हल्द्वानी, जामनगर, मेरठ, अमृतसर, प्रयागराज और देश के दूसरे छोटे-मझोले शहरों में आजकल इन विट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) यानी कृत्रिम गर्भाधान कराने वाले क्लिनिकों के चमचमाते विज्ञापन और बड़े-बड़े होर्डिंग खूब नजर आ रहे हैं। वजह आईवीएफ केंद्र चलाने वाली कंपनियां हैं, जो बड़े शहरों से बाहर निकलकर छोटे-मझोले शहरों में संभावनाएं टटोल रही हैं क्योंकि वहां के लोग भी कृत्रिम गर्भाधान या बांझपन जैसी समस्या से छुटकारे के विकल्प तलाशने में जुटे हैं।
नोवा आईवीएफ फर्टिलिटी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) शोभित अग्रवाल ने कहा, ‘देश में अब हर छह में से एक जोड़ा बांझपन की समस्या से जूझ रहा है। ऐसे जोड़ों की मदद के लिए फर्टिलिटी चेन के विस्तार की आवश्यकता है।’ अभी छोटे और मझोले शहरों में करीब 30 केंद्र चला रही बिड़ला फर्टिलिटी ऐंड आईवीएफ चालू वित्त वर्ष में कम से कम 15-16 नए केंद्र खोलने की योजना पर काम कर रही है।
इनमें से दो-तिहाई छोटे शहरों मे होंगे। इसी तरह करीब 40 फीसदी राजस्व छोटे-मझोले शहरों से जुटाने वाली नोवा आईवीएफ भी हल्द्वानी, जामनगर और मेरठ जैसी 15 जगहों पर विस्तार की संभावनाएं तलाश रही है। देश में बांझपन का इलाज करने वाली सबसे बड़ी श्रृंखला इंदिरा आईवीएफ ने भी अगले वित्त वर्ष तक 25 से ज्यादा छोटे शहरों में अपने क्लिनिक खोलने की योजना का ऐलान किया है।
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) की हाल में जारी रिपोर्ट के मुताबिक भारत की कुल प्रजनन दर घटकर 1.9 बच्चे प्रति महिला रह गई है, जबकि देश की जनसंख्या को इसी स्तर पर बनाए रखने के लिए प्रति महिला 2.1 बच्चों की दर चाहिए। इतनी दर रही तो हर साल होने वाली मौतों के बाद भी जनसंख्या जस की तस बनी रहेगी। यह रिपोर्ट राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के पांचवे दौर के अनुरूप है, जिसमें 2019 से 2021 के बीच देश में प्रजनन दर 2 बच्चे प्रति महिला बताई गई थी।
इस सर्वेक्षण में यह भी बताया गया कि ग्रामीण क्षेत्रों में प्रजनन दर ज्यादा घटी है। 1992-92 में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के पहले दौर में इन क्षेत्रों में प्रजनन दर 3.7 थी, जो अब घटकर 2.1 रह गई। शहरी क्षेत्रों में उस समय दर 2.7 थी, जो अब घटकर 1.6 रह गई है। हालांकि बांझपन ही प्रजनन दर में कमी का इकलौता कारण नहीं है मगर विशेषज्ञों का कहना है कि बदलती जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों, तनाव और जलवायु परिवर्तन के कारण अब छोटे शहरों में भी ऐसे मामले बढ़ रहे हैं। बिड़ला फर्टिलिटी के अग्रवाल ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया कि आईवीएफ उपचार के लिए आने वाले 50 प्रतिशत से अधिक लोग सिलीगुड़ी, वाराणसी और प्रयागराज जैसे शहरों से हैं।
उन्होंने कहा, ‘महानगरों में आईवीएफ केंद्रों पर महिलाएं देर से मां बनने के लिए एग फ्रीजिंग जैसी प्रक्रियाओं के बारे मे ज्यादा पूछताछ कर रही हैं। मगर छोटे-मझोले शहरों में आईवीएफ के विस्तार की प्रबल संभावनाएं दिख रही हैं।’अग्रवाल ने कहा कि मझोले शहरों में आईवीएफ श्रृंखलाओं के विस्तार का एक कारण यह भी है कि बांझपन के उपचार के लिए कई लोगों को बड़े शहर जाना मुनासिब भी नहीं लगता। वहां सफर और ठहरने पर अच्छा खासा खर्च होता है तथा कामकाज का हर्जा भी होता है।
देश में इस समय सालाना दो-ढाई लाख जोड़े संतान के लिए आईवीएफ तकनीक का सहारा ले रहे हैं। वर्ष 2030 तक यह आंकड़ा 4 लाख हो जाने का अनुमान है। इसमें छोटे शहरों से आने वाले जोड़ों की हिस्सेदारी अच्छी-खासी होगी।