अमीरी की निशानी कहलाने वाला हीरा मंदी के भंवर में फंस चुका है। हीरे के कद्रदान कम हुए तो उसे तराशने वाले कारखानों में भी ताले लगने लगे हैं। इसलिए हीरा तराशने वाले हाथ कंगाली के शिकार हो गए हैं और अपने परिवारों के पेट पालने के लिए उन्हें चौकीदार, ड्राइवर, खेतिहर मजदूर तक बनना पड़ गया है।
रूस और यूक्रेन युद्ध का देश के हीरा उद्योग पर बड़ा असर पड़ा है और इसके कारोबार में 25-30 फीसदी गिरावट आ चुकी है। कारोबारियों के मुताबिक पिछले दो साल में 50 फीसदी से ज्यादा कारखाने बंद हो गए हैं और हजारों नौकरियां चली गई हैं। हीरे की कटिंग और पॉलिशिंग करने वाले जिन कारीगरों की नौकरी बच गई है, उनके काम के घंटे कम कर दिए गए हैं, जिससे उन्हें मिलने वाली मजदूरी भी कम हो गई है।
एक दशक पहले मुंबई में हीरा तराशने के करीब 50,000 कारखाने थे मगर अब मुश्किल से 5,000 बच गए हैं। ज्यादातर कारखाने मलाड, बोरिवली, दहिसर और विरार में हैं। बाकी कारखाने यहां से उजड़कर गुजरात के सूरत, भावनगर और बोटाद में चले गए। मगर मंदी की मार से वहां भी कारखाने बंद होते गए। बोटाद में पिछले 35 साल से 50 घंटी का कारखाना चलाने वाले बाबूभाई चंदरवा कहते हैं कि काम 70 फीसदी ही बचा है। खरीदार नहीं होने के कारण माल औने-पौने दाम पर बेचना पड़ रहा था, जिसकी वजह से तीन महीने पहले उन्होंने कारखाना ही बंद कर दिया।
मुंबई और सूरत में काम नहीं है, इसलिए कंपनियों ने आधे कारीगरों की छुट्टी कर दी है। उनका वेतन भी घटाकर 25,000 से 35,000 रुपये के बीच कर दिया गया है। हीरा कारोबारी प्रहलाद भाई कहते हैं कि पहले कारीगर को 30 दिन काम मिलता था मगर अब 20 दिन का ही मिल रहा है।
इस समय कपास की कटाई चालू है, इसलिए कई कारीगर 500 रुपये दिहाड़ी की मजदूरी पर खेत चले जाते हैं। मगर दो महीने में कपास की कटाई पूरी हो जाएगी तब क्या करेंगे। हीरा तराशने वाले प्रवेश भाई कहते हैं कि पिछले 25 साल से मुंबई में यही काम किया, लेकिन आज बच्चों को पढ़ाने के लिए रात में चौकीदारी करनी पड़ रही है। सेठ के पास जाओ तो वह पहले ही काम नहीं होने का रोना शुरू कर देते हैं।
कारोबार कम होने की कई वजहें हैं, जिनमें प्रयोगशाला में बने हीरों की मांग बढ़ना भी शामिल है। हीरों के संगठित बाजार भारत डायमंड बोर्स के पूर्व सचिव नरेश मेहता बताते हैं कि प्रयोगशाला में बना 1 लाख रुपये का हीरा खान से निकले 1 करोड़ रुपये के हीरे जैसा ही दिखता है। ऐसे हीरों को भी खान से निकला हीरा बताकर बेचा जा रहा है, जिससे बाजार में भरोसा कम हो गया है। ग्राहक पूरे उद्योग को ही शंका की निगाह से देख रहे हैं। इस परेशानी को दूर नहीं किया गया तो ग्राहक लौटकर नहीं आएंगे और हीरा उद्योग बरबाद हो जाएगा।
इससे निपटने के लिए रत्न एवं आभूषण निर्यात संवर्द्धन परिषद ने सरकार से कड़े नियम बनाने की मांग की है। उसकी मांग है कि व्यापारी हीरा बेचते समय ग्राहक को साफ बताए कि वह खान से निकला है या प्रयोगशाला में बना है। इससे ग्राहक धोखाधड़ी से बचे रहेंगे और हीरा कारोबार की साख भी बनी रहेगी।
सूरत डायमंड बोर्स का मंदी में फंस जाना भी कारोबार के लिए झटका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल अगस्त में दुनिया के सबसे बड़े ऑफिस स्पेस सूरत डायमंड बोर्स का उद्घाटन किया था, जिससे सूरत का हीरा उद्योग नई ऊंचाई पर पहुंचने की उम्मीद लगाई जा रही थी। मगर वैश्विक हालात बिगड़ने से हीरा बाजार का बंटाधार हो गया।
अमेरिका को निर्यात 75 फीसदी तक गिर गया। उद्योग से जुड़े लोग बताते हैं कि पिछले तीन महीने में हालात और बिगड़े हैं, जिससे सूरत से होने वाला कुल हीरा निर्यात 82 फीसदी कम हो गया है। दो-तीन साल पहले मुंबई छोड़कर सूरत पहुंचे तमाम कारोबारी दफ्तर बंद कर मुंबई लौट रहे हैं। सूरत डायमंड बोर्स के सदस्य आशीष दोषी ने बताया कि वहां कुल 4,200 दफ्तर हैं, जिनमें आज केवल 250 चालू हैं।
इस बीच हीरा तराशने वालों को सुरक्षित रखने के लिए उनके बीमा की मांग उठने लगी है। ज्वैल मेकर वेलफेयर एसोसिएशन के अध्यक्ष संजय शाह का कहना है कि जिन कारीगरों के हुनर और मेहनत से भारत का हीरा उद्योग चमका है, उनका भुखमरी में पड़ना पूरे उद्योग के लिए शर्म की बात है। काम ज्यादा होने पर उनकी जमकर खातिरदारी करना और मंदी आने पर निकाल फेंकना सही नहीं है।
इसलिए उन्होंने सरकार से कारीगरों के लिए बीमा योजना लाने और पॉलिसी का प्रीमियम कंपनियों या कारोबारियों से भरवाने की मांग की है। उनकी मांग यह भी है कि उद्योग और सरकार मिलकर कारीगरों का न्यूनतम वेतन तय करें और कम से कम दो साल के वेतन के बराबर राशि का बीमा किया जाए ताकि काम से निकाले जाने पर भी कारीगर कम से कम दो साल घर चला सके।