लगातार चढ़ते बाजार के दौर में जब एक निवेश सलाहकार ने सिस्टेमेटिक इंवेस्टमेंट प्लॉन (एसआईपी) निवेश के प्रति अनुशासित रवैया अपनाने को कहा तो कई लोगों को आश्चर्य हुआ था।
इसका कारण यह था कि उस समय 60,000 रुपये का एकमुश्त निवेश दो या तीन माह में ही 1.2 लाख रुपये हो सकता था जबकि यही राशि 20,000 रुपये की तीन किस्त में निवेश करने से महज 90,000 रुपये या फिर एक लाख रुपये ही हो पाती।
एसआईपी का महत्व तब ही समझ में आता है जब हम बाजार में आने वाली अस्थिरता को जेहन में रखते हैं। इस पूरी स्थिति के बारे में गहन विचार करने पर ही निवेशक एसआईपी के महत्व के बारे में जान सकता है।
एक एसआईपी में नियमित रूप से हर माह एक निश्चित राशि निवेश की जाती है। इसके जरिए यूनिट हिचकिचाहट के साथ खरीदी जाएं। साथ ही निवेश प्रक्रिया में कोई ब्रेक नहीं आता और निवेश की अवधि के दौरान पूंजी खड़ी होती रहती है। अगर इसकी तुलना एकमुश्त निवेश से की जाए तो आयाम बिलकुल अलग होते हैं।
वहां आप किसी एक समय में किसी एक निश्चित समयावधि के लिए एक्स राशि का निवेश करते हैं। हो सकता कुछ स्थितियों में यह राशि दोगुनी और तिगुनी हो जाए। लेकिन इसमें जोखिम भी है। इस दौरान अगर बाजार तेजी से नीचे गिरता है जैसे जनवरी से लेकर अब तक गिरा है, तो एकमुश्त निवेश को अधिक मार झेलनी पड़ती है। अगर यह निवेश किसी म्युचुअल फंड में है तो आपका निवेश उक्त स्कीम के एनएवी में होने वाली कमी के बराबर हो सकता है।
दूसरे शब्दों में कहें तो अगर आप एसआईपी के जरिए निवेश करते हैं तो गिरते बाजार में आपको यही फर्क पड़ता है कि आप कमाई करना बंद कर देते हैं। क्योंकि आपके निवेश का वही हिस्सा अपनी वैल्यू खोता है जहां आपने उस समय खरीद की थी जब एनएवी काफी ज्यादा थी।
एसआईपी में निवेशक किसी फंड की यूनिट उस समय खरीदता है जब उसका एनएवी कम होता है। इसलिए आप यहां पर उसी स्कीम की अधिक यूनिटें खरीद रहे होते हैं। इसकी सबसे अच्छी बात यह है कि जब बाजार थोड़ा चढ़ता है कि एकमुश्त निवेश की तुलना में एसआईपी के जरिए किए गए निवेश से पैसा बनाना ज्यादा आसान होता है क्योंकि इस अवधि तक उसमें यूनिटों की संख्या भी बढ़ चुकी होती है।
आइए इसे उदाहरण के जरिए समझें: दो निवेशक हैं जिन्होंने किसी एक योजना में 60,000 रुपये निवेश किए हैं। एक ने यह निवेश एकमुश्त निवेश के जरिए किया जबकि दूसरे ने एसआईपी का मार्ग चुना।
निवेशक ए (एकमुश्त निवेश) ने 60,000 रुपये में किसी स्कीम के 3,000 यूनिट (एनएवी=20 रुपये)खरीदे।
निवेशक बी (एसआईपी के जरिए निवेश) छह माह में 5,000 रुपये प्रतिमाह के हिसाब से यह निवेश किया।
अगर बाजार पहले तीन महीने में चढ़ता है फिर सात माह के करेक्शन के दौर में जाता है अंत में फिर से रिकवर होता है तो दोनों निवेशकों की स्थितियों पर एक नजर:-
निवेशक ए का धन पहले तीन माह में 60,000 रुपये से बढ़कर 88,800 रुपये होगा। करेक्शन के सात माह में यह गिरकर 32,100 रुपये पर सीमित हो जाएगा। यह उस समय होगा जब दसवें महीने में एनएवी 10.7 रुपये पर होगी।
निवेशक बी जो 5,000 रुपये प्रतिमाह के हिसाब से निवेश कर रहा है, को पहले माह में केवल 250 यूनिटें ही मिलेंगे। इसके बाद जब एनएवी बढ़ना शुरु होगी तो उसे 29.6 के एनएवी पर 168.92 यूनिटें ही मिलेंगे। इस तरह तीन माह में उसे 624.68 यूनिटें ही मिल पाएंगे। इसकी वैल्यू 15,000 रुपये के निवेश की तुलना में 18,491 रुपये ही रहेगी।
इस स्थिति में निवेशक बी को सिर्फ 3,491 रुपये का ही लाभ हुआ, जबकि निवेशक ए को 28,000 रुपये का अच्छा-खासा मुनाफा हुआ।
इसके बाद के छह माह में जब एनएवी गिरना शुरु होता है तो निवेशक बी को मिलने वाली यूनिटों के आधार पर लाभ होना शुरु हो जाता है। दसवें माह में जब एनएवी 10.7 रुपये पर होती है तो उसके निवेश की वैल्यू 30,325 रुपये रहती है जो निवेशक ए से महज 1,775 रुपये ही कम रह जाती है।
तीसरे समयकाल में अंतिम दो माह में जब एनएवी 10.7 रुपये से बढ़कर 17.6 रुपये पर पहुंच जाती है तो निवेशक बी सकारात्मक जोन में होता है। उसकी पूंजी 60,908 रुपये की होती है जो निवेशक ए से 8,000 रुपये अधिक होती है। यह सिर्फ यूनिटों की संख्या अधिक होने की वजह से ही संभव हो सका। साल के अंत में बी के पास 3,460.69 यूनिटें होते हैं जबकि ए के पास अभी भी सिर्फ 3,000 यूनिटें होते हैं जो साल की शुरुआत के समय से ही उसके पास थीं।
सीख: एसआईपी भले ही शॉर्ट टर्म में खासकर उस समय जब बाजार ऊपर जा रहा हो, इनमें बढ़त धीमी दिखती हों, लेकिन बाद में यह अच्छा रिटर्न देती हैं।