यह सही है कि खेल में धर्म को लाना उचित नहीं है लेकिन सभी प्रतिस्पर्धी खेलों में जुनून होता है। मौजूदा क्रिकेट विश्व कप (World Cup 203) के दौरान सप्ताह भर पहले अहमदाबाद में भारत और पाकिस्तान के बीच जो मुकाबला हुआ उसे क्रिकेट की दृष्टि से एकदम ‘फुस’ कहा जा सकता है। परंतु दर्शकों को ऐसा नहीं लगा। उनके लिए तो मैच जितना एकतरफा होता उतना ही अच्छा था।
यहां बहस के तीन बिंदु उभरते हैं। मैच खत्म होने के बाद जीतने वाली भारतीय टीम नहीं बल्कि दर्शकों की भीड़ खबर बनी, ऐसा केवल इसलिए नहीं हुआ कि कुछ लोगों ने पाकिस्तानी विकेटकीपर-बल्लेबाज मोहम्मद रिजवान के पविलियन लौटते समय ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाए। देश के उदारवादी तबके ने इसकी आलोचना की।
इसकी एक वजह यह भी रही होगी कि मैच गुजरात के नए नरेंद्र मोदी स्टेडियम में हुआ और अमित शाह भी वहां मौजूद थे। इस दौरान एक सवाल पीछे छूट गया: क्या खेल के मैदान पर धार्मिक नारों के लिए जगह होनी चाहिए, वह भी एक ऐसे खेल में जिसे अक्सर भारतीय उपमहाद्वीप में असली धर्म माना जाता है? क्या हम खेल को सांप्रदायिक रूप नहीं दे रहे हैं?
इस बहस की गहराई में पड़ने के पहले मुझे अपना विचार सामने रख देना चाहिए। खेल में धर्म को शामिल करना बिल्कुल भी अच्छा विचार नहीं है। राष्ट्रवाद किसी भी हद तक जा सकता है। हालांकि ऐसा किसी कानून या समझौते में नहीं लिखा है। इस विषय पर ज्यादा बात आगे करेंगे।
क्रिकेट से जुड़ा कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न पाकिस्तान के कोच और दक्षिणी अफ्रीकी-ऑस्ट्रेलियाई मिकी आर्थर ने उठाया। मैच के बाद हुए संवाददाता सम्मेलन में वह बहुत विनम्रता से पेश आए। उन्होंने बहुत नरमी से क्रिकेट से जुड़े बिंदु सामने रखे।
उन्होंने टीम के खराब प्रदर्शन के लिए कुछ हद तक दर्शकों के पक्षपाती व्यवहार को भी जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा, ‘पाकिस्तानी दर्शकों की अनुपस्थिति खराब लगी। ऐसा लगा मानो हम आईसीसी के विश्व कप में नहीं बल्कि किसी द्विपक्षीय मुकाबले में उतरे थे।’ स्टेडियम में दिल-दिल पाकिस्तान के नारे सुनने को नहीं मिले।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उनकी शिकायत हालात के क्रिकेट से जुड़े पहलुओं के बारे में नहीं थी जहां परिस्थितियां घरेलू टीम के पक्ष में होती हैं: पिच, मैदान का बाहरी हिस्सा, हवा या लाइट। उनकी शिकायत माहौल के बारे में थी। अब हम समझ सकते हैं कि पाकिस्तानी क्रिकेट कोच कितने दबाव में रहते हैं।
खासतौर पर एक पुराने कोच की रहस्यमय मौत के बाद। याद रहे 2007 के विश्व कप से पाकिस्तान के बाहर होने के एक दिन बाद तत्कालीन कोच बॉब वूमर जमैका में अपने होटल के कमरे में मृत पाए गए थे। दुनिया के सबसे जुनूनी क्रिकेटप्रेमी देश की जिम्मेदारी उठाना आसान नहीं है लेकिन भारत में भी दर्शकों से निष्पक्षता की अपेक्षा करना ज्यादती होगी।
भारत में किसी खेल के मैदान पर माइक पर ‘दिल-दिल पाकिस्तान’ सुनने की ख्वाहिश केवल कल्पना है। उस लिहाज से देखा जाए तो कई समझदार पाकिस्तानियों की दलील में दम है। उनका कहना है कि अगर कुछ सैकड़ा पाकिस्तानी प्रशंसकों को मैच देखने का वीजा दिया गया होता तो यह प्रतियोगिता के लिहाज से भी अच्छा होता।
आखिरकार यह आईसीसी की प्रतियोगिता है और हर भागीदार देश के प्रशंसक स्टेडियम में होने चाहिए। हमें पता है कि भारत-पाकिस्तान का वीजा एक कठिन विषय है। परंतु बतौर मेजबान भारत बड़ा दिल दिखा सकता था। बहस का तीसरा बिंदु ऑस्ट्रेलिया के गिडियन हेग की ओर से आया जो आज दुनिया में सबसे बेहतर और सम्मानित क्रिकेट लेखक हैं।
उन्होंने शेन वार्न की जीवनी लिखी है और वह भारतीय क्रिकेट के उभार के प्रशंसकों में से रहे हैं। एक परिचर्चा की वायरल क्लिप में वह अहमदाबाद के दर्शकों के व्यवहार से स्तब्ध नजर आते हैं।
वह यहां तक कहते हैं कि नीली कमीजों से भरे हुए स्टैंड कुछ हद तक न्यूरेमबर्ग रैली का आभास देते हैं। हमें पता है कि मोदी-शाह की भाजपा सरकार और भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) में जय शाह की मौजूदगी ऐसे कारक हैं जो क्रिकेट जगत में कई लोगों को भड़का सकते हैं।
परंतु टिकट खरीदकर मैच देखने आए लोगों को नीली कमीज में 21वीं सदी के नाजियों की अपमानजनक उपमा देना? हर प्रतिस्पर्धी खेल में जुनून होता है। इसी जुनून की बदौलत प्रशंसक टिकट खरीदते हैं, टेलीविजन सबस्क्रिप्शन लेते हैं और प्रिय खिलाड़ियों से जुड़े ब्रांड से जुड़ते हैं।
भारत में बीसीसीआई की कमाई में इन बातों का योगदान है। आईसीसी तथा अन्य देशों के क्रिकेट संस्थान भी ऐसे ही कमाते हैं। बिना जुनून के कोई खेल नहीं बच सकता। इस जुनून में पक्षधरता भी होती है। वह किसी देश, क्लब या एक खिलाड़ी को लेकर भी हो सकती है। नडाल बनाम फेडरर के बारे में सोचिए।
पैसे देकर मैच देखने आए एक लाख लोग जो मोदी के राज्य में रहते हैं और शायद अधिकांश उनके मतदाता भी हों, क्या उनके प्रति केवल इसीलिए पूर्वग्रह रखना चाहिए? उन्हें नीली कमीज वाले नाजी कहना चाहिए? कल्पना कीजिए ओल्ड ट्रैफर्ड में मैनचेस्टर यूनाइटेड के मैच में लाल कमीजों का लहराता सागर? क्या उसे न्यूरेमबर्ग रैली कह सकते हैं?
सन 1960 के दशक के लंबे अंतराल के बाद 1970 के दशक में भारत और पाकिस्तान ने क्रिकेट खेलना शुरू किया। तब से अब तक 45 वर्षों में हमारे द्विपक्षीय रिश्ते कई बार ऊपर-नीचे हुए हैं। इसके साथ ही दर्शकों की प्रतिक्रिया भी बदली।
जनवरी 1999 में चेन्नई में हुए रोमांचक टेस्ट मैच में पाकिस्तान की जीत पर खुशी जाहिर करने वाले चेन्नई के दर्शकों की बहुत बात होती है। वह मैच उस दौर में हुआ था जब दोनों देशों के रिश्ते ठीक थे और जल्दी ही अटल बिहारी वाजपेयी बस में बैठकर लाहौर गए थे।
2003-04 के पाकिस्तान दौरे में भारतीय टीम का खूब स्वागत हुआ और उसकी जीत को सराहा गया। यह इसलिए हुआ कि मुशर्रफ और वाजपेयी ने शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। वहीं दूसरी ओर मैंने 1989-90 का पाकिस्तान दौरा भी देखा है जब दर्शकों का व्यवहार अत्यधिक खराब था। उनका मुकाबला करने के लिए अहमदाबाद के दर्शकों को लंबा सफर तय करना होगा। आशा करता हूं कि वे ऐसा नहीं करेंगे।
वहां लगे नारे आज भी मेरे कानों में गूंजते हैं: ‘पाकिस्तान का मतलब क्या, ला इलाहा इल्ललाह/ हिंदुस्तान का मतलब क्या, भाड़ में जाएं हमको क्या।’ उसी समय लाहौर में हॉकी का विश्वकप भी खेला जा रहा था। जिस मैच में भारत खेल रहा होता था वहां और बुरे नारे लगते थे। जोर-जोर से कहा जाता- ‘हिलती हुई दीवार है, एक धक्का और दो।’
भारत 12 टीमों के उस विश्व कप में 10वें स्थान पर आया। मैंने नहीं सुना कि कभी भारतीय टीम ने भीड़ के पक्षपाती रवैये को दोष दिया हो। सच यह है कि उस प्रतियोगिता में भारत जिस टीम के खिलाफ खेलता, उस टीम का जमकर समर्थन किया जाता।
जब दो देशों के रिश्ते खराब होते हैं तो दर्शकों की भीड़ ऐसा ही व्यवहार करती है। उस दौर में कश्मीर में अशांति की शुरुआत हो चुकी थी। पंडितों को घाटी से बाहर निकाला जा रहा था, पंजाब में आतंकवाद चरम पर था, सोवियत संघ अफगानिस्तान से पीछे हट रहा था और पाकिस्तानियों को लग रहा था कि उन्हें क्रिकेट और हॉकी के अलावा अन्य मोर्चों पर जीत मिल रही है।
अब हम पहली शिकायत पर लौटते हैं। वह यह कि अहमदाबाद में कुछ लोगों ने ‘जय श्री राम’ के नारे लगाए और धर्म को खेल में ले आए। हमें भी एक असहज करने वाला प्रश्न पूछना होगा। पहली बार क्रिकेट खेलने वाले किस देश ने ऐसा किया था और आज भी ऐसा करता है?
अब जबकि हिचक और सौजन्यता जा चुकी है तो जनवरी 1999 के चेन्नई टेस्ट में जीतने वाली पाकिस्तानी टीम के वीडियो सामने आ रहे हैं जहां ‘नारा ए तकबीर अल्लाहू अकबर।’
दशकों तक क्रिकेट में शतक लगाने वाले पाकिस्तानी खिलाड़ी और भारत के खिलाफ हॉकी मैच जीतने वाले खिलाड़ी प्रार्थना में झुकते रहे हैं। जब रिजवान ने 2021 में दुबई में भारत के खिलाफ टी-20 मैच में जीत के बाद ऐसा किया था तो वकार यूनिस ने टेलीविजन पर यह कहकर खुशी जाहिर की थी कि रिजवान को हिंदुओं के बीच नमाज पढ़ते देखकर उन्हें प्रसन्नता हुई।
भले ही उन्होंने बाद में माफी मांग ली और उन्हें माफ भी कर दिया गया क्योंकि वह अब भारत में टेलीविजन कमेंट्री टीम में शामिल हैं। ऐसे में अगर उसी रिजवान के सामने जय श्री राम के नारे लगाए गए तो आप नतीजे निकाल सकते हैं। इन बातों के बीच भारत और पाकिस्तान जितना अधिक आपस में खेलेंगे, ऐसी बातों की धार उतनी ही कुंद होगी।
क्या पता इसी विश्व कप में दोनों टीमें फिर आमने-सामने हों। तब अगर नतीजे अलग हुए (ऐसा न हो) तो इसकी वजह पाकिस्तानी टीम का अच्छा खेल ही होगा। आप इस बात को लेकर निश्चिंत रहिए कि तब वे इबादत में झुकेंगे। तब खेल में धर्म का प्रवेश होगा या नहीं?