बिजनेस स्टैंडर्ड के दो दिवसीय अर्थनीति के कॉन्क्लेव ‘मंथन’ में सबसे पुरजोर जिस बात पर सभी दिग्गज बोले वो था- डी-रेगुलाइजेशन याने विनियमन। वरिष्ठ नौकरशाह और G20 शेरपा रहे अमिताभ कांत ने शुरूआत ही स्लोगन से की- ‘डी-रेगुलाइज, डी- रेगुलाइज, एंड डी-रेगुलाइज’। कांत ने भारत को 2047 तक ‘विकसित भारत’ के रूप में देखने के लिए यही मंत्र दिया कि यदि हमें इस सपने को पूरा करना है, तो सरकारी तंत्र के नियंत्रण को नियमानुसार शिथिल करने का वक्त अब आ गया है। वक्त आ गया है कि सरकार अब निजी क्षेत्र को आगे बढ़ने का मौका दे, तभी भारतीय बाजार में पूंजी आएगी। बता दे कि अमेरिकी प्रगति को लेकर एक पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति का स्लोगन बहुत पसंद किया गया था, जो बाद में दुनिया में कॉर्पोरेट जगत के लिए उनकी मांगों का हिस्सा बन गया था- ‘सरकार को रास्ते से हट जाना चाहिए।’
अभिताभ कांत ने कहा कि हमें विकसित देश बनने के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को 30 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक ले जाना होगा, जिसके लिए हमें अपनी विनिर्माण क्षमता को 16 गुना तक बढ़ाना होगा, वहीं हमारा सकल घरेलू उत्पाद (GDP) 9 गुना होना चाहिए, और इसके लिए हमें विनियमन की ओर बढ़ना ही होगा।
CSEP के लवीश भंडारी ने साफ शब्दों में कहा कि यदि हम भारत को 2047 तक ‘विकसित भारत’ के रूप में देखना चाहते हैं, तो हमें सबसे पहले अपनी विनियामक संस्थाओं (Regulatory Bodies) को मजबूत करना होगा। भंडारी ये कहने से नहीं चूके कि पश्चिम के देशों की तुलना में भारतीय विनियामक संस्थाएं तकनीकी, विषय विशेषज्ञता सहित तमाम जरूरी कारकों में बहुत पीछे हैं। जिसके चलते भारतीय विनियामक संस्थाएं अपना काम सही तरीके से अंजाम देने में बार-बार असफल हो रहीं हैं।
लवीश भंडारी ये भी कहने से नहीं चूके कि हमें स्वीकारना होगा कि हमारी विनियामक संस्थाएं अपना काम इसीलिए नहीं कर पा रही क्योंकि उनका आपस में संवाद वैसा नहीं होता, जैसा होना चाहिए, जैसा पश्चिमी देशों में होता है, जिसके चलते निजी क्षेत्र को किसी भी प्रोजेक्ट को लेकर जरूरत से ज्यादा समय और वित्तीय संसाधन लगाने पड़ते हैं।
भंडारी ने भारतीय विनियामक संस्थाओं के बारे में कहा कि देखा गया है कि भारतीय विनियामक संस्थाओं की कमान हमेशा किसी रिटायर्ड सरकारी व्यक्ति को दी जाती है, ऐसे में वहां की कार्यप्रणाली में इनोवेशन की अपेक्षा करना बेमानी है। ऐसे में वक्त की जरूरत है कि भारतीय विनियामक संस्थाओं में शासकीय तंत्र से बाहर के व्यक्ति को कमान सौंपी जाए। जरूरत है कि हम अपनी विनियामक संस्थाओं में निवेश करें, जिससे उन्हें आधुनिकतम् बनाया जा सके।
Mashreq के तुषार विक्रम ने भारतीय विनियामक ईकोसिस्टम के एक अहम पक्ष को उजागर करते हुए बताया कि हम एक ऐसा देश है जहां सिर्फ केंद्रीय विनियामक संस्थाएं ही नहीं राज्य स्तर पर भी विनियामक एजेंसियां होती है, और ऐसे में किसी भी प्रोजेक्ट के लिए निजी क्षेत्र के प्लेयर को इन दोनों स्तरों पर रेगुलेटरी मामलों से दो-चार होना पड़ता है।
एक उदाहरण देते हुए तुषार विक्रम ने बताया कि दुनिया का एक देश मैन्युफेक्चरिंग हब बन गया और इसके लिए उन्होंने सिर्फ एक काम किया- विदेशी निवेशकों के लिए रेगुलेटरी मामलों को लेकर सिंगल विंडो सिस्टम विकसित किया। जिस भी विदेशी कंपनी या समूह को उनके देश में निवेश करना होता, वे सिंगल विंडो के जरिए प्रोजेक्ट के हर फ्रंट की परमिशन ले लेते। इतना ही नहीं उस देश ने इसके लिए बाकायदा 30 दिनों की टाइमलाइन तय कर रखी थी।
यदि ऐसा देखा जाए, जो हमारी रेगुलेटरी संस्थाएं नए तरीकों को अपना तो रहीं हैं, लेकिन उसकी गति बहुत धीमी है। जिस स्पीड से हम अपनी विनियामक संस्थाओं में बदलाव लाने की कोशिश कर रहें है, दुनिया की गति उससे बहुत बहुत ज्यादा है, ऐसे में हम regulatories affairs के मामले में लगातार पिछड़ रहे हैं।
CRISIL के डीके जोशी ने रेगुलेटरी ईकोसिस्टम को लेकर पश्चिमी दुनिया का उदाहरण देते हुए समझाया कि विकसित देशों में रेगुलेटरी बॉडीज, अकादमिक वर्ल्ड औऱ निजी क्षेत्र के बीच में एक्सपर्ट्स की आवाजाही होती रहती है, जिसके चलते उन्हें बेहतरीन विषय विशेषज्ञ हासिल हो जाते हैं। वहीं इसके उलट भारत में हम अभी इसे लेकर इतने स्वीकार्य नहीं हुए हैं, यही कारण है कि हमारी विनियामक संस्थाएं पश्चिमी देशों की रेगुलेटरी बॉडीज की तरह इतनी कारगर नहीं दिखती।