFI और ACE MF के अक्टूबर 2025 तक के आंकड़ों के आधार पर वेंचुरा सिक्योरिटीज की नई रिपोर्ट कुछ अलग ही तस्वीर दिखाती है।
रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के स्मॉलकैप फंड न सिर्फ ज्यादा मजबूत और योजनाबद्ध हैं, बल्कि इनमें लिक्विडिटी और डायवर्सिफिकेशन का भी खास ध्यान रखा जाता है। यानी खुदरा निवेशक जिस तरह के जोखिम की कल्पना करते हैं, हकीकत उससे काफी अलग है। दिलचस्प बात यह है कि रिटर्न पिछले साल काफी कम हुए हैं, इसके बावजूद स्मॉल-कैप फंड्स में पैसों की आवक लगातार बढ़ रही है।
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वेंचुरा सिक्योरिटीज के जुज़र गबाजीवाला साफ कहते हैं कि स्मॉल कैप की असली दुनिया और खुदरा निवेशकों की सोच में जमीन-आसमान का अंतर है।
आम धारणा के विपरीत, स्मॉलकैप म्युचुअल फंड किसी अज्ञात या बहुत छोटी कंपनियों पर दांव नहीं लगाते। वे ऐसी कंपनियों में निवेश करते हैं जिनका बिजनेस स्थिर हो और जिनकी ग्रोथ की संभावनाएं अच्छी हों।
करीब 83% स्मॉलकैप फंड पोर्टफोलियो में वे शेयर शामिल हैं जिनकी रैंक 1 से 750 के बीच है।
लगभग 63% निवेश स्मॉलकैप (रैंक 251–750) कंपनियों में होता है।
करीब 20% पैसा बड़ी और मिड-कैप (रैंक 1–250) कंपनियों में लगाया जाता है, यानी जिनका मार्केट कैप 30,000 करोड़ रुपये से ज्यादा है।
लगभग 7% राशि नकद रूप में रखी जाती है, क्योंकि लिक्विडिटी बहुत जरूरी है।
इससे साफ संकेत मिलता है कि स्मॉलकैप फंड माइक्रो-कैप के रोमांच पर आधारित निवेश नहीं हैं। वे लिक्विडिटी, स्थिरता और ग्रोथ का संतुलित मिश्रण हैं — और उतने जोखिम भरे नहीं, जितना लोग समझते हैं।
भारत की 251वीं रैंक वाली कंपनियों की बाजार हैसियत (MCap) लगभग 30,400 करोड़ रुपये है। जबकि 750वीं रैंक वाली कंपनी का मार्केट कैप भी करीब 4,900 करोड़ रुपये है। यानी ये कंपनियां बिल्कुल भी “बहुत छोटी” नहीं हैं। दरअसल, आज की कई स्मॉल-कैप कंपनियां कुछ साल पहले मिड-कैप या बड़ी कंपनियां हुआ करती थीं। यह इस बात का संकेत है कि पिछले एक दशक में भारत का मार्केट कैप बड़े पैमाने पर बढ़ा है।
कुछ कंपनियां ऐसी हैं, जिनका नाम आम निवेशकों के बीच काफी लोकप्रिय है। कई बार निवेशक उन कंपनियों को मिड या लार्ज कैप कंपनियों जैसा मान लेते हैं, लेकिन असल में ये आधिकारिक रूप से स्मॉल-कैप कंपनियां हैं।
उदाहरण के लिए- CDSL, गिलेट, NBCC, PNB हाउसिंग फाइनेंस, वॉकहार्ड्ट, ईस्ट इंडिया होटल्स, एंजल वन, टाटा केमिकल्स आदि। यानी, नाम बड़े होने के बावजूद, इनका मार्केट कैप स्मॉल-कैप कैटेगरी में आता है।
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स्मॉलकैप का असली मतलब समझने में आम निवेशकों और फंड मैनेजर्स के बीच बड़ा फर्क है। कई बार खुदरा निवेशक 25,000 करोड़ रुपये वाली कंपनी को मिड-कैप समझते हैं। लेकिन म्युचुअल फंड इसे स्मॉलकैप मानते हैं।
वहीं, दूसरी तरफ जब खुदरा निवेशक स्मॉलकैप कहते हैं, तो वे अक्सर 1,000 करोड़ रुपये वाली कंपनी की बात करते हैं। फंड हाउस इसे माइक्रो-कैप मानते हैं, जिसे ज्यादातर स्मॉलकैप फंड लिक्विडिटी रिस्क के कारण निवेश से बचते हैं।
यानी, दोनों लोग “स्मॉलकैप” की बात करते हैं, लेकिन पूरी तरह अलग कंपनियों की दुनिया को देख रहे होते हैं।
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इस वित्तीय वर्ष में स्मॉल-कैप फंड्स के रिटर्न थोड़े कम रहे हैं — औसत 1 साल का रिटर्न करीब 3% रहा। लेकिन निवेशकों ने अपने कदम पीछे नहीं खीचें। रिटर्न धीमे रहे, लेकिन निवेश बढ़ते गए। इस साल 30,555 करोड़ रुपये आए, जबकि पिछले साल इसी समय ₹19,358 करोड़ रुपये का निवेश आया था।
गबाजीवाला ने कहा, “स्मॉल-कैप कंपनियां छोटी दिखती हैं, लेकिन ये काफी डायवर्स होती हैं और बाजार में सबसे व्यापक सेक्टर कवरेज रखती हैं। ये लिक्विडिटी बफर का उपयोग करती हैं, शॉर्ट टर्म में उतार-चढ़ाव रह सकता है, लेकिन लॉन्ग टर्म में अच्छा रिटर्न (अल्फा) दे सकती हैं।”
उन्होंने आगे कहा कि स्मॉलकैप फंड्स में कम से कम 5 साल के लिए निवेश करना चाहिए।