देश में इलेक्ट्रॉनिक विनिर्माण को बढ़ावा देने के एक और प्रयास के रूप में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने बुधवार को सूचना-प्रौद्योगिकी (आईटी) हार्डवेयर के लिए उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना- 2.0 पर मुहर लगा दी। इस योजना के लिए 17,000 करोड़ रुपये का बजट प्रावधान किया गया है।
सरकार ने इस योजना के पिछले स्वरूप के लिए 7,325 करोड़ रुपये का प्रावधान किया था। इस योजना का उद्देश्य लैपटॉप, टैबलेट, पर्सनल कंप्यूटर और आधुनिक कंप्यूटिंग उपकरणों के उत्पादन को प्रोत्साहित करना है। इस योजना की अवधि भी चार वर्षों से बढ़ाकर छह वर्षों तक कर दी गई है। योजना के पिछले संस्करण में औसत 2 प्रतिशत प्रोत्साहन दिया जा रहा था जिसे अब बढ़ाकर 5 प्रतिशत कर दिया गया है।
जो कंपनियां स्थानीय कल-पुर्जों का इस्तेमाल करती हैं उन्हें अतिरिक्त प्रोत्साहन दिया जाएगा। कुल मिलाकर, इन सभी प्रावधानों से प्रोत्साहन बिक्री का 8-9 प्रतिशत तक हो सकता है। इस योजना में कुछ बदलावों के साथ सरकार तय अवधि में आईटी हार्डवेयर क्षेत्र में 2,430 करोड़ रुपये का निवेश आने की उम्मीद कर रही है। सरकार यह भी उम्मीद कर रही है कि संशोधित योजना से 75,000 प्रत्यक्ष रोजगार सृजित होंगे और उत्पादन मूल्य 3.55 लाख करोड़ रुपये तक बढ़ जाएगा।
सरकार की मंशा बिल्कुल साफ है कि वह इलेक्ट्रॉनिक विनिर्माण को बढ़ावा देना चाहती है। इस कदम से न केवल आयात पर भारत की निर्भरता कम हो जाएगी बल्कि देश में रोजगार के नए अवसर भी सृजित होंगे। इस योजना के उद्देश्य के साथ कोई त्रुटि नहीं है क्योंकि भारत को श्रम बाजार में तेजी से बढ़ रहे लोगों के लिए बड़े पैमाने पर विनिर्माण से जुड़े रोजगार सृजित करने होंगे।
मगर सरकार ने जो दिशा चुनी है वह उलझन में डाल देती है। जैसा कि सरकार ने कहा है देश में पिछले आठ वर्षों के दौरान इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं का विनिर्माण सालाना 17 प्रतिशत चक्रवृद्धि दर से बढ़ा है। अनुमान है कि इन वस्तुओं का सालाना उत्पादन मूल्य 10.5 अरब डॉलर (9 लाख करोड़ रुपये) पार कर गया है। इस ओर सभी का ध्यान गया है कि वैश्विक कंपनियों के लिए भारत विश्वसनीय आपूर्ति व्यवस्था साझेदार बन गया है। बड़ी कंपनियां भारत में निवेश करने में अधिक रुचि ले रही हैं।
इन बातों के परिप्रेक्ष्य में यह प्रश्न पूछना उचित जान पड़ता है कि जब यह क्षेत्र अच्छी रफ्तार से आगे बढ़ रहा है और कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां निवेश के लिए तैयार हैं तो सरकार वित्तीय प्रोत्साहन क्यों बढ़ा रही है? अगर निवेशक भारत में निवेश करने के लिए तैयार थे तो इस योजना के पिछले संस्करण ने उम्मीद के अनुसार नतीजे क्यों नहीं दिए और क्या बजट आवंटन बढ़ाने से काम आसान हो जाएगा?
उदाहरण के लिए इस समाचार पत्र में कुछ दिनों पहले प्रकाशित एक रिपोर्ट में जिक्र किया गया था कि वर्ष 2025-26 तक इलेक्ट्रॉनिक विनिर्माण का लक्ष्य एक बड़े अंतर से चूक जाएगा। निर्यात तय लक्ष्य का लगभग 53 से 55 प्रतिशत के बीच होगा। विशेषकर, आईटी हार्डवेयर में 25 अरब डॉलर के लक्ष्य की तुलना में वास्तविक उत्पादन केवल लगभग 6 अरब डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है। ये बातें योजना में संशोधन का कारण आंशिक रूप से ही स्पष्ट कर पाती हैं।
वृहद स्तर पर बजट आवंटन सबसे बड़ी चिंता की बात नहीं हो सकती है। पीएलआई योजना की शुरुआत के समय कुछ अर्थशास्त्रियों ने निवेश आकर्षित करने के लिए इस तरह राजकोषीय समर्थन बढ़ाने को लेकर जो चिंता जताई थी वह वाजिब थी। मगर वास्तविक वित्तीय समर्थन अब तक सीमित रहा है। विभिन्न क्षेत्रों में कंपनियों का खराब प्रदर्शन कुछ हद तक इसके लिए जिम्मेदार है।
पीएलआई पर निर्भरता अब नीतिगत स्तर पर सबसे बड़ा जोखिम हो गई है। आवंटन में बढ़ोतरी कुछ ऐसा ही संकेत दे रही है। इससे देश में बड़े एवं विविध विनिर्माण केंद्र तैयार करने के लिए आवश्यक बातों से ध्यान विचलित हो सकता है। निवेश संबंधी निर्णयों को कई बातें प्रभावित करती हैं और वित्तीय प्रोत्साहन भी उनमें एक हैं। अब तक जो अनुभव एवं नतीजे दिखे हैं उनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि नीति निर्धारकों को इस बात का आकलन करना चाहिए कि क्या यह योजना दीर्घकालिक निवेश को बढ़ावा देने में कारगर होगी और बड़े व्यापार समझौतों के प्रति भारत की हिचकिचाहट दूर करेगी या नहीं? वर्तमान में जो दिख रहा है उससे इस प्रश्न का कोई ठोस उत्तर नहीं मिल पा रहा है।