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स्कूलों को बेहतर बनाएं

शिक्षा में सुधार: सरकारी स्कूलों के बदलते दृष्टिकोण

Last Updated- November 16, 2023 | 6:10 AM IST
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भारत में करीब 15 लाख स्कूलों का भारी भरकम नेटवर्क है जिसमें करीब 26 करोड़ छात्र-छात्राएं पंजीकृत हैं। शिक्षा का अधिकार, सर्व शिक्षा अभियान और मध्याह्न भोजन जैसी सरकारी पहलों ने स्कूली शिक्षा तक पहुंच में महत्त्वपूर्ण सुधार किया है।

बहरहाल, अभी भी बड़े पैमाने पर अंत:संबंधित चुनौतियां मौजूद हैं जिनमें शिक्षण नतीजे, शिक्षकों की रिक्तियां, संचालन से लेकर संगठनात्मक मुद्दे शामिल हैं। इस संदर्भ में नीति आयोग ने तीन प्रदेशों झारखंड, मध्य प्रदेश और ओडिशा में सस्टेनेबल ऐक्शन फॉर ट्रांसफॉर्मिंग ह्यूमन कैपिटल इन एजुकेशन (साथ-ई) के अंतर्गत जो काम किया है वह अन्य राज्यों को आगे की राह दिखा सकता है।

देश भर में छोटे सरकारी स्कूलों को तेजी से खोले जाने और प्रजनन दर में कमी ने इनमें से कुछ स्कूलों को अत्यधिक छोटे आकार का बना दिया है। बड़ी तादाद में छोटे-छोटे स्कूलों का संचालन न केवल महंगा पड़ता है बल्कि शैक्षणिक नतीजों पर भी इसका असर होता है क्योंकि शिक्षकों की उपलब्धता कम होती है। उदाहरण के लिए झारखंड में 4,380 स्कूलों का विलय किया गया जिससे करीब 400 करोड़ रुपये की बचत हुई।

नीति आयोग की परियोजना में साफ तौर पर इस बात पर जोर ​दिया गया है कि छोटे, कम पैमाने पर काम कर रहे और कम छात्र पंजीयन वाले स्कूलों का विलय किया जाए और शिक्षकों की समुचित व्यवस्था की जाए क्योंकि देश के स्कूली शिक्षा परिदृश्य में बदलाव लाने में उनकी अहम भूमिका है।

अकादमिक सुधार और स्कूली स्तर पर नवाचार तभी सफल हो सकते हैं जब व्यवस्थागत चुनौतियों का सामना संस्थागत और संचालन स्तर पर बदलावों के मिश्रण से किया जाए। इस सप्ताह जारी की गई परियोजना पर आधारित रिपोर्ट के अनुसार छोटे पैमाने पर काम कर रहे स्कूलों का विलय करने तथा आसपास के स्कूलों को उसमें मिलाने से बेहतर शैक्षणिक और प्रशासनिक ​नतीजे हासिल हुए हैं।

एक बार एकीकरण हो जाने के बाद बड़े स्कूल न केवल स्कूलों का बड़ा आकार मुहैया कराते हैं बल्कि वहां शिक्षकों की भी समुचित व्यवस्था होती है और बुनियादी ढांचा भी बेहतर होता है। इसके अतिरिक्त इससे छात्रों की क्षमता बढ़ती है, वे एक कक्षा से दूसरी कक्षा में सहज ढंग से जाते हैं और एक साथ कई कक्षाओं को पढ़ाने की प्र​क्रिया पर भी रोक लगती है।

ज्यादा तादाद में छात्रों को एक बड़े साथी समूह का सहयोग मिलता है, इससे उनके ज्ञान में गहराई और विविधता आती है। इससे शैक्षणिक अनुशासन को बेहतर बनाने में मदद मिलती है। ये सारी बातें स्कूल के बेहतर प्रदर्शन, स्कूल छोड़ने वालों की तादाद में कमी और छात्रों के लिए बेहतर ​शिक्षण नतीजों से संबद्ध हैं। बेहतर निगरानी तथा संचालन भी स्कूलों के विलय से जुड़ा एक लाभ है।

साथ-ई परियोजना में शामिल तीन स्कूलों का अनुभव अन्य राज्यों को प्रोत्साहित कर सकता है कि वे इससे निकले कुछ सबकों को अपनाएं। इस दौरान आर्थिक व्यवहार्यता और स्थानीय समुदायों के बच्चों पर प्रभाव जैसे कारकों को भी ध्यान में रखना होगा।

भारत की भौगोलिक आकृतियों में अंतर को देखते हुए तथा जनजातीय आबादी को ध्यान में रखते हुए इस बात को पूरी तवज्जो दी जानी चाहिए कि दूरदराज इलाकों में स्कूल तक पहुंच प्रभावित न हो और स्कूल छोड़ने वालों की संख्या बढ़ न जाए। लोगों के आवासीय इलाके के आसपास स्कूलों की उपस्थिति प्राथमिकता होनी चाहिए। खासतौर पर प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर।

झारखंड के खूंटी जिले की सफलता उल्लेखनीय है। जिला प्रशासन ने दूरदराज रहने वाले विद्यार्थियों के लिए परिवहन व्यवस्था की। छात्र अपने पुराने स्कूल पर एकत्रित होते और वहां से बस से नए विलय किए गए स्कूल तक पहुंचते। ज्यादा उम्र के छात्रों के लिए साइकिल के विकल्प पर भी विचार किया जा सकता है।

इसके अलावा नीति निर्माताओं को ​शिक्षण की गुणवत्ता और पाठ्यक्रम पर भी ध्यान देना चाहिए क्योंकि शैक्षणिक सबकों में सुधार की दृष्टि से वे भी महत्त्वपूर्ण हैं। सरकारी स्कूलों के पुनर्गठन के इर्दगिर्द बनने वाली कोई नीति सावधानीपूर्वक तैयार की जानी चाहिए। सरकारी स्कूलों में शिक्षण को बेहतर बनाए बिना भारत सतत विकास लक्ष्यों को हासिल नहीं कर सकेगा।

First Published - November 15, 2023 | 11:25 PM IST

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