भारतीय किसान अक्सर अपने खेत पर किसी फसल को लगाने से पहले ही लागत और मुनाफे का जायजा जरूर लेते हैं।
लेकिन सरकार ने गन्ने के सांविधिक न्यूनतम मूल्य (एसएमपी)की घोषणा करते वक्त ऐसी कोई समझदारी नहीं दिखाई। गन्ना देश की सबसे महत्वपूर्ण नकदी फसल है जिस पर 5 करोड़ से ज्यादा किसानों की निर्भरता है।
वर्ष 2008-09 के सीजन के लिए सरकार ने 81.18 रुपये प्रति क्विंटल एसएमपी का ऑफर किया है। कृ षि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने सरकार से 125 रुपये प्रति क्विंटल कीमत रखने की सिफारिश की थी।
सरकार का यह तर्क है कि एसएमपी में ज्यादा बदलाव से सरकार को लेवी चीनी के लिए ज्यादा बदलाव करना पड़ेगा, इसी वजह से वैधानिक न्यूनतम मूल्य को कम रखा गया है। पहले भी खाद्य मंत्रालय ने कैबिनेट के साथ सुर में सुर मिलाते हुए सीएसीपी द्वारा 110-115 रुपये प्रति क्विंटल की सिफारिश को खारिज कर दिया था।
सरकार ने अगले चीनी सीजन के लिए भी एसएमपी में 1.18 रुपये बढ़ोतरी करने करने की जहमत नहीं उठाई। ऐसे में महाराष्ट्र के कोऑपरेटिव चीनी मिलों के सदस्यों की क्षतिपूर्ति चीनी की बिक्री और इससे जुडे दूसरे उत्पादों से होने वाली कमाई के जरिए होगी।
इस साल खराब मौसम का असर भी गन्ना उत्पादन के क्षेत्रों पर पड़ा और इससे चीनी की रिकवरी दर पर भी जबरदस्त असर पड़ा है। बेहतर मौसम में औसत रिकवरी 10.55 फीसदी से ज्यादा होगा। महाराष्ट्र में गन्ना उत्पादन से 11.65 फीसदी चीनी मिलता है लेकिन यह राज्य की औसत दर है।
राज्य में कुछ ऐसी भी फै क्टरियां हैं जहां उत्पादन 14 फीसदी तक होता है। उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा की तरह महाराष्ट्र ने अपनी गन्ना की कीमत को नहीं थोपा है क्योंकि यहां पहले से ही ज्यादा रिकवरी दर थी।
गन्ने का उत्पादन करने वाले राज्यों में अतार्किक एसएसपी की वजह से इसका गणित बिगड ज़ाता है। इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन के अध्यक्ष ओम प्रकाश धानुका का कहना है, ‘दो श्रेणियों में गन्ने की कीमतों को तय करने की व्यवस्था से ही सारी दिक्कतें आती हैं।’
चीनी की फैक्टरियों को राज्य द्वारा निर्धारित गन्ने की कीमतों का भुगतान करना चाहिए। कुल चीनी उत्पादन का 10 फीसदी हिस्सा लेवी शुगर का होता है लेकिन केंद्र सरकार इसकों लेवी शुगर की कीमतें तय वक्त इसे तरजीह नहीं देती। वर्ष 2008-09 के लिए लेवी शुगर की कीमतों में कोई बदलाव नहीं किया गया है। हालांकि ऐसा जरूर कहा गया है कि जरूरत पड़ने पर इसमें बदलाव भी किया जाएगा।
ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि उद्योग अपने नुकसान की भरपाई खुले बाजार में लेवी चीनी की बिक्री के जरिए करेगी। लेकिन ऐसा होना आसान नहीं है। गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले लोगों के पास बहुत कम मात्रा में सब्सिडी वाली चीनी मिलती है।
ऐसा नहीं है कि केवल चीनी के एसएमपी पर ही बात हो रही है। कई लोगों की राय यह भी है कि गन्ने के खेत को गेहूं, चावल और दूसरी फसलों के चंगुल से बचाने के लिए जरूरी है कि किसानों को गन्ने की आपूर्ति चीनी मिलों में बढ़ाने के लिए उत्साहित किया जाए। इसके लिए जरूरी है कि एमएसपी को बढ़ाया जाए।
हालांकि देश के कई किसान एसएमपी की दरों पर नजर गड़ाए हुए हैं ताकि वे तय कर सकें कि अपने खेत में वे गन्ने की कितनी खेती करेंगे। यह केवल देश के सबसे ज्यादा गन्ना उत्पादन करने वाले राज्य उत्तर प्रदेश के संदर्भ में ही नहीं है। राज्य द्वारा तय की गई गन्ने की कीमत यूपी के साथ ही दूसरी जगहों पर भी लागू हो चुकी है।
उद्योग में कुछ लोग यह महसूस करते हैं कि एसएमपी वैधानिक होता है और इसे कम करना बेहद मुश्किल है जबकि मांग बढ़ रही हो। राज्य सरकार द्वारा गन्ने की कीमतों को मनमाने ढ़ंग से तय करने की वजह से कई बार यूपी की फैक्टरियां अदालत में गई हैं।
गन्ने के रकबे में 10 लाख हेक्टेयर की कमी आई है और यह 43 लाख हेक्टेयर हो गया है। इसी वजह से मौजूदा सीजन में गन्ने की पेराई का काम जल्दी ही खत्म हो गया।