वाणिज्य मंत्री कमलनाथ का मानना है कि वैश्विक वित्तीय बाजारों में आई मंदी की वजह से विकसित देशों में मांग घटेगी और इससे भारतीय निर्यात पर चोट पहुंचेगी।
साथ ही उन्हें यह भी लगता है कि मौजूदा वित्त वर्ष में 200 अरब डॉलर के निर्यात लक्ष्य को पाना भी मुमकिन नहीं होगा। निर्यात विकास को बनाए रखने के लिए उन्होंने वित्तीय उपायों वाले पैकेज की बात की है।
मंत्रालय ने कई निर्यात उत्पादों पर से डीईपीबी (डयूटी इनटाइटलमेंट पासबुक) की दर में कटौती की घोषणा की है और लगभग दो हफ्तों के बाद ही वाणिज्य मंत्री ने निर्यातकों के लिए इन रियायतों की बात की है। इसी साल अगस्त में वित्त मंत्रालय ने बहुत से उत्पादों पर लगने वाली डयूटी ड्रॉबैक दरें कम की है
जिसमें श्रम क्षेत्र (जैसे टेक्सटाइल और टेक्सटाइल उत्पाद, धातु और धातु के उत्पाद, साइकिल और साइकिल के पुर्जे) से जुड़े उत्पाद भी शामिल हैं। कुछ क्षेत्रों को निर्यात ऋण की ब्याज दरों में मिलने वाली अतिरिक्त छूट को सितंबर में खत्म कर दिया गया था।
रुपये के कमजोर पड़ने, लागत मूल्य में कमी, कमोडिटी की कीमतों, महंगाई दर, समुद्री माल भाड़ा और शुल्क दरों की वजह से यह कदम उठाया गया था। पिछले साल के आंकड़ों को उठाकर देखें तो निर्यात 162.9 अरब डॉलर का रहा था।
निर्यात को बढ़ावा देने में इंजीनियरिंग उत्पादों (27.34 फीसदी), पेट्रोलियम उत्पादों (51.97 फीसदी), रत्न और आभूषण (23.27 फीसदी), कृषि और संबंधित उत्पादों (55.51 फीसदी) और खनिज और अयस्कों (30.34 फीसदी) का खासा योगदान रहा है।
वर्ष 2006-07 में अमेरिकी डॉलर की तुलना में रुपये के कमजोर पड़ने की वजह से टेक्सटाइल, हस्तशिल्प और खेल से जुड़े उत्पादों के निर्यात पर खासा प्रभाव पड़ा था, पर 2007-08 में इसमें थोड़ा सुधार देखा गया।
इस साल सितंबर 2008 तक निर्यात 94.973 अरब डॉलर का रहा है जो वर्ष 2007 में अप्रैल और सितंबर के बीच 72.556 अरब डॉलर रहा था।
यानी डॉलर के संदर्भ में निर्यात में 30.9 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई। हालांकि अक्टूबर 2008 में निर्यात में ऋणात्मक विकास के शुरुआती संकेतों ने चिंता बढ़ा दी है और ऐसा माना जा रहा है कि आने वाले महीनों में यह निर्यात दर में और गिरावट आ सकती है जिससे रोजगार भी प्रभावित होगा।
निर्यातकों की शिकायत है कि मांग में कमी आई है, उपभोक्ता यह आग्रह कर रहे हैं कि उन्होंने उत्पादों की खरीद के लिए जो समझौते पहले से कर रखे हैं उनकी डिलीवरी फिलहाल रोक ली जाए, उपभोक्ता पुरानी खरीद का भुगतान या तो देर से कर रहे हैं या फिर कर ही नहीं रहे हैं।
इसके साथ ही जिन देशों में प्रतियोगिता बहुत अधिक है वहां कीमतों में भारी कटौती की जा रही है, बैंकों के लिए ऋण फंसने का खतरा बढ़ता जा रहा है, बैंकों द्वारा प्राइम लेंडिंग दर बढ़ाने से ऋण भी महंगा हो गया है। इस तरह कुल मिलाकर वित्तीय बाजार में अनिश्चितता का माहौल है।
साफ है कि सरकार इन सारी समस्याओं का निपटारा नहीं कर सकती है। अगर सरकार वित्तीय रियायतें देती भी है तो भी वह विकसित देशों में सुस्त पड़ी मांग को बढ़ा नहीं सकती। न ही वह ऐसी कोई व्यवस्था कर सकती है कि उपभोक्ता उत्पाद की डिलीवरी लेने को तैयार हो जाएं या फिर तुरंत भुगतान करने लगें।
ईपीसीजी (निर्यात संवर्द्धन पूंजीगत सामान ) योजना के तहत शुल्क को 3 फीसदी से घटाकर शून्य तक लाया जा सकता है। ऐसी व्यवस्था की जा सकती है कि उत्पाद और सीमा शुल्क के रिफंड जल्द से जल्द मिल सकें।
डीएफआरएस योजना को फिर से पेश किया जा सकता है। इन उपायों से बहुत अधिक खर्च को बोझ तो नहीं पड़ेगा पर निर्यातकों को भारी राहत मिल सकेगी।