जिस विषय पर मैं लिख रहा हूं वह पुराना तो है पर अभी हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने मयूरी यीस्ट इंडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में जो फैसला सुनाया है उससे यह विषय एक बार फिर चर्चा में आ गया है।
यूपी ट्रेड टैक्स ऐक्ट, 1948 के तहत आने वाला यह मामला इस बारे में था कि क्या खमीर को रसायन की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। जब इस मामले की सुनवाई की जा रही थी तो उन सबूतों को लेकर सवाल उठ खड़े हुए जिनके बलबूते पर यह कहा जा सकता था कि खमीर रसायन है या नहीं। किसकी जिम्मेदारी है कि वह इसका प्रमाण दे कि खमीर रसायन है या नहीं।
राजस्व विभाग की यह दलील थी कि भारतीय साक्ष्य कानून की धारा 101 के तहत जिन प्रावधानों का उल्लेख है उसके अनुसार यह करदाता की जिम्मेदारी है कि वह इन साक्ष्यों को पेश करने का बीड़ा उठाए। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह महसूस किया कि, ‘साक्ष्य कानून के प्रावधान इस मामले में लागू नहीं होते हैं।’ मैं इन्हीं सब विषयों पर अपनी राय व्यक्त करने जा रहा हूं। मेरा मानना है कि भारतीय साक्ष्य कानून निश्चित तौर पर वित्तीय इकाइयों पर भी लागू होता है।
उच्चतम न्यायालय का यह सामान्य नजरिया कि साक्ष्य कानून इस मामले में लागू नहीं होता (निश्चित तौर पर वित्तीय इकाइयों पर) उसके खुद के पहले के फैसलों पर आधारित नहीं है जिनमें कहा गया था कि सामान्य इकाइयों से वित्तीय इकाइयों को अलग नहीं किया जा सकता। सीआईटी बनाम शहजादा नंद ऐंड सन्स के मामले में अदालत को लगा कि, ‘चाहे सामान्य हो या वित्तीय इकाइयां सभी के लिए संरचना के मूलभूत नियम एक जैसे ही हैं।’
वहीं कमिश्नर ऑफ वेल्थ टैक्स बनाम एच बेगम के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने लॉर्ड रसेल ऑफ किलोवेन इन एटोमी जनरल बनाम कार्लटन बैंक की सुनवाई के फैसले का उल्लेख किया था। कार्लटन बैंक फैसले के आधार पर ही उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाया था जिसमें कहा गया था, ‘मुझे समझ नहीं आती कि क्यों संसद के किसी कानून में संरचना के कुछ और तत्वों को जोड़ना जरूरी है। और मुझे यह भी समझ में नहीं आता कि आखिर क्यों किसी को ऐसा लगता है कि टैक्सिंग ऐक्ट को दूसरे ऐक्ट से अलग हटकर तैयार किया जाना चाहिए।
मेरे विचार से अदालत का दायित्व हर मामले में एक जैसा ही होना चाहिए, चाहे वह ऐक्ट कर के किसी मामले में तैयार किया जा रहा हो या फिर किसी अन्य मसले पर।’ अभी हम मयूरी यीस्ट बनाम यूपी राज्य के जिस मामले की चर्चा कर रहे हैं उसमें उच्चतम न्यायालय का जो नजरिया था वह साक्ष्यों के प्रमाणीकरण को लेकर था। इसी वजह से उच्चतम न्यायालय का यह मानना होगा कि भारतीय साक्ष्य कानून की धारा 101 का इस विषय पर कुछ लेना देना है। यह धारा इस मामले में लागू नहीं होती है।
अगर सर्वोच्च न्यायालय का जो नजरिया था उसे इतने में समेट कर भी देखा जाए तो भी अन्य मसलों पर दिए गए फैसलों से इसका तालमेल बैठता नहीं दिखता है। अब हम देखते हैं कि धारा 101 में क्या प्रावधान है: ‘जिस किसी की भी यह चाहत है कि अदालत इस मसले से जुड़े विषय पर कोई कानूनी प्रतिक्रिया दे तो उसे इस बात की भी व्यवस्था करनी होगी कि वह जिन मुद्दों पर बहस कर रहा है उसके साक्ष्य उसके पास मौजूद हों। विभाग वर्गीकरण के लिए बुनियादी तथ्यों की मांग कर सकता है।
और अपवाद की स्थिति में यह जिम्मेदारी कर अदाकर्ता की होती है।कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अगर धारा 101 के बारे में उच्चतम न्यायालय के नजरिये को सामान्य नजरिये की श्रेणी में रखा जाए तो अदालतों ने अब तक जो फैसले सुनाए हैं यह उनके विपरीत होगा। और अगर यह कहा जाए कि यह नजरिया साक्ष्य के प्रमाणीकरण को लेकर है तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि यह बोझ वित्तीय इकाइयों पर लागू नहीं होता। बस इतना है कि इनमें कुछ परिवर्तन किया गया है।