भारत को अनाज के आयातक से गेहूं और चावल के सबसे बड़े उत्पादक देश में बदलने में अपनी अहम भूमिका निभाने वाले देश के प्रमुख कृषि वैज्ञानिक डॉ. एमएस स्वामीनाथन का गुरुवार को निधन हो गया। वह 98 वर्ष के थे। स्वामीनाथन को देश में ‘हरित क्रांति’ लाने का श्रेय दिया जाता है जिसकी बदौलत भारत के अनाज का उत्पादन अभूतपूर्व स्तर पर बढ़ा।
कई विश्लेषकों का कहना है कि उनका योगदान केवल फसलों की पैदावार में सुधार करने तक ही सीमित नहीं था बल्कि उन्होंने देश के कृषि क्षेत्र में विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की अहमियत को भी प्रमुखता से स्थापित करने की कोशिश की। स्वामीनाथन ने अपने कार्यकाल के दौरान, कई विभागों में विभिन्न पदों पर आसीन होकर अपना योगदान दिया और उनकी पहचान भारत तथा विदेश में कई अग्रणी संस्थानों के निर्माता के रूप में रही है।
स्वामीनाथन को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (1961-72) का निदेशक, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) का महानिदेशक बनाया गया। इसके अलावा उन्हें कृषि अनुसंधान और शिक्षा विभाग (1972-79) में भारत सरकार का सचिव, कृषि मंत्रालय (1979-80) में प्रधान सचिव, योजना आयोग (1980-82) में कार्यवाहक उपाध्यक्ष और बाद में सदस्य (विज्ञान और कृषि) बनाया गया और साथ ही वह अंतरराष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान, फिलिपींस (1982-88) में महानिदेशक नियुक्त हुए।
हरित क्रांति
हरित क्रांति की शुरुआत वर्ष 1965-66 के आसपास शुरू हुई। बढ़ती आबादी के चलते वर्ष 1965-66 और 1966-67 में भारत में प्रति व्यक्ति सालाना खाद्यान्न उत्पादन 151 किलोग्राम रह गया था जो वर्ष 1961-62 में लगभग 190 किलोग्राम तक था।
उस वक्त खाद्यान्न का संकट ऐसा था कि भारत को पीएल-480 योजना के तहत अमेरिका के गेहूं आयात पर निर्भर रहना पड़ा। वर्ष 1966 में हालात ऐसे बन गए कि 1 करोड़ टन से अधिक गेहूं का आयात करना पड़ा था।
देश में शुरू हुई ‘हरित क्रांति’ के पांच मुख्य आधार की बात करें तो इनमें, मजबूत अनुसंधान एवं विकास, न्यूनतम समर्थन मूल्य की प्रणाली के माध्यम से फसल उत्पादकों को बेहतर कीमतों का आश्वासन, खुले बाजार के माध्यम से साल में और अलग-अलग वर्षों में कीमतों में स्थिरता, बफर स्टॉक का प्रबंधन, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से खाद्यान्नों का प्रभावी तरीके से वितरण जैसे पहलू शामिल हैं।
जब भारत अपने खाद्य उत्पादन को बढ़ाने की योजना बना रहा था ठीक उसी दौरान मैक्सिको में इंटरनैशनल मेज ऐंड व्हीट रिसर्च सेंटर (सीआईएमएमवाईटी) ने गेहूं की अधिक पैदावार वाली किस्म तैयार की जो किसी रोग का शिकार होने के खतरे से बाहर थी।
इसके बाद फिलिपींस में इंटरनैशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट ने भी चावल की ऐसी किस्म तैयार करने में सफलता पाई। इधर डॉ. एमएस स्वामीनाथन जैसे दूरदर्शी कृषि वैज्ञानिक के नेतृत्व में भारत भी अनाज उत्पादन को बढ़ाने के लिए काफी उत्सुकता दिखा रहा था।
सीआईएमएमवाईटी के तत्कालीन निदेशक और नोबेल पुरस्कार विजेता नॉर्मन बोरलॉग की मदद से भारत ने गेहूं की ज्यादा पैदावार वाली किस्मों को पहले उगाना शुरू किया और इसके बाद चावल की किस्मों को अपनाया गया।
गंगा के मैदानी इलाकों के पूरे उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र यानी पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पहले से ही सिंचाई की व्यवस्था काफी बेहतर थी। इन राज्यों में खेती को लेकर भी ज्यादा जुड़ाव है ऐसे में इन क्षेत्रों को इस तकनीक पर अमल करने के लिए सबसे उपयुक्त पाया गया और इन्हीं क्षेत्रों में इसे सबसे पहले अपनाया गया।
इसके नतीजे जल्द ही दिखने लगे और इस सफलता में एक मजबूत खरीद प्रणाली का योगदान भी था। वर्ष 1966-67 से 1971-72 तक, भारत का गेहूं उत्पादन 1.1 करोड़ टन से बढ़कर दोगुने से अधिक करीब 2.3 करोड़ टन हो गया। नई तकनीक अपनाने के पहले पांच वर्षों के दौरान चावल का उत्पादन 3.3 करोड़ टन से 30 प्रतिशत बढ़कर 4.2 टन हो गया।
देश में हरित क्रांति तकनीक को अपनाए जाने के बाद से ही भारत को कभी खाद्य सुरक्षा के संकट का सामना नहीं करना पड़ा, भले ही इसकी आबादी 1966 के शुरुआती दौर के 50 करोड़ से बढ़कर वर्ष 2010 तक 112 करोड़ से अधिक हो गई।
हालांकि स्वामीनाथन ने 1968 में ही किसानों से अपील की थी कि वे अल्पकालिक लाभ के लिए दीर्घकालिक उत्पादन क्षमता को नुकसान न पहुंचाएं और उन्होंने किसानों को हरित क्रांति को लालच क्रांति में बदलने के लोभ से बचने का मशविरा भी दिया था। बाद में उन्होंने इसे ‘सदा-हरित क्रांति’ कहना भी शुरू कर दिया।
वर्ष 2004 में, स्वामीनाथन को राष्ट्रीय किसान आयोग (एनसीएफ) का अध्यक्ष बनाया गया जो देश में किसानों की आत्महत्या से जुड़े बढ़ते मामलों के बीच किसानों के संकट का जायजा लेने के लिए बना था।
आयोग ने 2006 में अपनी रिपोर्ट दी और अपनी सिफारिशों में सुझाव दिया कि न्यूनतम बिक्री मूल्य (एमएसपी) उत्पादन की औसत लागत से कम से कम 50 प्रतिशत अधिक होना चाहिए।
एमएसपी आयोग
18 नवंबर, 2004 को तत्कालीन सरकार ने डॉ. एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में राष्ट्रीय किसान आयोग (एनसीएफ) का गठन किया था। एनसीएफ ने दिसंबर 2004, अगस्त 2005, दिसंबर 2005 और अप्रैल 2006 में चार रिपोर्ट दी। पांचवीं और अंतिम रिपोर्ट 4 अक्टूबर, 2006 को दी गई थी।