वर्ष 2005 में कांग्रेस को कुछ समय के लिए क्षणिक खुशी रही थी कि वह सुधार प्रक्रियाओं की गाड़ी को एक बार फिर रफ्तार देगी, पर लंबे समय तक यह खुशी पार्टी के चेहरे पर बनी नहीं रह पाई।
कांग्रेस ने साल 1991 में आर्थिक सुधारों की नींव रखी थी। पर इस बार कांग्रेस की सहयोगी राजनीतिक पार्टियां ही पार्टी की योजनाओं के खिलाफ आवाज बुलंद करने लगीं। विनिवेश की प्रक्रिया को भी विराम लग गया।
ऐसी उम्मीद की जा रही थी कि कांग्रेस की सरकार के आते ही बैंकिंग सुधारों की प्रक्रिया और उससे संबंधित विधेयक भी एक साल के भीतर मंजूर हो जाएंगे, लेकिन ये विधेयक भी ठंडे बस्ते में चले गए हैं। बैंकिंग सुधार प्रक्रिया में बैंकिंग विनियमन कानून की धारा 12 (2) में संशोधन का प्रस्ताव भी चर्चा में रहा।
इसमें यह बात कही गई है कि बैंकों को भी अपनी हिस्से की पूंजी का जिक्र उसी प्रकार करना चाहिए, जिस प्रकार एक छोटी कंपनी अपनी पूंजी हिस्सेदारी का ब्योरा पेश करती है। इसमें उस रोक को भी वापस लेने की बात कही गई जिसके तहत 10 फीसदी की इक्विटी होल्डिंग होने के बावजूद वोट करने के अधिकार नहीं दिए जाते थे।
यह मामला सदन की स्थायी समिति को सौंप दिया गया था और कहा गया था कि समिति इन मसलों पर गंभीरता से हर पक्ष को देखे। इसमें वित्त मंत्रालय, बहुत सारे निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को अपने समर्थन में कुछ कहने के लिए भी शामिल किया गया था।
अगर कोई यह समझना चाहता है कि आखिर इन बैंकिंग सुधारों के पीछे किस तरह की प्रक्रिया काम कर रही है और उसकी उपादेयता क्या है, तो उसे तीन दशक पीछे जाना होगा, जब निजी बैंको का भारत में राष्ट्रीयकरण किया गया था।
उस समय जब बैंकों के राष्ट्रीयकरण की बात चल रही थी, तो वह वित्तीय संभावनाओं के अतिरिक्त अन्य प्रकार के प्रावधानों पर आधारित थी। वर्ष 1969 में भारत के 14 बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था और बाद में वर्ष 1980 में 6 और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था। जो विदेशी बैंक उस समय भारत में अपना संचालन कर रहे थे, उसे अपना काम जारी रखने को कहा गया।
शुरूआती दौर में ये बैंक उपभोक्ताओं की रुचियों का ख्याल रख रहे थे और वर्ष 1990 तक उनका विकास दर 4 फीसदी के आसपास था। उस दौरान कर्ज लेने और देने के लिए 4 से 6 फीसदी की दर पर ब्याज लगता था और बैंकों में काम के घंटे भी कुछ इतने ही थे।
दरअसल बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पीछे मुख्य उद्देश्य बैंकिंग सुविधाओं को उन लोगों तक पहुंचाना था जिन्हें अब तक इनका फायदा नहीं मिला था। साथ ही एक उद्देश्य यह भी था कि ग्रामीण और अर्द्ध-शहरी इलाकों में क्रेडिट का विस्तार किया जाए। उपभोक्ताओं का आत्मविश्वास बैंकिग सेवाओं की ओर बढ़े, यह भी एक उद्दश्य था।
इसमें कोई शक नहीं कि सिंडिकेट के विरोध के बावजूद बैंकों के राष्ट्रीयकरण का यह ठोस कदम तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की दूरदर्शिता का ही परिणाम था। वैसे इस उपलब्धि के जरिये जो विस्तार की बात की गई थी, वह तो उतना सफल नहीं हो पाया और बैंकों की सेवाओं और क्षमताओं में लगातार गिरावट होती गई।
बैंकों के लाभ में समानुपातिक तौर पर कमी होती गई और राजनीतिक छत्र छाया में फंडों का दुरुपयोग किया जाने लगा। वैसे ये सारी बातें बैंकिंग मर्यादा के खिलाफ थीं। एक तरफ प्रतिस्पर्धा बढ़ रही थी और दूसरी तरफ कर्ज को बेतरतीब ढंग से माफ किया जा रहा था। बैंक की बैलेंस शीट पर घाटा बढ़ता जा रहा था। राजस्व घाटा कुलांचे मार रहा था और भुगतान की स्थिति काफी कठिन हो गई थी।
उस समय ऐसा वक्त आ गया था कि इन सारी चीजों से मुक्ति पाई जाए और वैश्विक अर्थव्यवस्था से संबद्ध हुआ जाए। वर्ष 1990 के शुरूआती दिनों में कांग्रेस सरकार ने छोटे-छोटे बैंकों को लाइसेंस देकर बैंक सुधार की प्रक्रिया का आगाज किया था। यह विकास के रास्ते पर बढ़ाया गया एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण कदम था।
इस कदम के जरिये विदेशी बैंकों, सरकारी बैंकों और निजी बैंकों को साथ मिलाकर विकास की एक नई कहानी गढ़ने की पहल की गई। इसके बाद नरसिम्हन कमिटी की रिपोर्ट के बाद में बैंकिंग सुधारों की प्रक्रियाओं को क्रियान्वित किया गया। नरसिम्हन कमिटी ने 1992 और 1998 में अपनी रिपोर्ट पेश की और इस आधार पर बैंकिंग सुधार की बयार चली। बैंकिंग क्षेत्रों में सॉफ्टवेयर और टेलीकॉम क्रांति आ गई।
कनेक्टिविटी और तकनीकी विकास ने उपभोक्ताओं को इतनी सहूलियत दे दी कि उन्हें बैंकिंग सेवाओं का लाभ उठाने के लिए हर समय खुद बैंकों का चक्कर नहीं लगाना पड़ता था। नीति नियंताओं ने यह निर्णय लिया कि अब और बैंकों का राष्ट्रीयकरण न किया जाए और आईसीआईसीआई और एचडीएफसी जैसे बैंकों ने निजी बैंकिंग क्षेत्र में एक मिसाल कायम की।
भारतीय बैंकिंग की दुनिया में लोन और मोर्गेज के लिए आकर्षक पैकेजों को लाया गया। बैंकिंग कोर प्रतिस्पर्धा के लिए अधिग्रहण और गठजोड़, चार्टर्ड एकाउंटेंट और एटॉर्नी जनरल आदि को पूरी तौर पर प्रक्रियाओं में शामिल करने की वजह से कार्यप्रणाली में काफी परिवर्तन आया।
एसएआरएफएईएसआई को धन्यवाद, जिसकी वजह से भारतीय बैंकों की बैलेंस शीट काफी स्पष्ट होती गई और प्रतिस्पर्धा से लड़ने के लिए आत्मविश्वास बढ़ता गया। वर्तमान परिपेक्ष्य में, जब विदेशी संस्थागत निवेश तथा म्युचुअल फंड बैंकिंग और पूंजी बाजार तंत्र में एक अहम भूमिका अदा करते हैं, ऐसे में अगर 10 प्रतिशत प्रतिबंध को खत्म कर दिया जाए, तो और ज्यादा पूंजी की उगाही संभव हो पाएगी।