अगर हम एक आम निवेशक की बात करें तो वे शेयर बाजार में हो रहे उथल-पुथल को देख कर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर इसमें निवेश करने से कतराते हैं।
शेयरों में निवेश करने से क्या नफा-नुकसान हो सकता है, इससे अधिकांश निवेशक अवगत होते हैं। हिम्मत कर ज्यादा लाभ कमाने के चक्कर में शेयर बाजार में निवेश करने से होने वाले नुकसान को झेलने की क्षमता को ही हम जोखिम उठाने की क्षमता कहते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि किसी भी निवेशक को अपने जोखिम उठाने की क्षमता के अनुरूप ही निवेश करना चाहिए। ये जोखिम भी मूलत: दो प्रकार के होते हैं। आइए, आज हम इन्हीं जोखिमों के बारे में विस्तार से जानते हैं।
सिस्टेमेटिक जोखिम (रिस्क)
इस प्रकार के जोखिम, अर्थ-तंत्र को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण कारकों जैसे कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय नीतियां, रोजगार-दर, महंगाई की दर और इसके बढ़ने या घटने की गति आदि से सीधे तौर पर प्रभावित होते हैं। साधारणतया, निवेशक ऐसे रिस्क से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते क्योंकि इसका प्रभाव प्राय: सभी प्रकार के परिसंपत्ति वर्गों पर होता है। अर्थव्यवस्था भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं रहता है।
अनसिस्टेमेटिक रिस्क
इस प्रकार के रिस्क एक विशेष परिसंपत्ति वर्ग (एसेट क्लास) को प्रभावित करता है। इससे निबटने का सबसे बेहतर तरीका है, विशाखन (डाइवर्सिफिकेशन)। गौर करने लायक बात यह है कि विशाखन परिसंपत्ति वर्गों में होनी चाहिए न कि परिसंपत्तियों में। उदाहरण के लिए, आप अपने पोर्टफोलियो को, बैंक की जमा योजनाओं, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के बॉन्ड, रियल एस्टेट और इक्विटी में भली प्रकार बांट सकते हैं।
इस प्रकार निवेश करने से, मान लें कि रियल एस्टेट के मूल्यों में अचानक गिरावट आ गई, तो आपके पोर्टफोलियो के अन्य परिसंपत्ति-वर्ग आपकी पूंजी को डूबने से बचा लेते हैं। हालांकि, एक ही परिसंपत्ति वर्ग के बीच विशाखन (जैसे ऑटो सेक्टर के विभिन्न कंपनियों के शेयर खरीदना) अनसिस्टेमेटिक रिस्क से निबटने में प्रभावी नहीं होता है।
एक बात से तो सभी निवेशक सहमत होंगे कि ऋण की अपेक्षा इक्विटी में निवेश करना ज्यादा जोखिमपूर्ण है। तो क्या ऋण उपकरणों में निवेश करना पूर्णत: जोखिम रहित है? दुर्भाग्यवश, इसका उत्तर ‘नहीं’ में हैं, यद्यपि इसमें उतार-चढ़ाव कम होते हैं। ऋण उपकरणों में भी विभिन्न प्रकार के जोखिम होते हैं।
ब्याज दर का जोखिम
निश्चित आय के विकल्पों के मूल्यों एवं ब्याज दर में विपरीत संबंध होता है। दूसरे शब्दों में, अगर अर्थतंत्र में ब्याज-दर में वृद्धि होती है तो निश्चित आय के विकल्पों के मूल्यों में कमी आती है और इसका ठीक उल्टा भी होता है।
अर्थतंत्र में ब्याज दरों को कई चीजें प्रभावित करती हैं, जैसे, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की मुद्रा योजना में परिवर्तन, सीआरआर की आवश्यकताएं, विदेशी मुद्रा भंडार आदि ब्याज दर को प्रभावित करने वाले बाहरी कारकों में, जिन्स की मांग और आपूर्ति, ऊर्जा के मूल्यों में उतार-चढ़ाव और पूंजी का प्रवाह शामिल है।
इसके अलावा, घटना-आधारित कारक भी हैं जिनसे ब्याज-दर प्रभावित होता है। युद्ध के समय प्राय: ब्याज-दरें बढ़ जाती हैं। हालांकि इस तरह की घटनाएं अस्थायी होतीे हैं लेकिन एक कुशल फंड-प्रबंधक इसका बढ़िया लाभ उठा सकता है।
मार्किंग टु मार्केट
ब्याज-दरों के उतार-चढ़ावों से प्रतिफल पर पड़ने वाले प्रभाव को समझने के लिए हम म्युचुअल फंड का उदाहरण लेते हैं। पोर्टफोलियो को बाजार-दर के प्रतिफल के मुताबिक समायोजित करने को ‘मार्किंग टु मार्केट’ कहते हैं।
चलिए मान लेते हैं कि किसी म्युचुअल फंड की वर्तमान योजना का नेट एसेट वैल्यू (एनएवी) 10 रुपए है और इसका कुल कोष 1000 करोड़ रुपये का है। इसका मतलब है कि अगर कंपनी अपनी योजना की कुल अस्तियों को बेचकर, प्राप्त धन राशि को सभी यूनिट धारकों में बराबर भाग में बांटें तो उन्हें 10 रुपए प्रति यूनिट मिलेंगे।
अब मान लीजिए कि ब्याज दर 10 प्रतिशत से घटकर 9 प्रतिशत रह गया। उसके तत्काल बाद आपकी इच्छा होगी कि क्यों न इस योजना में एक लाख रुपए और निवेश कर दिए जाएं। अगर कंपनी आपको वर्तमान एनएवी की दर पर यूनिट दे तो आपको 10,000 यूनिट आवंटित किए जाएंगे।
इससे आपको भारी लाभ हो सकता है। आप 10 प्रतिशत के उच्च प्रतिफल के लाभों के हिस्सेदार बनेंगे, हालांकि फंड आपके द्वारा निवेशित एक लाख रुपए की राशि को 9 प्रतिशत के कम दर पर निवेश करने को बाध्य है। यह पहले से जुड़े निवेशकों के साथ अन्याय होगा। इसलिए, पूर्वनिवेशकों के हितों की रक्षा के लिए कोई उपाय होना चाहिए।
यहां आती है ‘मार्क टू मार्केट’ की धारणा। फंड अपने एनएवी की कीमत बढ़ाकर 11.11 रुपए कर देती है। ऐसे में एक लाख रुपए के बदले आपको केवल 9,000 यूनिट आवंटित किए जाएंगे न कि 10 हजार। दूसरे शब्दों में, ब्याज-दर के घटने से एनएवी में बढ़ोतरी होती है।