बिहार में लाखों लोग आजकल उन 11 दस्तावेजों को जुटाने की जद्दोजहद कर रहे हैं, जो निर्वाचन आयोग ने इस साल होने वाले विधान सभा चुनावों से पहले मतदाता सूची सत्यापन के लिए मांगे हैं। आयोग मतदाता सूची के सत्यापन के लिए विशेष गहन पुनरीक्षण अभियान चला रहा है, जिसका मकसद लंबे समय से मौजूद समस्याएं खत्म करना है।
इस अभियान का सबसे बड़ा मकसद अवैध विदेशी आप्रवासियों या घुसपैठियों के नाम मतदाता सूची से हटाना है। साथ ही इसके जरिये उन लोगों के नाम भी मतदाता सूची से हटाए जाएंगे, जो दूसरे राज्यों में चले गए हैं या जिनकी मौत हो चुकी है। मगर आलोचक इस पर सवाल खड़े कर रहे हैं। इनमें चुनाव आयोग के पूर्व अधिकारी भी हैं, प्रदेश के विपक्षी दल भी हैं और वे सामाजिक संगठन भी हैं, जिन्होंने उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की है।
आलोचकों की दलील है कि इसके लिए इतने कम प्रकार के दस्तावेज स्वीकार किए जा रहे हैं कि बड़ी तादाद में लोगों के पास उन्हें जुटना मुश्किल हो जाएगा। साथ ही उन्हें इस अभियान के समय पर भी आपत्ति है। उनका कहना है कि आयोग की कवायद तब हो रही है, जब राज्य में चुनाव केवल तीन-चार महीने दूर हैं। इस तरह यह गरीब, ग्रामीण और हाशिये के मतदाताओं को बड़े पैमाने पर मताधिकार से वंचित करने की साजिश है।
निर्वाचन आयोग ने शनिवार को विशेष गहन पुनरीक्षण के आंकड़े जारी किए। ये आंकड़े 19 जुलाई तक के थे और बिहार के 78,969,844 मतदाताओं (24 जून, 2025 को) में से 75,746,821 मतदाता इसमें शामिल थे। इस प्रकार आयोग को 95.92 फीसदी मतदाताओं के फॉर्म मिल गए हैं।
आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि निर्वाचन आयोग को अब तक करीब 32.3 लाख मतदाताओं के यानी 4.08 फीसदी फॉर्म नहीं मिले हैं। मगर आयोग के सूत्रों का कहना है कि पुनरीक्षण खत्म होने में अभी 6 दिन का वक्त है और तब तक पूरे फॉर्म आ जाने का उन्हें भरोसा है।
निर्वाचन आयोग ने शनिवार को प्रेस विज्ञप्ति जारी कर कहा कि उस शाम तक हुए विशेष गहन पुनरीक्षण के दौरान 41,64,814 यानी 5.27 फीसदी मतदाता रिकॉर्ड में दर्ज अपने पतों पर नहीं मिले थे। विज्ञप्ति में आशंका जताई गई कि उनमें से 14.2 लाख यानी करीब 1.81 फीसदी मतदाताओं की संभवतः मृत्यु हो चुकी है।
मगर लोगों और आलोचकों की चिंता का बड़ा कारण वे दस्तावेज हैं, जो विशेष गहन पुनरीक्षण के लिए निर्वाचन आयोग ने मांगे हैं। उनमें जन्म प्रमाणपत्र, 1 जुलाई, 1987 से पहले जारी हुए पासपोर्ट, सरकार द्वारा जारी सेवा पहचान पत्र, दसवीं परीक्षा पास होने का प्रमाण पत्र, जाति प्रमाण पत्र और वन अधिकार दावे शामिल हैं। लेकिन आधार कार्ड, राशन कार्ड और मतदाता पहचान पत्र स्वीकार नहीं किए जा रहे हैं, जिस कारण निर्वाचन आयोग की आलोचना हो रही है। विपक्षी दलों का कहना है कि निर्वाचन आयोग के पैमाने बहुत सख्त हैं और आम जिंदगी की हकीकत से कोसों दूर हैं।
बिहार में 2022-23 के बाद के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं और उस साल के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में पांच साल से कम उम्र के 81.4 फीसदी बच्चों का जन्म पंजीकरण हुआ है, जबकि राष्ट्रीय औसत 89.4 फीसदी है। पंजीकरण में 99 फीसदी के साथ तमिलनाडु सबसे आगे है, जिसके बाद 98.7 फीसदी के साथ केरल और 98.4 फीसदी के साथ गुजरात आता है। बिहार के पड़ोसी राज्य झारखंड में यह आंकड़ा 78.9 फीसदी और उत्तर प्रदेश में 75.9 फीसदी है। पंजीकरण से पता चलता है कि राज्य के कितने लोग अपनी उम्र, पहचान अथवा निवास स्थान साबित करने के लिए आधिकारिक तौर पर अपना जन्म प्रमाण पत्र दे पाएंगे।
राष्ट्रीय नागरिक पंजीकरण प्रणाली के आंकड़ों के मुताबिक 2000 में बिहार में केवल 3.7 फीसदी बच्चों का ही पंजीकरण हुआ था। आंकड़ा 2007 तक बढ़कर 26.2 फीसदी हो गया मगर पूरे देश में सबसे कम था। उत्तर प्रदेश में 2000 में यह संख्या 37.2 फीसदी थी, जो 2007 में उछलकर 61.6 फीसदी हो गई। उस साल राष्ट्रीय औसत 74.5 फीसदी था। 2007 में जन्म लेने वाले लोगों की उम्र इस साल 18 साल हो जाएगी और वे पहली बार मतदान करेंगे। मगर बिहार और उत्तर प्रदेश में इस उम्र के ज्यादातर लोगों के पास मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने के लिए जन्म प्रमाण पत्र शायद नहीं होंगे।
आधार का इस्तेमाल पूरे देश में बड़े पैमाने पर होता है मगर निर्वाचन आयोग के निर्देश के मुताबिक विशेष गहन पुनरीक्षण में इसे स्वीकार नहीं किया जा रहा है। बिहार में 87.9 फीसदी लोगों के पास आधार है, जो जन्म पंजीकरण कराने वाले 81.4 फीसदी लोगों से ज्यादा हैं। देश भर में 94.4 फीसदी आबादी के पास आधार है। मगर कई राज्यों में प्रवासियों के कारण या दो आधार होने के कारण कुल आबादी से भी अधिक आधार जारी हो चुके हैं। दिल्ली में 103.6 फीसदी आबादी और केरल में 104.9 फीसदी आबादी के पास आधार है।
2023 तक बिहार में 27.44 लाख पासपोर्ट जारी किए गए थे, जो आंकड़ा राज्य की 10.4 करोड़ आबादी का केवल 2 फीसदी बैठता है। सरकारी नौकरी वालों के पहचान पत्र भी बहुत कम हैं। बिहार जातिगत सर्वेक्षण 2022 के मुताबिक राज्य की सिर्फ 1.57 फीसदी आबादी ही सरकारी नौकरी में है। बिहार के 14.71 फीसदी लोगों ने ही दसवीं तक पढ़ाई की है, इसलिए विशेष पुनरीक्षण के दौरान शैक्षिक प्रमाणपत्र देने में भी दिक्कत आ सकती है। वन अधिकार अधिनियम के तहत सिर्फ 4,696 दावे किए हैं और उनमें से भी 191 को ही मंजूरी दी गई है। इसके अलावा राष्ट्रीय सामाजिक आर्थिक और जातिगत जनगणना 2011 से पता चलता है कि बिहार में 65.58 फीसदी ग्रामीण परिवारों के पास अपनी जमीन नहीं है। इसलिए उनके पास एक और कागज कम हो जाएगा।
इधर चुनाव आयोग के अधिकारी वंचित समुदायों के लोगों को मताधिकार से वंचित किए जाने के डर को पूरी तरह निराधार ठहरा रहे हैं। उनका कहना है कि हाशिये के समुदाय यानी अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति एवं जनजाति के जाति प्रमाणपत्र को विशेष गहन पुनरीक्षण अभियान में स्वीकर किया जा रहा है। हां, अगर उन जातियों के लोगों के पास यह प्रमाणपत्र है ही नहीं तो दिक्कत होना लाजिमी है।
ऐसे में नजर इस बात पर रहेंगी कि इस हफ्ते के अंत में जब विशेष गहन पुनरीक्षण अभियान पूरा होता है और 1 अगस्त को नई मतदाता सूची प्रकाशित होती है तो बड़े पैमाने पर लोगों को मताधिकार से वंचित किए जाने की अभी जताई जा रही आशंका सही साबित होती है या नहीं। क्या गरीबों, भूमिहीन लोगों और कम औपचारिक शिक्षा पाने वालों का मत देने का अधिकार वाकई छीन लिया जाएगा?
लेकिन यहां ध्यान रखने की बात यह भी है कि 1 अगस्त से 1 सितंबर तक पूरा एक महीना मतदाता सूची पर आपत्ति दर्ज कराने या अपने मताधिकार का दावा करने के लिए दिया जाएगा। ऐसे में कमजोर और गरीब तबके के लोग इस एक महीने का फायदा उठाकर कागज जुटाते हुए अपना मताधिकार सुरक्षित रख पाते हैं या नहीं, यह पता चलने में अभी समय है।